Friday, February 5, 2021

इतिहास बोध

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के आचार्य सच्चिदानन्दमिश्र जी द्वारा वामपंथी इतिहासकार (तथाकथित) द्विजेन्द्र नारायण झा के निधन पर जिस प्रकार से प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है वह हम सभी को पढ़ना चाहिए । यह कला भी सीखने की है कि कैसे किसी को बुरा न लगे इस विधि से  निरपेक्ष तथा तथ्यपूर्ण  विवेचन किया जाए । 
लेख निम्न  है :-
 #दमिथऑफ़दहोलीकाउकेलेखककीबौद्धिकबेईमानी 
कल "द मिथ ऑफ़ द होली काउ" के लेखक प्रोफेसर द्विजेंद्र नारायण झा नहीं रहे। इस अवसर पर बीबीसी द्वारा उनका एक साक्षात्कार छापा गया है, जिसमें वे एक अद्भुत दावा करते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी तक उत्तर भारत में राम का मन्दिर बमुश्किल ही कहीं मिलता है। 
उनको दिवंगत नहीं कहूंगा क्योंकि वे स्वयं मरणोत्तर जीवन में विश्वास नहीं करते थे और दिवंगत कहने से मरणोपरांत स्वर्ग गमन बोधित होता है। इसी कारण ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे यह कामना भी अनुचित होगी। सोचा इस अवसर पर उनकी बौद्धिक बेईमानी के एक अंश को सामने लाते हुए इनके बारे में एक दो बातें की जाएं। सम्भवतः यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
प्रोफेसर द्विजेंद्र नारायण झा की दो पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं "द मिथ ऑफ़ द होली काउ" और "अगेंस्ट द ग्रेन"। निश्चित ही मेहनती और समर्पित व्यक्ति थे, परन्तु इतिहास से अधिक अपनी विचारधारा के लिए। मुझे लगता है कि इतिहास पर शोध करनेवाले को तनिक ज्यादा ही अपनी निष्पक्षता के प्रति सावधान रहना चाहिए, जिसकी कमी इनके लेखन में दिखती है। आप अपनी कहानी पहले से गढ़ लें और उसके बाद उसके समर्थन के लिए मनमाने सन्दर्भ प्रस्तुत करें तो उसको इतिहास तो नहीं कहा जायेगा।
"द मिथ ऑफ़ द होली काउ" में लेखक का प्रयास यह होना चाहिए था कि ऐतिहासिक रूप से यह देखने का प्रयास करता कि "पवित्र गाय" की अवधारणा किस प्रकार जन्म लेती है और विकसित होती है। परन्तु ऐसा कोई प्रयास लेखक नहीं करता है। सम्भवतः इसलिए कि ऐसा कोई भी प्रयास उनके एजेंडे से संगत नहीं होता। इसके स्थान पर वेदों और धर्मशास्त्रों की अपनी समझ के आधार पर प्रोफ़ेसर झा पूरी पुस्तक में गाय को एक स्वीकृत भोज्य पदार्थ के रूप में स्थापित करने की कोशिश में लगे दिखते हैं। बेहतर होता यदि वे इसका शीर्षक "The cow as a food item" रखते।
पिछले दो हजार वर्षों का तो वे जैसे सन्दर्भ ही नहीं ग्रहण करते। "द मिथ ऑफ़ द होली काउ" में लेखक ने पुराणों और महाकाव्यों (रामायण और महाभारत) को सिर्फ़ तीन से चार पृष्ठों में समेट दिया और उनमें भी उन सन्दर्भों को चुनकर लिया जो उनके दृष्टिकोण से संगत हो सकते हैं। केवल इतना ही नहीं अपनी बात को सिद्ध करने के लिए गलत उद्धरण भी देते हैं। पृष्ठ 97 पर वे लिखते हैं
"Bharadvāja . . . welcomes Rama by slaughtering the "fatted calf". 
इसके समर्थन में जो सन्दर्भ (संख्या 67) वे देते हैं वह वाल्मीकीय रामायण से नहीं बल्कि आर एल मित्रा के किसी ग्रन्थ Indo-Aryans vol. I पृष्ठ 396 का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं। यदि ऐसा कोई सन्दर्भ रामायण में है तो क्या उसको रामायण से ही नहीं प्रस्तुत करना चाहिए था? इसको यदि बौद्धिक बेईमानी न कहेंगे तो क्या कहेंगे? असल में संस्कृत के मूल ग्रंथों से परिचित विद्वान् इन लेखकों को पढ़ते नहीं और जो इन लेखकों को पढ़ते हैं वे संस्कृत के मूल ग्रन्थ पढ़ते ही नहीं।
संस्कृत के महाकाव्यों की इतने संक्षेप में चर्चा करना और कालिदास जैसे महाकवि का सन्दर्भग्रहण भी न करना, तथाकथित विद्वान् लेखक की नीयत पर क्या सवाल खड़ा नहीं करता? वाल्मीकीय रामायण में वसिष्ठ की गाय नन्दिनी को प्राप्त करने के लिए वसिष्ठ और विश्वामित्र का युद्ध क्या यह बताता है कि वसिष्ठ की गाय नन्दिनी के लिए होनेवाला युद्ध एक पशु के लिए होनेवाला युद्ध है। इसमें कालिदास अपने रघुवंश महाकाव्य के दूसरे सर्ग में राजा दिलीप के द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए वसिष्ठ की गाय नन्दिनी की किस प्रकार से सेवा की जाती है और सिंह से उस गाय को बचाने के लिए राजा दिलीप द्वारा स्वयं को उसके भोजन के रूप में प्रस्तुत कर देना क्या उस समय गाय की देवता के रूप में प्रस्तुति नहीं है? यदि लेखक ईमानदारी से अपने शोध को प्रस्तुत करना चाहता था तो क्या इसी प्रकार के अन्य संदर्भों का ग्रहण नहीं करना चाहिए था? पुराणों के विपुल साहित्य और महाकाव्यों को केवल चार पृष्ठों में निपटा देना कहीं से भी बौद्धिक ईमानदारी का साक्ष्य नहीं प्रस्तुत करता।

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