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इसके अतिरिक्त्त शिवजी साहिब पर ठेंगड़ी जी ने पृष्ठ 56 पर एक व्यापारी का उल्लेख चाहिए।
हिन्दू साम्राज्य दिवस
1. भूमिका: तीन विश्व के बड़े योद्धाओं से ठेंगड़ी जी ने तुलना की है। सिकंदर, जूलियस सीजर, व नेपोलियन से। तीनों में श्रेष्ठ शिवजी महाराज। भावना संत व त्यागी की थी।
2). आत्मविश्वास की मिसाल
3. अपूर्व योद्धा व रणनीतिकार:
4. संगठन कर्ता: साथी तैयार किये
5. स्वदेशी दृष्टि: मुद्रण कला लाए, अपनी मुद्रा स्वयं न
बनाई, जहाज़ी बेड़ा बनाते समय टेक्नोलॉजी ट्रांसफर।
6. सुशाशन का प्रतीक: न्यायप्रिय, समृद्धि,
7 समारोप: हम सब के लिए प्रेरणा। विवेक बिंद्रा की स्पीच।
हिन्दू साम्राज्य दिवस के अवसर पर नागपुर में २०१० में सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत का उद्बोधन
प्रतिवर्ष आनेवाले इस हिंदूसाम्राज्य दिनोत्सव का आज विशेष आयोजन है। अपना संघ कार्य 84 वाँ वर्ष पार करके 85 वें वाल में चल रहा है। इतना लम्बा समय कोई कार्य करते करते जब बीत जाता है, दो पीढियाँ बीत कर अब तीसरी पीढी काम कर रही है, तो जो कार्यक्रम है, जो आचार है, उसके पीछे विचार क्या है इस का फिर स्मरण करना आवश्यक रहता है। बिना विचार के केवल कर्मकांड जैसा हम कुछ करते रहें तो परिश्रम तो होता है, लेकिन उसका परिणाम नहीं निकलता। समय आगे चलता चला जाता है तो कई बातों के बारे में जानकारियाँ लुप्त हो जाती हैं। तो फिर मन में कई प्रकार के प्रश्न पैदा हो सकते हैं और उस के चलते उनका उत्तर अगर नहीं मिला तो जो उपयुक्त आचार है उस के बारे में अश्रद्धा उत्पन्न होने की भी संभावना रहती है।
हिंदू साम्राज्य दिवस ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी यह छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का दिवस है। संघ ने इस उत्सव को अपना उत्सव क्यों बनाया इसका आज के वातावरण में जिन्हें ज्ञान नहीं है, जानकारी नहीं है, उन के मन में कई प्रश्न आ सकते हैं। हमारे देश में राजाओं की कमी नहीं है, देश के लिये जिन्होंने लडकर विजय प्राप्त की, ऐसे राजाओं की भी कमी नहीं है। फिर भी, क्यों कि संघ नागपुर में स्थापन हुआ और संघ के प्रारंभ के सब कार्यकर्ता महाराष्ट्र के थे, इसी लिये संघ ने छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का दिन हिंदू साम्राज्य दिनोत्सव बनाया ऐसा नहीं है। छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की परिस्थिति अगर हम देखेंगे तो ध्यान में ये बात आती है कि अपनी आज की परिस्थिति और उस समय की परिस्थिति इसमें बहुत अंशों में समानता है। उस समय जैसे चारों ओर से संकट थे, समाज अत्याचारों से ग्रस्त था, पीड़ित था, वैसे ही आज भी तरह तरह के संकट हैं, और केवल विदेश के और उनकी सामरिक शक्तियों के संकट नहीं है, सब प्रकार के संकट है। उस समय भी ये संकट तो थे ही लेकिन उन संकटों के आगे समाज अपना आत्मविश्वास खो बैठा था। यह सब से बडा संकट था। मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से इन संकटों का सूत्रपात हुआ। हम लड़ते रहे, लेकिन लडाई में बार बार मार खाते, कटते, पिटते भी रहे। विजय नगर के साम्राज्य का जब लोप हो गया तो समाज में एक निराशा सी व्याप्त हो गई। जैसी आज देखने को मिलती है। समाज के बारे में सोचने वाले प्रामाणिक व्यक्तियों के पास हम जायेंगे, उनके साथ बैठेंगे, सुनेंगे तो वे सब लोग लगभग निराश है। कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती और निराशा का पहिला परिणाम होता है आत्मविश्वास गवाँ बैठना। वह आत्मविश्वास चला गया। अभी अभी कोलकाता की एक संपूर्ण हिंदू धनी बस्ती में विनाकारण एक मस्जिद बनाने का काम कट्टरपंथी उपद्रवियों ने शुरू किया, शुरू ही किया था तो पहली प्रतिक्रिया हिंदू समाज की क्या हुई? ‘अरे राम, यहाँ पर मस्जिद आ गई! चलो, इस बस्ती को अब छोड़ो!’ वहाँ संघ के स्वयंसेवक है, उन्होंने सब को समझाया, फिर वहाँ प्रतिकार खडा हुआ, यह बात अलग है। लेकिन हिंदुसमाज पहला विचार यह करता है कि आ गये! भागो! शिवाजी के पूर्व के समय में भी ऐसी ही परिस्थिति थी। अपनी सारी विजिगीषा छोड कर हिंदू समाज हताश हो कर बैठा था। अब हमको विदेशियोंकी चाकरीही करनी है यह मान कर चला था। इस मानसिकता का उत्तम दिग्दर्शन शायद राम गणेश गडकरी जी के ‘शिवसंभव’ नाटक में है। शिवाजी महाराज के जन्म की कहानी है। जिजामाता गर्भवती है, और गर्भवती स्त्री को विशिष्ट इच्छाएँ होती है खाने, पीने की। कहते है कि आनेवाला बालक जिस स्वभाव का होगा उस प्रकार की इच्छा होती है। मराठी में ‘डोहाळे’ कहते है। हर गर्भवती स्त्री को ऐसी इच्छा होती है। फिर उस की सखी सहेलियाँ उस की इच्छाएँ पूछ कर उसको तृप्त करने का प्रयास करती है। नाटक में प्रसंग है जिजामाता के सहेलियों नें पूछा, ‘क्या इच्छा है?’ तो जिजामाता बताती है कि, ‘मुझे ऐसा लगता है की शेर की सवारी करूँ, और मेरे दो ही हाथ न हों, अठारह हाथ हों और एकेक हाथ में एकेक शस्त्र लेकर पृथ्वीतल पर जहाँ जहाँ राक्षस हैं वहाँ जाकर उन का निःपात करूँ, या सिंहासन पर बैठकर और छत्र चामरादि धारण कर अपने नाम का जयघोष सारी दुनिया में करावाऊँ, इस प्रकार की इच्छाएँ मुझे हो रही है। सामान्य स्थिति में यह सुनते है तो कितना आनंद होगा कि आनेवाला बालक इस प्रकार का विजिगीषु वृत्ति का है। लेकिन जिजामाता की सहेलियाँ कहती है कि, ‘ये क्या है? ये क्या सोच रही हो तुम? अरे जानती नहीं एक राजा ने ऐसा किया था, उस का क्या हाल हो गया? हम हिंदू है, सिंहासन पर बैठेंगे?” ‘भिकेचे डोहोळे’ ऐसा शब्द मराठी में हैं। भीख माँगने के लक्षण! याने हिंदू ने हाथ में शस्त्र लेकर पराक्रम करने की इच्छा करना या सिंहासन पर बैठने की इच्छा करना यह बरबादी का लक्षण है। इस प्रकार की मानसिकता हिंदुसमाज की बनी थी। आत्मविश्वासशून्य हो जाते है तो फिर सब प्रकार के दोष आ जाते है। स्वार्थ आ जाता है। आपस में कलह आ जाता है। और इस का लाभ लेकर विदेशी ताकते बढती चली जाती है। बढती चली जाती है और फिर सामान्य लोगों का जीवन दुर्भर हो जाता है।
“अन्न नही, वस्त्र नही, सौख्य नाही जनामध्ये,
आश्रयो पाहता नाही, बुद्धी दे रघुनायका,
माणसा खावया अन्न नाही, अंथरूण पांघरूण ते ही नाही,
घर कराया सामग्री नाही, अखंड चिंतेच्या प्रवाही पडिले लोक,”
(“अन्न नाही, वस्त्र नाही सौख्य नहीं जनों को।
देखने पर आसरा भी न मिले बुद्धि दो रघुनायका।
मनुष्य को खाने को अन्न नहीं
ओढना बिछावन नहीं
घर बनाने की सामग्री नहीं
अखंड चिनता प्रवाह में पडे लोग॥”)
ऐसी उस समय की स्थिति रामदास स्वामी ने वर्णन की है। इस प्रकार की विजिगीषाशून्य, दैन्य युक्त समाज की स्थिति थी। उस समय शिवाजी महाराज के उद्यम से विदेशी आक्रमण के साथ लंबे संघर्ष के बाद भारतीय इतिहास में पहली बार हिंदुओं का अधिकृत विधिसंमत, स्वतंत्र सिंहासन स्थापित हुआ।
यथार्थ संदेश
शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक होना यह केवल शिवाजी महाराज के विजय की बात नहीं है। काबूल-जाबूल पर आक्रमण हुआ तब से शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के समय तक इस देश के धर्म, संस्कृति व समाज का संरक्षण कर हिंदुराष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के जो प्रयास चले थे, वे बार बार विफल हो रहे थे। प्रयोग चले, राजा लड रहे थे, विभिन्न प्रकार की रणनीति का प्रयोग कर रहे थे, संत लोग समाज में एकता लाने के, उन को एकत्र रखने के, उनकी श्रद्धाओं को बनाये रखने के लिये अनेक प्रकार के प्रयोग चला रहे थे। कुछ तात्कालिक सफल हुए। कुछ पूर्ण विफल हुए। लेकन जो सफलता समाज को चाहिये थी वह कहीं दिख नहीं रही थी। इन सारे प्रयोगों के प्रयासों की अंतिम सफल परिणति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक है। यह केवल शिवाजी महाराज की विजय नहीं है। लडने वाले हिंदू राष्ट्र की अपने शत्रुओं पर विजय है। नए प्रकार का जो परचक्र आया है, जो मात्र सत्ता और संपत्ति लूटता नहीं है, जो मनुष्य को ही बदल देने की चेष्टा करता है, और जो बदलने के लिये तैयार नहीं है उनका उच्छेद करता है, ऐसे समाज विध्वसंक, धर्म विध्वंसक परकीय आक्रामकों से अपना सहिष्णुता का, शांति का, अहिंसा का, सब को अपना मानने वाला तत्वज्ञान अबाधित रखते हुए, उसकी सुरक्षा के लिये लडकर उनपर विजय कैसे प्राप्त करना, इस समाज की पाँचसौं साल की ऐसी समस्या का निदान शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में हो गया। इसी लिये उस का महत्व है। शिवाजी महाराज का उद्यम देखने के बाद सबको भरोसा हो गया कि अगर इस का हल ढूँढकर, फिर से हिंदू समाज, हिंदू धर्म, संस्कृति, राष्ट्र को प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकता है ऐसा कोई एक व्यक्ति है तो वह शिवाजी महाराज है और इस लिये औरंगजेब की चाकरी पर लात मार कर कवि भूषण दक्षिण में आये और अपनी शिव बावनी लेकर उन्होंने शिवाजी महाराज के सामने उसका गायन किया। भूषण को धनमान की जरूरत नहीं थी। वे औरंगजेब के दरबार में कवि थे ही। लेकिन हिंदू थे। देशभक्त थे। तो देश में सब प्रकार का उच्छेद करनेवाले इन अधर्मियों को, विधर्मियों को उन की स्तुति के गान सुनाना उनकी प्रवृत्ति में नहीं था। इस लिये इधर उधर की प्रणय कवितायें सुनाकर समय काट लेते थे। औरंगजेब ने एक बार आज्ञा की मेरी स्तुति का काव्य करो। बहुत पीछे पडा तब उन्होंने भरे दरबार में उसको नकार दिया। कहा कवि बेचा नहीं जाता। जो केवल उज्जवल है, उसी की स्तुति कवि करता है। तुम स्तुति करने लायक नहीं हो और तुम्हारी चाकरी मुझे नहीं चाहिये। छोडकर आये। केवल महाराष्ट्र के लोगों को ही लगता था कि शिवाजी महाराज राजा बने ऐसी बात नहीं। ऐसा उन को तो लगता ही था। यहाँ के संतों को लगता था कि धर्म स्थापना के लिये शिवाजी महाराज का राजा होना आवश्यक है। जिजामाता को लगता था कि अपने पुत्र का कर्तृत्व इतना है की वह हिंदूसमाज का नेतृत्व कर सकता है। लेकिन काशी विश्वेश्वर के मंदिर का काशी में विध्वंस देखने वाले उस के परंपरागत पुजारी परिवारों के वंशज गागा भट्ट, उन को भी लगा कि अगर इस प्रकार मंदिरों का विध्वंस अपने देश में रोकना है तो कौन रोक सकता है? उन्होंने पूछताछ की तो शिवाजी महाराज का नाम सुना। महाराष्ट्र में आए। नाशिक से लेकर अपने शिवाजी महाराज के मिलने तक के प्रवास में शिवाजी महाराज की सारी जानकारी ली, सारा प्रत्यक्ष अनुभव किया और फिर शिवाजी महाराज को आकर कहा, ‘आपको सिंहासनाधीश होना है’। इसी लिये तो इस राज्याभिषेक के परिणामस्वरूप केवल महाराष्ट्र में एक सिंहासन बना, शिवाजी महाराज राजा बने यहाँ तक परिणाम सीमित नहीं रहे। आगरा में औरंगजेब को मिलने के लिये जब शिवाजी महाराज गये तब सारा हिंदू जगत, सारी दुनिया भी देख रही थी। लेकिन हिंदू जगत विशेष रूप से देख रहा था। वह समझ रहा था कि ये अंतिम परीक्षा है। शिवाजी महाराज का प्रयोग सफल होता है कि नहीं? सब लोग लड़ने वाले लोग थे। उनको हिंदवी स्वराज्य चाहिये था। शब्द अलग अलग होंगे। लेकिन शिवाजी महाराज जो सफल उद्यम कर रहे थे, वह वास्तव में सफल होता है या नहीं उसकी परीक्षा अब थी और इस लिये शिवाजी महाराज जब औरंगजेब के दरबार से सहीसलामत छूट कर, निकल आये और फिर से उद्यम प्राप्त करके उन्होंने अपना सिंहासन बनाया, उसके परिणाम क्या है? राजस्थान के सब राजपूत राजाओं ने अपने आपस के कलह छोडकर दुर्गादास राठोड के नेतृत्व में अपना दल बनाया और शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के पश्चात कुछ ही वर्षों में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की कि सारे विदेशी आक्रामकों को राजस्थान छोडना पडा। उसे के बाद किसी मुगल, तुर्क का पैर राजस्थान में राजा के नाते नहीं पडा। नोकर के नाते भलेही पडा हो। छत्रसाल ने तो प्रत्यक्ष शिवाजी महाराज से प्रेरणा पायी। उसके पिताजी चंपतराय के काल तक सषर्घ चल रहा था। शिवजी महाराज की कार्यशैली को प्रत्यक्ष देखकर छत्रसाल यहाँ से गये और उन्होंने अंततः विजय पा कर स्वधर्म का एक साम्राज्य वहाँ पर उत्पन्न किया। असम के राजा चक्रध्वजसिंह कहते थे ‘जैसा वहां पर शिवाजी कर रहा है वैसी नीति चलाकर इस असम पर किसी आक्रामक का पैर पडनें नहीं दूंगा।’ ब्रह्मपुत्र से सब को वापिस जाना पडा। असम कभी भी मुगलों का गुलाम नहीं बना। इस्लाम का गुलाम नहीं बना। लेकिन चक्रध्वजसिंह ने कहा और लिखा शिवाजी जैसी नीति अपनाकर हम लोगों को मुगलों को खदेड देना चाहिये। और ऐसा हो जाने के बाद कोच-बिहार के राजा रूद्रसिंह लड रहे थे वह लडाई भी सफल हो गई है। ‘हम को भी ऐसा ही पाखंडियों को बंगाल के समुद्र में डुबोना चाहिये’ इस लिये शिवाजी महाराज के उदाहरण से प्रेरणा मिली। ये सारा इतिहास में है। शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक, संपूर्ण हिंदूराष्ट्र के लिये एक संदेश था कि यह विजय का रास्ता है। इस पर चलो। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का प्रयोजन ही यह था। शिवाजी महाराज के सारे उद्यम का प्रयोजन यही था। उनका उद्यम अपने लिये नहीं था। शिवजी महाराज ने अपने व्यक्तिगत कीर्ति, सन्मान के लिये सत्ता संपादन नहीं किया। उन की तो यह वृत्ति ही नहीं थी। दक्षिण में कुतुबशहा से मिलने गये तो वापस आते समय वे श्री शैल मल्लिकार्जुन के दर्शन के लिये गये। वहाँ की कथा है कि वहाँ जा कर इतने भाव विभोर हुए कि शिवाजी की पिंडी के सामने अपने सर को कलम करने के लिये वे तैय्यार हो गये। शिर कमल अर्पण करने के लिये। वहाँ उन के अंगरक्षक और अमात्य साथ में थे इस लिये उस दिन शिवाजी महाराज को उन्होंने बचा लिया। स्वार्थ की बात तो दूर रही शिवाजी महाराज को अपने प्राणों से भी मोह नहीं था। स्वार्थ की बात रहती तो छत्रसाल जो आये थे देशकार्य में सेवा का अवसर माँगने, उनको अपना मांडलिक बना देते। शिवाजी महाराज ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने उपदेश किया, “तुम नौकर बनने के लिये हो क्या? क्षत्रिय कुल में जन्में तम सेवा करोगे दूसरे राजाओं की? अपना राज्य बनाओ।” यह नहीं कहा कि वहाँ राज्य बनाकर मेरे राज्य से जोड दो, या मेरा मांडलिक बनो तब मै मदद करूँगा। ऐसा नहीं कहा उन्होंने। क्योंकि यह उन्हें करना ही नहीं था। उनका उद्देश्य ऐसी अपनी एक छोटी जागीर, एक राज्य, सब राजाओं में अधिक प्रभावी एक राजा, ऐसा बनना नहीं था।
लिस्बन के पोर्तुगीज आर्काइव्ज में पत्र है गोवा के गव्हर्नर का। गोवा के गवर्नर का एक नौकर शिवाजी महाराज के एक किल्लेदार रावजी सोमनाथ पतकी का रिश्तेदार था उसके इस रावजी को पूछा ये शिवाजी महाराज इतना झगडा झंझट क्यों कर रहे हैं? सुख से रह सकते हैं, लेकिन नहीं रहते है, उद्देश्य क्या हे? पतकी ने शिवाजी महाराज से पूछा “महाराज ये हम इतना कष्ट सहन करके सारा कर रहे हैं, अब बहुत बडा स्वराज्य हो गया। वैसे आपकी पूना जागीर तो बहुत छोटी थी, अब तो बहुत विस्तार हो गया, करना क्या है? कितना आगे जाना है?” तो शिवाजी महाराज ने उत्तर दिया ‘सुना, सिंधु नदी के उद्गम से कावेरी के दक्षिण तट तक ये हमारी भूमि है। इस में से विदेशी लोगों को बाहर करना और जो तीर्थस्थल उन्होंने ध्वस्त किए उनका पुनर्मंडन करना इस के लिये अपना उद्यम है।’ यह उनका उत्तर पोर्तुगीज आर्काइव्ज में है। रावजी सोमनाथ ने अपने रिशतेदार को बताया, उसने गव्हर्नर को बताया, गव्हर्नरने लिस्बन को पत्र लिखा। आर्किव्हजमें वह पत्र विद्यमान है। शिवाजी महाराज की दृष्टि इतनी व्यापक थी। जैसे आज की भाषा में हम कहते है, अपने पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति व हिंदू समाज का संरक्षण कर हिंदू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति। यह दृष्टि शिवाजी महाराज की थी। अपने लिये उनको कुछ नहीं चाहिये था। अपनी कीर्ति के लिये वे लालायित नहीं थे। अगर ऐसा होता तो वे बदनामी सहन नहीं करते। अफझलखान ने जब चढाई की तब मैदान में उस को जीतना मुष्किल जानकर वे प्रतापगढ में जा कर बैठे। तुळजाभवानी का मंदिर अपवित्र हो गया, पंढरपुर का मंदिर अपवित्र कर दिया, लोगों को खदेड दिया, उनके खेत काटे गये। जला दिये गये गांव के गांव। गौहत्या हो रही है और लोग चर्चा कर रहे है कि बडी बडी बाते करने वाला शिवाजी कहाँ है? अब काहँ गई उस की बडी बाते? शिवाजी महाराज ने बदनामी की परवाह नहीं की, क्योंकि उनको अपनी कीर्ति लाभ का मोह ही नहीं था। एक नीति लेकर वे चल रहे थे और इस लिये उन्होंने आग में घी डालने जैसी और अफवाहे फैलायी की शिवाजी सचमुच में डर गया है। वह कूट नीति थी। जंगल में अफझलखान को लाकर उसका समूल उच्छेद कर दिया। जिसको अपने नामी बदनामी की परवाह होती है वह ऐसी नीति पर नहीं चल सकता। उसको हमेशा किसी ना किसी तरह से लोगों को खुश करना होता है। जिससे वे खूश हो वैसा ही वह करेगा। कभी भी लोगों की तरफ से स्वयं पर उंगली उठी हुई उसको स्वीकार नहीं होगी। शिवाजी महाराज के जीवन में यह विचार नहीं था। अपना विचार था ही नहीं।
शिवाजी का आत्मविश्वास
शिवाजी महाराज देश, धर्म का विचार करते थे। उस के लिये उन्होंने उद्यम किया। और कितना आत्मविश्वास! पूजनीय श्री गुरुजी के बौद्धिक वर्ग में आया है। आपने पढा होगा कि देश के लिये शहीद होंगे ऐसा विचार लोग करते है। भगवान कहते है ‘तथास्तु’! देश के लिये शहीद हो जाओ! वे शहीद हो जाते है। वह भी बहुत बडी बात है। लेकिन पराक्रमी, विजिगीषु वृत्ति का मन कहता है की देश के लिये मैं लडूँगा और सब शत्रुओं को मार कर विजय संपादन करूंगा। क्या परिस्थिति थी? उत्तर में बादशाह का राज है, दक्षिण में पाँच सुलतान हैं। विजयनगर जैसा बलाढ्य साम्राज्य लुप्त हो गया है। लेकिन शिवाजी महाराज कहते है कि यहां पर मैं हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करूंगा और वे कहते है कि ‘यह राज्य हो ये तो श्री की इच्छा है’ हमारा ईश्वरीय कार्य है। इसका सफल होना निश्चित है। इसका विजयी होना निश्चित है। उद्यम हम को करना है। पूर्व के संघर्षों का सारा इतिहास उन्होंने पढा होगा, सुना होगा। यह जो मै कहता हूँ कि शिवाजी महाराज का उद्यम तब तक के चले सारे प्रयासों का सम्मिलित उद्यम है, वह इसलिये कि शिवाजी महाराज का अष्टप्रधान मंडल जो बना वह पद्धति तो प्राचीन समय में भारत की परंपरा में थी, बीच के काल में लुप्त हो गयी थी। केवल विजयनगर साम्राज्य में अष्टप्रधान मंडल था और किसी के पास, सार्वभौम हिंदुराजा के पास अष्टप्रधान मंडल नहीं था। वह प्रथा तो लुप्त हो गयी थी। शिवाजी महाराज कहाँ से लाएँ? अपने प्रवास के दौरान निरीक्षण करते थे। वे सिखाने वाले थे। सब की सब बाते पूछकर सीखना, इतिहास सीखना, तुकाराम महाराज, रामदास स्वामी जैसे संतो से मुलाकते होती थी। समर्थ रामदास ने देशभ्रमण किया था। हम्पी में जाकर रामदास स्वामी तीन दिन रहे थे। वहाँ उन का स्थापन किया हुआ हनुमान भी है। विजिगीषा मृत है ऐसा दृश्य दिखता था। परन्तु समाज की स्मृति का लोप नहीं होता है। समाज का नेतृत्व आत्मविश्वासहीन हो जाता है लेकिन समाज के अंदर अंतर्मन में ज्योति जलती रहती है। समाज में क्या चल रहा है उस से बोध लेकर अनुभवोंका संग्रह कर गलतियाँ सुधारते हुए उद्यम करने का निश्चिय संकल्प करके शिवाजी महाराज ने आगे कदम बढाया। इतना आत्मविश्वास! मै जीतूंगा, मुझे जीतना है। यह कार्य हो यह श्री की इच्छा है। और इसलिये समाज का आत्मविश्वास जागृत करनेवाले काम उन्होने सब से पहले किये। एकदम लडाई नहीं शुरू की। अपनी (दी हुई) जागीर संभालने के लिये पुणे आ गये। पहले शहाजी राजा देखते थे वहाँ बैठ कर। उन्होंने निजाम को हाथ में लेकर स्वतंत्रता की लडाई लडी थी। गठबंधन चलता है कि नहीं देखा था। नहीं चला, टूट गया और शहाजी राजा के नेतृत्व में लडने वाले हिंदू को सबक सिखाने के लिये पुणे को जलाया गया। पुणे की जमीन को गधों के हल से जोता गया। उस में एक लोहे की सब्बल ठोक कर उस पर एक फटी चप्पल टांग दी गई। पुणे के लोग चुपचाप दिन में अपने घर का दरवाजा थोड़ा सा खोल कर उस को देख लेते थे तो दिल बैठ जाता था कि यह गति होनेवाली है, देश के लिये, धर्म के लिये लडनेवालों की। शिवाजी महाराज आये। पहला काम उन्होंने यह किया कि हमारी पंरपरा, संस्कृति के गौरव का प्रतीक गणेशजी का मंदिर खोज निकाला। उसकी प्रतिष्ठापना की, और पुणे की भूमि को विविधपूर्वक सुवर्ण के हल से जोता। उसी हिंदूसमाज ने यह भी देखा कि जहाँ पर लोहे के सब्बल पर फटी चप्पल टांग थी, वहां पर एक पराक्रमी युवा आता है और सोने के हल से जमीन को जोतता है। दिन बदल सकते है। किना आत्मविश्वास जागा होगा? अपनी जागीर में सुशासन दे कर लोगों को पहले उन्होंने समर्थ बनाया। कुछ और करने के लिये सारे समाज को जोडा।
रणनीतिज्ञ शिवाजी
शिवाजी महाराज जानते थे की एक नेता, एक सत्ता ये समाज के भाग्य को सदा के लिये नहीं बदल सकते। तात्कालिक विजय संपादन कर फिर इतिहास की पुनरावृत्ति होगी। इस लिये पहले समाज में विजिगीषा जगानी है। समाज में आत्मविश्वास जगाना है, समाज का संगठन करना है। सब प्रकार के लोगों को उन्होंने जोडा। उनके अनुयायियों में कितने प्रकार के लोग थे। मराठी में जिसको कहते है ‘अठरा पगड जाति’! अठारह प्रकार की पगडी बांधने वाले, समाज के अठारह वर्गों के लोग बडे बडे सरदार, पुरोहितों से लेकर तो बिल्कुल छोटा, उस समय जिनको हलका, हीन माना जाता था ऐसे जाति के लोग भी शिवाजी महाराज के ‘जीवश्च कंठश्च’ मित्र थे। उन के लिये प्राण देने के लिये तत्पर, और केवल उनके लिये नहीं, स्वराज्य और स्वधर्म के लिये जीने मरने के लिये तत्पर। शिवाजी महाराज के पास उस समय शस्त्र नहीं थे। बहुत ज्यादा साधन नहीं थे। हाथी घोडे नहीं थे। जब उन्होंने एक एक वीर को खडा किया उनकी आगे चलकर स्वतंत्र कहानियाँ बनी। समाज में एक लोककथा चलती है कि कुतुबशाह को मिलने के लिये शिवाजी महाराज स्वयं गये। उसने व्यंग्य से पूछा ‘आपके पास हाथी कितने है?’ उसको मालूम था, शिवाजी महाराज के पास हाथी नहीं है। शिवाजी महाराज ने कहा-
‘हाथी बहुत है हमारे पास’,
‘साथ में नहीं लाये?’
‘लाये है!’
‘कहाँ है?’
‘पीछे खडे है,’
पीछे उनके मावले सैनिक खडे थे। तो व्यंग्य से कुतुबशहा पूछता है,
‘ये हमारे हाथीयों से लडेंगे क्या?’
तो बोले, ‘उतारिये मैदान में कल।’
दूसरे दिन कुतुबशाह का सबसे खूँखार हाथी लाया गया। सुलतान ने गोलकुंडा में मैदान में उसे उतारा और शिवाजी महाराज ने अपने एक साथी येसाजी कंक से कहा हाथी से लडो। अपना कंबल जमीन पर पटक कर नंगी तलवार हाथ में लेकर वह मैदान में कूद पडा। हाथी की सूंड काटकर उस को मार दिया। हृदय में निर्भयता लेकर देश-धर्म की इज्जत के लिये मदमस्त हाथीयों से लड़नेवाले वीरों की फौज महाराज ने खड़ी की और समूचे समाज में जोश की भावना उत्पन्न की। इसी लिये तो शिवाजी महाराज के जाने के पश्चात जब राजाराम महाराज को दक्षिण में जाकर रहना पडा, एक तरह से बंद से हो गये वे एक किले में, उस समय भी न राजा है, न खजाना है, न सेना है, न सेनापति है, ऐसी अवस्था में भी हाथ में कुदाल, फावडा और हँसिया लेकर महाराष्ट्र की प्रजा बीस साल तक लडी और स्वराज्य को मिटाने के लिये आनेवाले औरंगजेव को दल बल के साथ यहीं पर अपने आप को दफन करा लेना पडा। समाज की इस ताकत को शिवाजी महाराज ने उभार तथा कार्यप्रणित किया। स्वयं के जीवन तक की परवाह नहीं की। पचास साल की उनकी आयु, अखंड परिश्रम की आयु रही है। आप लढो और मैं केवल आदेश दूँगा यह उनका स्वभाव नहीं था, वे स्वयं कूद पडते, कर दिखाते और बादमें कुछ कहते थे। शाहिस्त खाँ को शास्ति (दंड, सजा) सिखाने के लिये स्वयं सामना किया। कारतलबखाँ को शरण लाने के समय वहाँ शिवाजी महाराज अपने सारे शस्त्र धारण कर वीरोचित गणवेष में मौजूद थे। स्वयं आगे होकर अपने साहस का परिचय देते थे। अनुयायियों में कितनी हिंमत जगती थी। विवेक भी रखते थे। ‘धृती उत्साह सम्न्वितः’ ऐसी उनकी रणनीति थी। इस धृति, उत्साह व साहस के बलपर ही वे अफजलखाँ से लडकर सफल हुए।
अफजलखान आया तो बदनामी स्वीकार कर भी प्रतापगढ पर चुपचाप बैठे रहे। मिलने के लिये गये। धैर्य से सहन किया सबकुछ उचित प्रसंग आते ही अफजलखान को समूल नष्ट किया। और उसके बाद जो रणोद्यम किया उससे चार महिने के अंदर बीजापुर के बाहर तक स्वराज्य की सीमा जा पहुँची। कब साहस करना? कब धैर्य दिखाना? कब आक्रामक होना? कब चुप रहना? यह विवेक था उनके पास।
हमारी तब तक की युद्धनीति जो सर्वत्र भारत में चल रही थी वह सीधी थी, धार्मिक थी। धर्मयुद्ध करते थे हम। शिवाजी महाराज ने इस नीति की परिभाषा बदल दी। उन्होंने कहा सामनेवाला शत्रु छल कपट करता है तो जैसे को तैसा करना पडेगा। धर्म के विजय के लिये हम वह करेंगे जो कृष्ण ने महाराभाारत में किया। और इस लिये बीजापुर के दरबार में शहाजी राजा को पकडा तो इन्होंने औरंगजेब को पत्र लिखा कि हम आपके ईमानदार चाकर है और आपकी सरहदोंकी रखवाली कर रहे है। हम को आदिलशाह तंग कर रहा है। इस को कुछ समझाओ। यह पत्र लिखने के बाद वहाँ से पत्र गया। शहाजी महाराज छूट गये लेकिन इस दरम्यान शिवाजी महाराज ने मुगल सल्तनत के भी दो गावों को लूटा क अपने सारे शत्रुओं को, कभी इसी को दोस्ती का हाथ दिखाकर, कभी उसको शस्त्र दिखाकर। ये इमानदारी नहीं है लेकिन बेईमान शत्रूओं के सामने ईमानदारी का उपयोग नहीं करना था। अफजलखान वध के पश्चात चर्चा चली होगी। शिवाजी महाराज से पूछा गया यह प्रश्न कि आप दगाबाज है, आपने तो कसम खायी थी, आपने हाथों में तुलसी पत्र, बिल्व पत्र लेकर शब्द दिया था। और दगा कर अफजलखान को मारा। धोखा किया आपने अफजलखान के साथ। तो शिवाजी महाराज का उत्तर है हां मैने धोखा किया, वो मुझे जिंदा या मुर्दा पकड कर ले जाने की प्रतिज्ञा के साथ आया था, तो क्या में मरूँ? मैं अपने लिये जीना नहीं चाहता। यह नवनिर्मित स्वराज्य है, यह बढेगा, इसका वटवृक्ष होगा उस के पहले ही उसे काटने वाले को मैं उसे काटने दूँ? मैने उस के साथ धोखा किया क्यों कि वो धोखा मन में लेकर आया था। वह कपट कर रहा था। मैने उस का जवाब दिया। एक उदाहरण बता दो यदि मैने कभी दोस्त के साथ धोखा किया हो। हिंदुस्तान के इस आक्रमण का उत्तर देने की नीति का पूर्ण परिष्कार शिवाजी महाराज ने किया। स्वयं की अचूक योजना कुशलता के बल पर एक के बाद एक विजय पर विजय प्राप्त करते चले गऐ। और तात्कालिक पराजय को भी विजय में बदल दिया। वे जब औरंगजेब से मिलने गये तथा राजस्थान के राजपूतों में बुझती हुई स्वतंत्रता की आकांक्षा को उन्होंने फिर से जगाया। उन के आत्मविश्वास को संबल प्रदान किया। वे केवल वहाँ से सफलतापूर्वक भाग कर आये ऐसा नहीं है। वहाँ पर उन्होंने जगह जगह लोगों को अपना बना लिया, औरंगजेब के दरबार से लौटने के पश्चात अपना लूटा गया धन पुनः प्राप्त कर राज्य का विस्तार किया। नौदल, अश्वदल व पदातिसेना को एकसाथ उपयोग करनेवाली व्यूहरचना का प्रयोग करनेवाले वे तत्कालीन भारतवर्ष के वे पहले राजा थे। ऐसा नीतिकार, ऐसे साहस और दूर दृष्टिवाले शिवाजी महाराज केवल सत्ता संपादन के लिये राजा नहीं बने थे। क्योंकि उन के सामने सुरक्षित हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, हिंदू समाज और विजिगीषु परम वैभव-संपन्न हिंदु राष्ट्र का दृश्य था।
शिवाजी का सुशासन
बहुत सी बाते उन्होंने ऐसी की जो यदि आज की जाती है तो लोग कहेंगे कि ये पुरोगामी कदम है। उस जमाने में जब समाजवाद, साम्यवाद का दूर दूर तक नाम नहीं था शिवाजी महाराज ने जमींदारो को, वतनदारी को रद्द कर दिया। समाज के संपत्ति पर हम लोग ट्रस्टी रह सकते है। हम लोग अधिकारी नहीं बन सकते। यह समाज की संपत्ति है, समाज की व्यवस्था देखनेवाले राज्य के अधीन रहे किसी व्यक्ति को यह नहीं दी जायेगी। संभालने के लिये दी जायेगी। ओहदा रहेगा, सत्ता नहीं रहेगी। वतनदारी को रद्द कर दिया। उस समय के सरदार जागीरदारोंकी निजी सेनाएँ होती थी। शिवाजी महाराज ने यह पद्धति बदल दी व सेना को स्वराज्य के केन्द्रीय प्रशासन से वेतन देना प्रारम्भ कर सैनिको की व्यक्तिपर निष्ठाओंको राष्ट्रपर बनाया। उनके राज्य में सभी सैनिकों के अश्वों का स्वामित्व स्वराज्य के केन्द्रीय प्रशासन के पास था। गरीब किसानों को उनके जमीन का स्तर व फसल के उत्पादन के आधारपर राहत देनेवाली द्विस्तरीय वित्तीय करप्रणाली उन्होंने लागू की। तालाब, जलकूप खुदवाये, जंगल लगवाये, धर्मशालाएँ, मंदिर व रास्तोंका निर्माण करवाया।
शिवाजी महाराज ने समयानुसार समाज में जो जो परिवर्तन होना चाहिये वह सोचकर परिवर्तन किया। बेधडक किया। नेताजी पालकर को वापस हिंदू बना लिया, बजाजी निंबालकर को फिर से हिंदू बना लिया। केवल बना ही नहीं लिया उन को समाज में स्थापित करने के लिये उन से अपना रिश्ता जोड दिया। विवेक था। दृष्टि थी। तलवार के बल पर इस्लामीकरण हो रहा था। शिवाजी महाराज की दृष्टि क्या थी? विदेशी मुसलमानों को चुन चुन कर उन्होंने बाहर कर दिया। अपने ही समाज से मुस्लिम बने समाज के वर्ग को आत्मसात करने हेतु अपनाने की प्रक्रिया उन्होंने चलायी। कुतुबशाहा को अभय दिया। लेकिन अभय देते समय यह बताया की तुम्हारे दरबार में जो तुम्हारे पहले दो वजीर होंगे वे हिंदू होंगे। उसके अनुसार व्यंकण्णा और मादण्णा नाम के दो वजीर नियुक्त हुए और दूसरी शर्त ये थी की हिंदू प्रजा पर कोई अत्याचार नहीं होगा। पोर्तुगीज गव्हर्नर और पोर्तुगीज सेना की शह पर मतांतरण करने मिशनरी आये है ये समझते ही गोवा पर चढ गये। इन को हजम करना है इस का मतलब अपने धर्म के बारे में ढुल मुल नीति नहीं। सीधा आक्रमण किया। चिपळूण के पास गये। परशुराम मंदिर को फिर से खडा किया। औरंगजेब के आदेश से, तब काशी विश्वेश्वर का मंदिर टूटा था। औरंजेब को पत्र लिखा कि तुम राजा बने हो, दैवयोग से और ईश्वर की कृपा से। और ईश्वर की आँखों में सारी प्रजा समान है। ईश्वर हिंदु मुसलमान ऐसा भेद नहीं करता। तुम न्याय से उसका प्रतिपालन करो, तुम अगर हिंदूंओं के मंदिर तोडने जैसे कारनामे करोगे तो मेरी तलवार लेकर मुझे उत्तर में आना पडेगा। शिवाजी महाराज का राज्य वहाँ नहीं था। शिवाजी महाराज का राज्य बहुत छोटा था। दक्षिण में था। शिवाजी महाराज के जीवन काल में वह राज्य काशी तक जायेगा ऐसी भविष्यवाणी कोई कर नहीं सकता था। फिर भी शिवाजी महाराज ने यह पत्र लिखा क्यों कि काशी विश्वेश्वर हमारे राष्ट्र का श्रद्धास्थान है। यह मेरा राष्ट्र कार्य है। लेकिन ऐसा करते समय जो मुसलमान बन गये है उनका क्या करना? प्रेम से जोडो। बने तक वापस लाओ। ये सारी दृष्टि उन की करनी में थी। समय कहाँ जा रहा है और क्या करना चाहिये इसकी अद्भुत दृष्टि उनके पास थी और इसलिये युरोप से मुद्रण करनेवाला, एक यंत्र, पुराना कीले लगाकर छाप करने वाला, उस को मंगवाकर, उसका अध्ययन करते हुए वैसा यंत्र बनाने का प्रयास, मुद्रण कला शुरू करने का प्रयास उन्होंने करवाया। विदेशियों से अच्छी तोपे, अच्छी तलवारे ली और वैसी तोपे, वैसी तलवार अपने यहां बने इस की चिंता की। उन्होंने स्वराज्य की सुरक्षा के लिये एक बहुत पक्का सूचना तंत्र गुप्तचरों के सुगठित व्यापाक जाल के माध्यम से खडा किया था। सागरी सीमा अपने देश की सुरक्षा है, वहाँ से ही आक्रमण के लिये सीधा रास्ता हो सकता है, क्योंकि अब पानी के जहाज बन गये है तो अपना भी नौदल चाहिये। उन्होने अपने नौदल का गठन किया। विदेशियों की नौ निर्माण कला और अपने ग्रंथों की नौ निर्माण कला की तुलना करते हुए अपने देश के अनुकूल नई नौ निर्माण कला का विद्वानों से सृजन कराया, और वैसे जहाज बनवाये। सिन्धुदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग ऐसे जलदुर्ग बनवाये। कितनी व्यापक दृष्टि होगी और कहाँ तक देखते होंगे। वे केवल उस समय का विचार नहीं करते थे। मात्र एक सुलतान को पराजित कर अपना स्वराज्य बनाना केवल इतना नहीं। इस स्वराज्य को सुरक्षित करना है। इस समाज को समयानुकूल बना कर विश्व का सिरमोर समाज इस नाते खडा करना है।
यह शब्द वे केवल बोले नहीं है, उन की कृति बता रही है। कितने ही ऐसे उदाहरण है। और इसलिये उन का राज्य सुशासन था। राज्य के निर्णय प्रशासन व अमात्यों के साथ चर्चा होकर सहमति से किये जाते थे। लोगों की भाषा में प्रशासन चलाने के लिये उन्होंने राज्यव्यवहारकोष बनाकर विदेशी फारसी भाषा का उपयोग समाप्त किया। गोवंशहत्या प्रतिबंधित की। स्वधर्म का, स्वदेशी यानी स्वशासन शिवाजी महाराज ने लागू किया। उसका आज्ञापत्र प्रसिद्ध है। कितनी छोटी छोटी बातों की चिंता की है। उनका शासन सुशासन था याने क्या था? लोकाभिमुख था। सेना को कहते है कि तुम जाओगे और अपना कैम्प करोगे, शिविर करोगे, तो उस समय ध्यान रखना कि आसपास की प्रजा के खेत का माल बिना उन की अनुमति लेना नहीं, और रस्सी का टुकडा भी प्रजा से लोगे तो उन को उचित दाम देना। अपने यहाँ पर कचरा, रस्सियाँ वगैरे ऐसे ही पडे नहीं रहने देना क्यों कि चिलम पीनेवालों की चिलम का सुलगाया हुआ अंश वहाँ गिर जायेगा तो वह कचरा जल उठेगा और उस से आग लग सकती है। छोटी छोटी बाते है दक्षता और लोकाभिमुख न्याय की। न्यायी प्रशासन तो था ही उनका। पुणे की जागीर को सम्हालना उन्होंने अभी अभी प्रारम्भ ही किया था तब की घटना है, रांझा नामक गाव के पाटील (ग्रामाधिकारी) ने अपने सत्ता के मद में ग्राम के ही एक निरीह महिला पर बलात्कार किया। शिवाजी महाराज ने अपने सैनिकों को भेजकर उसको रस्सियों से बांधकर अपने सामने हाजिर करवाया व उसके हाथ पैर काटकर उसको सजा दी। तब से यह बात कि उन्मत्तों का दमन नहीं हुआ, प्रजा की शिकायत है और उस में शासन की कोई दखल नहीं है ऐसा बिलकुल नहीं होता था। क्या योग्य है, क्या अयोग्य है यह देखकर योग्य ही होगा और कोई अयोग्य करता होगा तो उस को सजा होगी। जितना आदमी बडा उस के लिये उतनी कठोर, छोटा आदमी है तो उस के गलती करने में से भी कोई उपयोगी बात होती हो तो उसकी कदर करना। हिरकणी ग्वालन की कथा प्रसिद्ध है। वह दूध बेचने के लिये रायगढ किले पर आया करती थी। एक दिन देर तक किले पर रह गयी। नियमानुसार किले के सब द्वार सूर्यास्त के बाद बंद कर दिये गये। वह गाँव में वापस कैसे जाये? पहाड के नीचे अपने गाँव में घर पर छोडे आये अपने शिशु की चिन्ता से वह व्याकुल हुई। उसी व्याकुलता में किले के पहाड की एक दुर्गम चट्टान से कूदकर किले के बाहर निकल गयी। शिवाजी महाराज को यह ज्ञात हुआ। एक ओर उन्होंने हिरकणी ग्वालन को दरबार में बुलाकर उसके साहस का अभिनन्दन किया था दूसरी ओर उस चट्टान को तुडवाकर, अधिक दुर्गम बनाकर, उसपर एक बुर्ज बनाकर वह रास्ता बंद किया। आज भी उस बुर्ज को “हिरकणी बुर्ज” कहते है। इतिहास यह बताता है कि वो स्पर्धाएँ करते थे दुर्ग बनाते समय या पुराने दुर्गों को नया बनाते समय की इस दुर्ग पर दुर्गम मार्ग से चढकर आकर बताओ कि कितने रास्ते हो सकते है। और जितने रास्ते स्पर्धकों को मिलते थे उसमें से एक रखकर बाकी सबको उडा देते थे, और यशस्वी स्पर्धकों को पुरस्कार देते थे। ऐसा प्रजाभिमुख, दक्ष, न्यायी शासन उनका था। उस में भेदभाव नहीं था। उस में कदर थी। उस में कठोरता थी। प्रजाभिमुख, सहृदय शासन था, लेकिन सहृदय का मतलब लुंजुपुंज ढीला प्रशासन नहीं था। बहुत कठोर था। किसी की परवाह नहीं होती थी, अपने पुत्र तक की उन्होंने परवाह नहीं की। कान्होजी जेधे ने उनसे कहा खंडोजी खोपडे ने गलती की लेकिन उससे हमारा अच्छा संबंध है। उसको माफ कर दो। मित्र का शब्द तो रखा उन्होने, माफ कर दिया, मारा नहीं, लेकिन हाथ पैर काट दिये और बताया कि आपने बताया इस लिये जान से नहीं मारा लेकिन जिस हाथ से उस ने गद्दारी की और जिस पैरे से चल कर गया वे पैर और हाथ मैने काट दिये। क्षमा नहीं की, कठोर थे। ऐसा कठोर, न्यायी, प्रजाहितदक्ष, प्रजाभिमुख और फिर भी सहृदय शासन उनका था। स्वयं शिवाजी महाराज नेतृत्व के आदर्श थे शिवाजी महाराज के चारित्र्य के बारे में तो उन का विरोधक भी बात नहीं कर सकता। कल्याण सुभेदार की बहू की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। ऐसे कई उदाहरण है शिवाजी महाराज के। अत्यंत लोकप्रिय सर्वसत्तासंपन्न राजा बनने के बाद भी सज्जनों के सामने विनम्र होते थे। कला गुणों की कदर करते थे। रसिया थे, स्वयं करते थे और फिर लोगों से कहते थे। साहस था, विजय का विश्वास था, नीतिनिपुण थे। काम करने की कुशलता थी, हर बात को उत्तम कैसे करना इसका गुरू मंत्र उनके पास रहता था। समर्थ रामदास स्वामी जैसे अत्यंत विलक्षण व्यक्ति के द्वारा ऐसी प्रशंसा जिनको मिली है वे शिवाजी महाराज थे।
‘शिवरायाचे आठवावे रूप, शिवरायाचा आठवावा प्रताप,
शिवरायाचा आठवावा साक्षेप भूमंडळी,
शिवरायाचे कैसे चालणे, शिवरायाचे कैसे बोलणे
शिवरायाचे सलगी देणे, कैसे असे।
यशवंत, नीतिवंत, सामर्थ्यवंत, वरदवंत
पुण्यवंत, कीर्तिवंत, जाणता राजा श्री
(शिवराज का स्मरो रूप,
शिवराज को स्मरो प्रताप
शिवराज की स्मरो क्षमता, भूमंडल में।
शिवराज कैसे चलते
शिवराज कैसे बोलते
शिवराज का परामर्श देना कैसा है।
यशवंत, नीतिवंत, सामर्थ्यवंत, वरदवंत
पुण्यवंत, कीर्तिवंत, जानकार राजा, श्रीमन्त योगी)
ऐसे छत्रपति शिवाजी महाराज जो स्वयं व्यक्तिगत दृष्टिसे राजा कैसा हो, हिंदुसमाज का व्यक्ति कैसा हो, हिंदुसमाज का नेतृत्व करनेवाला नेता कैसा हो इसका मूर्तिमंत आदर्श आज भी है, जिनके हृदय के आत्मविश्वास और बिजिगीषा ने संपूर्ण समाज के आत्मविश्वास को जागृत किया, संपूर्ण समाज में अपना स्वराज्य स्थापन हो इस आकांक्षा का संकल्प जगाया और उद्यम के साथ समाज को साथ लेकर जिनके नेतृत्व के कारण यह हिंदवी स्वराज्य का सिंहासन निर्मित हुआ उन शिवाजी महाराज की विजय वास्तव में हिंदुराष्ट्र की इस लम्बी लडाई की पहली अवस्था में राष्ट्र कि निर्णायक विजय थी। अगर संघर्ष की दूसरी अवस्था में भी शिवाजी महाराज की नीतिपर चलते तो हम उसी प्रकार की निर्णायक विजय पाते। हम नहीं चले इस लिये हमने पाकिस्तान पाया।
वर्तमान संदर्भ में अनुकरणीय संदेश
आज की परिस्थिति भी वही है। आज की आवश्यकता भी वही है। आज भी समाज के मन में उसी विजिगीषा को, आत्मविश्वास को उद्यम को जागृत करना चाहिये। आज भी प्रत्येक व्यक्ति को शिवाजी महाराज के चरित्र का, गुणों का अनुकरण कर हिंदुसमाज का, हिंदुसमाज के साथ रहकर, अपने लिये नहीं, अपने हिंदूराष्ट्र की सर्वांगणि उन्नति के लिये समाज का सक्षम नेतृत्व करनेवाला व्यक्ति बनना है, और सारे समाज के आत्मविश्वास को एक नई ऊँचाई देनेवाला ऐसा एक हिंदू याने प्रजाहितदक्ष, सहृदयी, सर्वत्र समभावी, नीतिकठोर ऐसा शासन समाज के द्वारा ही स्थापित करवाना है।
आज की परिस्थिति में यह जो उपाय है, वह समाज के संगठन से होनेवाला है। समाज की गुणवत्ता, उद्यम और आत्मविश्वास के आधारपर होने वाला है। इसी प्रकार की भूतपूर्व परिस्थिति में इसका एक जिवंत उदाहरण शिवाजी महाराज के उद्यम में से हमको मिलता है। उस समय के सब लोगों के लिये वह उदाहरण स्वरूप हो गया। सब लोगोंने मिलकर जो प्रयोग किये थे उनकी गलतियाँ सुधारते सुधारते ये अंतिम सफल प्रयोग शिवाजी महाराज का रहा, इस लिये उनके राज्यभिषेक का दिन महत्व का है। हम उनकी जन्मजयंति या पुण्यतिथि को उत्सव के रूप में संघ में नहीं लेते। क्यों कि जन्मते बहुत लोग है, मरते बहुत लोग है, दुनिया में कर क्या गये यह महत्व की बात है।
शिवाजी महाराज के द्वारा संपूर्ण राष्ट्र के लिये किये गये प्रयासों की, यह राज्याभिषेक सफल परिणति है और इसलिये इसको हम शिवसाम्राज्य दिन नहीं कहते। इस को हम कहते है हिंदू साम्राज्य दिवस। और इसीलिये अपने पहले तीन सरसंघचालकों ने कई बार कहा, डाक्टरसाहब तो कहते ही थे, गुरूजी ने कहा है, बालासाहब ने कहा है कि हमारा आदर्श तो तत्व है, भगवा ध्वज है, लेकिन कई बार सामान्य व्यक्ति को निर्गुण निराकार समझ में नहीं आता। उस को सगुण साकार स्वरूप चाहिये और व्यक्ति के रूप में सगुण आदर्श के नाते छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन का प्रत्येक अंश हमारे लिये दिग्दर्शक है। उस चरित्र की, उस नीति की, उस कुशलता की, उस उद्देश्य के पवित्रता की आज आवश्यकता है। इस को समझकर ही अपने संघ ने इस ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को, शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के दिन को हिंदू साम्राज्य दिवस निश्चित किया है। इसीलिये आज की जैसी परिस्थिति में उसी को हम सारे भारत में मानते है। शिवाजी महाराज के कर्तृत्व, उनके गुण, उनके चरित्र के द्वारा मिलनेवाला दिग्दर्शन आज की वैसी ही परिस्थिति में मार्गदर्शक है। आज भी अपने लिये अनुकरणीय है। अपने हिंदू साम्राज्य दिवस के इस महत्व को समझकर हम उसको प्रतिवर्ष मनायें और उस का संदेश स्वयंसेवकों में तो ठीक से जाये ही लेकिन संपूर्ण समाज में इसका संदेश जाये, उनके बुद्धि में जायें, वहाँ से उनके हृदय में उतरे और वहाँ से प्रत्येक व्यक्ति के आचरण में प्रकट हो। संघ का यह उद्यम बढाने के प्रयासों में हम लोग समझ कर सहभागी हो, इतनी बात कहते हुए मैं अपने चार शब्द समाप्त करता हूँ।
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