Sunday, August 26, 2018

नदियां बिफरें नहीं तो क्या करें

नदियां बिफरें नहीं तो क्या करें

जब नगरीकरण का जुनून जागा तो हमने इन छोटी नदियों के प्रवाह के मार्ग में इतनी नई बस्तियां बना दीं कि नदी के पानी को निकलने के लिए इस या उस मोड़ पर जद्दोजहद करनी ही होती है। उधर, नदियों के पेटे में जम गए प्रदूषण ने बचे-खुचे प्रवाह स्थल को इतना उथला कर दिया कि कोई भी नदी जब नदी होकर बहना चाहती है तो लोगों को उसके प्रवाह में रौद्र रूप ही नजर आता है। जनसत्ता August 15, 2018 5:28 AM अंधाधुंध विकास ने नदियों के साथ बहुत छल किया है। लेकिन अभी भी यदि हम स्थितियों की भयावहता को समझें तो सभ्यता के सतौल को बिखरने से बचा सकते हैं। अतुल कनक इस बार वर्षा ऋतु के प्रारंभ से ही देश के विविध हिस्सों में नदियों ने रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। देश के विविध राज्यों में अब तक छह सौ से अधिक लोग जलप्लावन के शिकार हो गए हैं। निश्चित रूप से कुछ हिस्सों में अतिवृष्टि बाढ़ का कारण बनी है, लेकिन सच यह भी है कि नदियों के पेटे में बस गई बस्तियों ने भी बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाया है। गंगा के किनारे जो तिबारियां कभी नदी के घाट का हिस्सा हुआ करती थीं, उनमें भी यदि परिवार रहने लगें तो उसे नदी का प्रकोप कैसे कहा जा सकता है! एक कमजोर मनुष्य भी अपने घर की मर्यादा पर किसी का अतिक्रमण नहीं सहन कर पाता, तो फिर नदियों से हम यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि जब उनका दिन आएगा तो विकास के नाम पर अपने साथ हुए बुरे बर्ताव को भूल जाएंगी? किसी भी बस्ती में जलप्लावन होना दुख का विषय है, लेकिन हमने तो विकास के नाम पर ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली है कि ‘बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं/ और नदियों के किनारे घर बने हैं।’

जातक कथाओं में एक प्रसंग आता है। वर्षा ऋतु के ठीक पहले गौतम बुद्ध एक ऐसे गांव में पहुंचे जिस गांव के किनारे एक नदी थी और अक्सर बरसात के मौसम में उस नदी में बाढ़ आ जाया करती थी। बुद्ध जिस किसान के यहां रुके, वह अतिथि की तेजस्विता से उत्साहित हो गया और उसने बुद्ध को बताया कि इस बार बारिश के पहले ही उसने अपनी झोंपड़ी का छप्पर ठीक कर लिया है और अपनी जरूरत का पर्याप्त सामान एकत्र कर लिया है। इसलिए चाहे तेज बारिश हो या नदी में बाढ़ आए, उसे कोई चिंता नहीं है। बुद्ध मुस्कुरा कर बोले कि उन्होंने भी काल की नदी में बाढ़ आने के पहले अपने कर्मों का छप्पर ठीक कर लिया है और पर्याप्त मात्रा में चित्त शुद्धि एकत्र कर ली है, इसलिए उन्हें भी अब कोई चिंता नहीं है। दोनों अपने-अपने प्रसंगों में अपनी-अपनी प्राथमिकताओं को दर्शा रहे थे, लेकिन यह प्रसंग इतनी आवश्यकता तो रेखांकित करता ही है कि हम मानसून के पहले बरसात के स्वागत की पूरी तैयारी कर लें। बरसात की तैयारी का आशय है कि हम जल प्रवाह के रास्तों को निर्बाध करें। पानी अपने प्रवाह का रास्ता अपवाद स्वरूप ही बदलता है। लेकिन हमने तो विकास के नाम पर सीमेंट और कंक्रीट के जंगल इस तरह खड़े कर दिए कि पानी के प्रवाह के रास्ते को ही अवरुद्ध कर दिया। देश भर में छोटी-छोटी नदियां किसी क्षेत्र के लिए न केवल जल संचित करती थीं, बल्कि भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद भी करती थीं। इनमें मुंबई की नीरी नदी, कोटा की मंदाकिनी नदी, जयपुर की द्रव्यवती नदी जैसे कितने ही नाम लिए जा सकते हैं। लेकिन जब नगरीकरण का जुनून जागा तो हमने इन छोटी नदियों के प्रवाह के मार्ग में इतनी नई बस्तियां बना दीं कि नदी के पानी को निकलने के लिए इस या उस मोड़ पर जद्दोजहद करनी ही होती है। उधर, नदियों के पेटे में जम गए प्रदूषण ने बचे-खुचे प्रवाह स्थल को इतना उथला कर दिया कि कोई भी नदी जब नदी होकर बहना चाहती है तो लोगों को उसके प्रवाह में रौद्र रूप ही नजर आता है। न्यूजीलैंड की एक अदालत ने कुछ दिन पूर्व नदियों को सप्राण अस्तित्व (लीविंग एंटिटी) अर्थात जीवित इकाई माना था। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के एक खंडपीठ ने भी एक मामले की सुनवाई के दौरान गंगा और यमुना जैसी नदियों को जीवित इकाई मानते हुए फैसला सुनाया कि संविधान द्वारा व्यक्तियों को प्रदत्त अधिकार नदियों के प्रकरण में भी अक्षुण्ण रहेंगे और नदियों के पानी को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ समुचित कार्रवाई होगी। नदियों के पक्ष में माननीय न्यायालयों ने अपने निर्णय भले ही अभी सुनाए हों, लेकिन हम भारतीय तो सदियों से नदियों को देवी रूप में पूजते हुए उन्हें जीवंत इकाई ही मानते आए हैं। यही कारण है कि प्राचीनकाल में दिन की शुरुआत ही नदियों की वंदना से हुआ करती थी। नदियों को हम मां के रूप में पूजने के हिमायती रहे हैं। परंपरागत भारतीय ज्योतिष तो यह तक मानता है कि किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली का चौथा स्थान बहते पानी, मां और सुख का कारक होता है। बहता पानी- यानी नदी। इसका अर्थ हमारा परंपरागत ज्योतिष नदियों के संरक्षण को सुख का कारक मानता है। ज्योतिष की एक चर्चित पद्धति है- लाल किताब ज्योतिष। लाल किताब ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर मातृ-ऋण होता है तो वह अपने घर की गंदगी को बहते पानी में फेंकता है। आज जिस तरह से समूचे शहर की गंदगी नालों के माध्यम से नदियों में फेंकी जा रही है, उसे देख कर सवाल उठ सकता है कि क्या सारा समाज ही मातृ ऋण का सताया हुआ है? नदियों की पीड़ा को समझने में हमने अभी भी दुविधा दिखाई तो हो सकता है कि फिर हमें कुछ समझने का मौका ही न मिले। याद करिए, जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ था, लगभग उसी क्षण दिव्य कही जाने वाली नदी सरस्वती ने अपने को समेटना शुरू कर दिया था। आज हम भले ही उपग्रह चित्रों के माध्यम से सरस्वती के प्रवाह के मार्ग को जान लेने के अनगिनत दावे करें, लेकिन जिस नदी के किनारे वेद ऋचाओं का प्रणयन हुआ- वह नदी अपने समय के सबसे विकराल युद्ध के साक्ष्य में बहती हुई मानो पथरा ही गई। नदी तो मां होती है ना, और कोई भी मां यह कब सहन कर सकती है कि उसकी संतानें परस्पर युद्ध करके एक दूसरे का खून बहाएं। इंग्लैंड के डेवोम प्रांत में एक नदी के किनारे बिकलेघ का किला है। मध्ययुग में वहां राजसत्ता की प्राप्ति के लिए भीषण युद्ध हुआ और आक्रमणकारियों ने युवा राजकुमार को जिंदा काट कर नदी में फेंक दिया। काल ने इसके बाद मनुष्य की स्मृतियों पर अनेक आवरण चढ़ा दिए, लेकिन नदी अभी भी उस दर्द से कराह उठती है। कहते हैं कि हर साल उसी तारीख को, जब एक युवा राजकुमार का सिर काट कर नदी में फेंका गया था, नदी का एक हिस्सा लाल हो जाता है- जिसे देखने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक भी वहां पहुंचते हैं। हिंसा के दंश से लाल हुआ एक नदी का हृदय पर्यटकों के कौतूहल का विषय हो सकता है, लेकिन संवेदनशील लोगों के लिए तो हर नदी के अस्तित्व को बचाना, हर नदी के दर्द को समझना उनके सरोकारों की प्रमुखता में होना चाहिए। अंधाधुंध विकास ने नदियों के साथ बहुत छल किया है। लेकिन अभी भी यदि हम स्थितियों की भयावहता को समझें तो सभ्यता के सतौल को बिखरने से बचा सकते हैं। पंजाब में बाबा बलबीर सिंह सिचेवाल ने ऐसा कर भी दिखाया है। लुधियाना जिले में एक नदी थी कालीबेई। इस नदी का ऐतिहासिक और सामाजिक ही नहीं, सांस्कृतिक महत्त्व भी था। मान्यता है कि गुरुनानक देव ने इसी नदी में स्नान करते हुए शबद रचना की थी। लेकिन समय और समाज की उपेक्षा ने इस छोटी-सी, लेकिन पवित्र नदी को भी एक नाले में बदल दिया। बलबीर सिंह सिचेवाल ने इस नदी की सफाई का संकल्प लिया और प्रयासों में जुट गए। धीरे-धीरे उनकी मुहिम को दूसरे लोगों का भी समर्थन मिला और कालीबेई में फिर स्वच्छ जल लहलहाने लगा। कालीबेई का उदाहरण साबित करता है कि मन में चेतना और संकल्प हो तो नदियों को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है। वरना, ऐसा न हो कि सभ्यता के प्रारंभ से ही मानव जीवन की संभावनाओं को संवारने वाली नदियां मनुष्य के स्वार्थी आचरण को देख कर सरस्वती की तरह लुप्त होने लगें। यदि ऐसा हुआ तो शायद भविष्य हमें नदियों की दुर्दशा की अनदेखी करने के अपराध के लिए कभी क्षमा नहीं करेगा।

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