श्री राम मंदिर :
आज आम आदमी पार्टी के संजय सिंह ने आरोप लगाया, कि राम मंदिर के लिए ज़मीन ख़रीदने में घोटाला हुआ.
उन्होंने सबूत पेश किया कि 18 मार्च को दो रजिस्ट्री हुई, पहली रजिस्ट्री में कुसुम पाठक, हरीश पाठक ने वह ज़मीन सुल्तान अंसारी आदि को दो करोड़ में बेंची. फिर पाँच मिनट बाद वही ज़मीन विहिप ने 18.5 करोड़ में ख़रीदी. सदैव की भाँति आम आदमी पार्टी जिस तरह से मुद्दे उठाती है लगता है बहुत सेंसेशनल है. लेकिन सत्यता से परे है ।।
1) 2019 में पाठक ने यह ज़मीन दो करोड़ में सुल्तान अंसारी बिल्डर + 8 पार्ट्नर को बेचने हेतु करार नामा किया रजिस्टर्ड. जिसके एवज़ में पचास लाख रुपए लिए नगद. उस समय तक राम मंदिर का फ़ैसला नहीं आया था तो ज़मीनों का रेट काफ़ी कम था अयोध्या में
2) 18 मार्च 2021 को पाठक ने यह करारनामा कैंसिल किया. जब तक यह करार नामा कैंसिल नहीं होता, पाठक इसे किसी को नहीं बेच सकते थे।
3) फिर उसी दिन उन्होंने यह ज़मीन सुल्तान अंसारी बिल्डर को इसी रेट 2 करोड़ में बेची।
4) फिर सुल्तान अंसारी से यह ज़मीन विहिप ने 18.5 करोड़ में ख़रीदी.
दो साल पहले की बात अलग थी, तब दो करोड़ की जो ज़मीन थी अब अयोध्या में 18.5 करोड़ की होना स्वाभाविक है.
और डिटेल में समझाऊँ तो असल में यह कॉमन प्रेक्टिस है. बिल्डर तिहाई चौथाई पैसा देकर किसान से लैंड अग्रीमेंट कर लेते हैं लम्बे समय के लिए. फिर वह ढूँढते हैं पार्टी जो उस ज़मीन को ख़रीद सके. किसान ने चूँकि अग्रीमेंट कर रखा है तो वह बिल्डर को उसी रेट में ही बेंच सकता है जिस रेट में पहले से तय है. जैसे ही बिल्डर को पार्टी मिल जाती है या इसी बीच ज़मीन का रेट बढ़ गया तो बिल्डर सौदा तय कर देता है पार्टी के साथ. पार्टी की मजबूरी है बिल्डर से ही ख़रीदना क्योंकि बिल्डर का किसान से अग्रीमेंट है. फिर रजिस्ट्री वाले दिन बिल्डर पहले अग्रीमेंट कैंसिल करता है, फिर प्रॉपर्टी को पुराने रेट में ख़रीदता है और नए रेट में पार्टी को बेंच देता है.
यह एक सामान्य प्रेक्टिस है प्रॉपर्टी डीलिंग की, प्रियंका जी आसानी से रॉबर्ट वाड्रा से समझ सकती है जो इस प्रकार के असंखय सौदों में बिना कुछ लगाए ही करोड़ो कमाते रहे है
जो भी प्रॉपर्टी का कार्य करते हैं या जो किसान अपनी ज़मीन बिल्डर को बेंचते हैं उन्हें पता होता है. शहरों में भी बिल्डर ऐसे ही बिल्डर अग्रीमेंट करते हैं. फिर ज़मीन डिवेलप कर महँगे दाम पर बेंचते हैं. अरिजिनल पार्टी को रेट वही मिलता है जितना उसने अग्रीमेंट में तय किया होता है, ठीक समय पर पैसा फँसाने के एवज़ में कमाई बिल्डर खाते हैं, यह उनके रिस्क की वसूली होती है.
जो लोग दिल्ली फरवरी 2020 के दंगों में मुख्य भूमिका निभा चुके हैं वह राम मंदिर के विषय पर कोई भी कीचड़ उछालने से क्यों परहेज करेंगे। जो कार सेवको पर गोली चलवाते रहे है उन्हें मंदिर निर्माण से परेशानी तो है ही ।।
मनोगत
प्रस्तुत लघु पुस्तिका ’वैश्विक महामारीः कोरोना चुनौती एवं समाधान’, यद्यपि प्रोफेसर भगवती प्रकाश जी व मेरे द्वारा लिपिबद्ध हुई है, तथापि यह स्वदेशी टीम का सामूहिक प्रयत्न है। इस समय पर वैश्विक महामारी कोरोना व वैक्सीन की चर्चा चारों तरफ है। इस विषय में स्वदेशी जागरण मंच के प्रयासों से ’वैश्विक सर्व सुलभ टीकाकरण एवं चिकित्सा अभियान’ जिसे यूनिवर्सल एक्सेस टू वेक्सीन ऐंड मेडिसन (UVAM) कहा है, व्यापक रूप से विश्व भर में चल रहा है।
यह महामारी कहां से आई, महामारियों का इतिहास कैसा है, वर्तमान में इस बीमारी के कारण से कितने लोगों को कैसी परेशानी हो रही है, आर्थिक नुकसान कैसा हो रहा है, इसकी जानकारी होना आवश्यक है। और फिर इसका आकलन भी आवश्यक है कि इस महामारी से निपटने के लिए समाज और विश्व में कैसे-कैसे प्रयत्न हो रहे हैं। और क्या-क्या करने की आवश्यकता है, यह भी स्पष्ट होना आवश्यक है।
प्रोफेसर भगवती प्रकाश जी, मूर्धन्य विद्वान हैं, ऐसे विषयों का लंबे समय से उनका अध्ययन है। इसके अतिरिक्त स्वदेशी जागरण मंच के संगठक कश्मीरी लाल जी, सह संयोजक डॉ अश्विनी महाजन जी, धनपत राम जी, अरुण ओझा जी, अजय पत्की आदि से भी चर्चा करने के पश्चात यह विषय व लेखन अस्तित्व में आ पाया।
मंच की टीम का यह सर्वसम्मत मत था कि विश्व भर में फैले हुए स्वदेशी प्रेमी व मानवता के लिए इस महामारी के समय पर कुछ कर गुजरने की इच्छा रखने वाले भाईयों-बहनों के लिए कुछ लिखित सामग्री उपलब्ध करवानी चाहिए। यह कोई शोध ग्रंथ नहीं है, बल्कि सामान्य कार्यकर्ताओं को सर्व सुलभ समझ में आ जाए तथा वे इसका उपयोग कर अभियान को सर्वत्र फैलाने में लग सकें, इस हेतु से यह सामग्री तैयार की गई है।
आशा है कार्यकर्तागण इसका पूर्ण उपयोग करेंगे। हम सब मिलकर देश व विश्व को इस महामारी से मुक्त कराने के जिस अभियान में जुटे हैं उसे गति देने में यह पुस्तिका अवश्य सहायक होगी। और वैक्सीन व दवाईयां सब तक पहुंचाने में तथा महामारी का अंत करने में, इस अभियान के माध्यम से हमें सफलता भी अवश्य मिलेगी, ऐसा विश्वास है। अन्य अनेक बंधुओं बहिनों का भी इस रचना में काफी सहयोग मिला है, हम हृदय से उनके भी आभारी हैं।
- सतीश कुमार
सार संक्षेप
भूमिकाः 100 वर्षो बाद आयी वैश्विक महामारी पर विजय की और विश्व
“प्रत्येक जन्म लेने वाला बच्चा, प्रभु का यह संदेश लेकर आता है कि मानवता से अभी उसका विश्वास डिगा नहीं है।“ कवि रवींद्रनाथ टैगोर की यह पंक्तियां इतिहास में सदैव स्मरण की जाती है। और यह पंक्तियां वर्तमान में कोरोना से जूझते विष्व को मानसिक संबल भी प्रदान करती है।
गत जनवरी (2020) माह से ही चीन के वुहान नगर से प्रारंभ हुई कोरोना महामारी से भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व भी त्रस्त है। भारत ने बहुत उत्तम रीति से इसका सामना किया है और विश्व की विभिन्न देशों की सरकारों तथा समाजों ने भी व्यापक प्रयत्न किए हैं।
यह रोग उत्पन्न हुआ या किया गया, प्राकृतिक है अथवा मनुष्य निर्मित, इसके बारे में तो अभी प्रमाण जुटाए जा रहे हैं, खोज जारी है। किंतु यह सत्य है कि वर्तमान की मेडिकल साइंस ने, जहां पर स्पेनिश फ्लू 1918-20 की वैक्सीन अर्थात टीका निकालने में लगभग 20 वर्ष लिये (1940 में), वहीं पर इस बार एक वर्ष के अंदर-अंदर उन्होंने इसकी वैक्सीन भी निकाल दी। संपूर्ण भारत और विश्व में सेवा कार्यों और इलाज का, सरकारों व समाजों द्वारा जीवन बचाने, लोगों को संबल प्रदान करने का जहां एक और ऐतिहासिक प्रयत्न हुए, वहीं पर ही कुछ गिद्ध दृष्टि के व्यक्तियों, कंपनियों ने, जिन्होंने दवाइयों/वैक्सीन के बेतहाशा दाम बढ़ाए, अन्य-अन्य प्रकार से इस संकट में भी अपने हित का सोचा। उनको भी समाज ने देखा है। फिर पहले की महामारियों की तरह एक के बाद दूसरी कोरोना की लहर ने विश्व को झकझोर कर रख दिया है। दुनिया के लगभग 17 करोड़ लोग इससे संक्रमित हुए है। बड़ी संख्या में चिकित्सक सहित 35 लाख लोग अभी तक इस महामारी में काल कवलित हुए हैं। करोड़ों लोगों के रोजगार या तो पूरी तरह से छिन गए हैं, या फिर बहुत कम हो गए हैं। विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाएं बुरी तरह से लड़खड़ा गई हैं। वैश्विक व्यापार (वस्तु) में 13 से 32 प्रतिषत तक की कमी आई है। डालर की कीमत गिरी है। यद्यपि सेवा व्यापार में 2 प्रतिषत की वृद्धि हुई है।
इस सारे लेखा-जोखा का चिंतन करना आवश्यक है। लेकिन भारत से लेकर अमेरिका तक के वैश्विक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप इस महामारी पर भी भारत और विश्व विजय प्राप्ति की ओर अग्रसर है।
इसको समग्र दृष्टिकोण से समझना न केवल जानकारी के लिए, वरन् हमारी आगामी दिशा तय करने हेतु भी आवश्यक है।
सामान्य जिज्ञासा व उनके उत्तर
क्या है, कोरोना या कोविड-19 ?
कोरोना नाम वायरस अर्थात् विषाणु से संक्रमित होने पर व्यक्ति को बुखार, जुकाम, खांसी, थकान एवं सांस लेने में कठिनाई उत्पन्न होती है और सांस में अवरोध से मृत्यु तक हो जाती है। यह एक दूसरे से स्पर्ष, ष्वास या ष्वास कण से दूसरों में तेजी से फेलता है। कोरोना वायरस की यह बीमारी 2019 से प्रारंभ होने इसे ‘‘ब्वतवदं टपतने क्पेमेंम.2019’’ कहा गया, जिसका संक्षिप्त नाम ‘‘ब्व्टप्क्.19’’ अर्थात कोविड-19 हो गया।
यह विष्व में कैसे फैली? चीन से इसका क्या संबंध है ?
कोरोना वायरस नवंबर 2019 में चीन के वुहान नगर की प्रयोगषाला से षुरू हुआ और व्यक्ति से व्यक्ति में फेलने लगा। वुहान में चीन की विष्वस्तरीय जीवाणु प्रयोगषाला है। षीघ्र ही यह जापान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, ताईवान, यूरोप, अमरीका और भारत सहित पूरे विष्व में महामारी की तरह फैल गया। मई 24, 2021 तक इससे विष्व में 34.86 लाख (भारत में 3.04 लाख) लोग मृत्यु के षिकार हो चुके हैं। इसे चीन ने जैविक युद्ध के लिए प्रयोगषाला में उत्पन्न किया अथवा वहां सहज में उत्पन्न हुआ, इसे लेकर दोनों ही प्रकार की चर्चाएं हैं, खोज जारी है।
चीन में 17 नवंबर 2019 को कोरोना संक्रमित एक रोगी चिन्हित हो गया और 31 दिसंबर 2019 तक 266 रोगी संक्रमित हो गये थे। तब तक चीन ने इसे छिपाये रखा, जबकि अंतरराष्ट्रीय नियमों के अधीन चीन को यह सूचना 17 नवंबर से 24 घंटे में विष्व स्वास्थ्य संगठन को अनिवार्यतः दे देनी थी। जनवरी 1, 2020 को प्रथम बार यह सूचना देने तक 50 लाख यात्री चीन से विष्व के अनेक देषों में प्रवास कर चुके थे, जिससे यह संक्रमण सर्वत्र फैलने लगा।
कोविड-19 के उपचार व रोकथाम से पेटेंट का संबंध है?
विष्व के 16.8 करोड़ व भारत के 2.7 करोड़ कोविड संक्रमित रोगियों की उपचार एवं विष्व की 780 करोड़ जनसंख्या के बचाव हेतु इसकी औषधियों व टीकों के मूल्यों में कमी व इनकी आपूर्ति बढ़ाना आवष्यक है। इसके लिए भारत ने विगत अक्टूबर में इन औषधियों व टीकों को 5 वर्ष के लिए पेटेंट मुक्त करने का प्रस्ताव विष्व व्यापार संगठन में रखा। इस पर आज अमेरिका सहित 120 देष अब भारत के इस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा होने से इनकी पेटेंटधारक एक-एक कंपनी के अतिरिक्त अन्य उत्पादक भी इनके उत्पादन के लिए स्वतंत्र हो जायेंगे। इससे इनके मूल्य गिरेंगे व आपूर्ति बढ़ेगी।
दवाईयां व टीकों की सर्वसुलभता का अभियान क्या है ?
स्वदेषी जागरण मंच का स्पष्ट मत है कि कोविड-19 की औषधियों व टीकों के उत्पादन को पेटेंट मुक्त कर इनके उत्पादन की प्रौद्योगिकी का अधिकतम सक्षम उत्पादकों को हस्तान्तरण व इनके उत्पादन की सभी प्रकार की सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति आवष्यक है। विष्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स के समझौते की धारा 7 व 8 में भी ट्रिप्स का उद्देष्य प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण है। इसलिए मंच ने यह ‘‘न्दपअमतेंस ।बबमे जव टंबबपदम ंदक डमकपबपदमे ब्ंउचंपहद’’ के नाम से टीकों व औषधियों की सर्वसुलभता का अभियान प्रारंभ किया है। इसका उद्देष्य कोविड-19 की औषधियों व टीकों को सर्व सुलभ करवाना है। आज इजरायल, इंग्लैंड, नार्वे, अमेरिका व भूटान ने अपनी अधिकांष व्यस्क जनसंख्या का टीकाकरण (टंबबपदंजपवद) कर कोविड के संक्रमण व कोविड से होने वाली मृत्यु पर लगभग पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। इसलिए सभी संक्रमित रोगियों को औषधियों एवं टीकाकरण से विष्व की 7.8 अरब जनता की इस रोग से सुरक्षा आवष्यक है।
कहते है, विष्व में दूसरे देषों की अपेक्षा भारत में कम हानि हुई, क्या यह बात सच है ?
हां! यह सच है। जहां अमेरिका में प्रति 10 लाख 1,00,013 संक्रमित, मृत्यु 1785, इंग्लैंड में 88,502 संक्रमित व मृत्यु 1907 है, वहीं भारत में प्रति 10 लाख संक्रमित 19,230 व मृत्यु 215 है। प्रमुख 16 देषों में भारत इस हिसाब से 15वें स्थान पर है। (अंत में तालिका देखें)
यदि भारत में हानि कम है तो उसके कारण क्या है ?
पहली बात तो है कि हम भारतीयों की षरीर प्रतिरोधक क्षमता अच्छी है। फिर सरकार ने तेजी से उचित कदम उठाए (विषेषकर पहली लहर में)। इसके अलावा योग-आयुर्वेद सहित हमारे चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों का सेवाभावयुक्त परिश्रम, सामाजिक, धार्मिक व अन्य संस्थाओं का सहयोगी व सेवा भाव भी कारण है।
महामारियों का इतिहास
यद्यपि यह कोई रचनात्मक इतिहास तो नहीं है, किंतु वर्ष 541 से 750 के समय पर फेला बुबोनिक प्लेग (bubonic plague), ज्ञात इतिहास की सबसे पहली बड़ी वैश्विक महामारी माना जाता है। जिससे प्रतिदिन 10 हजार लोग मरते रहे। यूरोप की 50 प्रतिषत आबादी मारी गई और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गई। क्योंकि उस समय, आंकड़े रखने का कोई क्रम तो नहीं था, फिर भी अनुमान व उस समय की प्रक्रिया के अनुसार ऐसी ही जानकारी इतिहास में दर्ज है।
फिर 1346 ईस्वी से 1353 ईस्वी में आया ब्लैक डेथ। यूरोप, एशिया और अफ्रीकी देषों में इस महामारी ने भयंकर तबाही मचाई। जब मेस्सीना के सिलिकॉन पोर्ट पर 12 जहाज ब्लैक-सी से होकर उसके तट पर पहुंचे, बंदरगाह पर पहुंचे। इन जहाजों पर लोग तो माल देखने, खरीदने हेतु उसके ऊपर चढ़े, किंतु सारे देखकर दंग रह गए कि वहां उसके सारे यात्री और व्यापारी या तो मृत हो गए थे या फिर बुरी तरह से रुग्ण थे। उनके चेहरे काले हो चुके थे, उनके शरीर, रक्त व पस से भरे पड़े थे। यद्यपि थोड़ी देर देखने के बाद अधिकांश लोग डरकर वापस आ गए और उन सभी 12 जहाजों को वापिस समुद्र में ढ़केल दिया गया। किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वे लोग जिन्होंने लाशों को छुआ था अथवा उस समय की गंध ली थी, वह बीमारी के वाहक बने। धीरे-धीरे संपूर्ण यूरोप ही नहीं, अफ्रीका, एषिया, यहां तक कि अमेरिका में भी यह प्लेग फैल गया। अगले 5 सालों में कोई दो करोड़ लोग मारे गए। यूरोप की एक तिहाई आबादी खत्म हो गई। बचे लोग भागकर दूर गांव में निकल गए अथवा अपने आप को सुरक्षित कर लिया।
किंतु 1918-19 में फैला स्पेनिश फ्लू, यह और भी भयंकर सिद्ध हुआ। इसका नाम यद्यपि स्पेनिश फ्लू है किंतु यह कहां से शुरू हुआ इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। प्रथम विश्व युद्ध के समय पर जो अमेरिकी सैनिक बड़ी मात्रा में यूरोप और दुनिया में लड़ाई करने गए हुए थे, वे अपने साथ इस बीमारी को लेकर आए। हां! यह भी सत्य है कि जितने सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में अमेरिका के मारे गए, उससे कहीं अधिक (6,70,000) इस स्पेनिष फ्लू से मारे गए। अमेरिका की नौसेना का 40 प्रतिषत भाग और रेगुलर सेना का 25 प्रतिषत भाग इस स्पेनिश फ्लू के कारण मारा गया। यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन भी इसे स्पेनिश फ्लू से ग्रसित हुए, यद्यपि बच गए। माना जाता है कि जब वे ट्रीटी आफ वर्सेल्स, जिससे प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ, की बातचीत करने गए तो संक्रमित हुए। उस समय के लिहाज से विश्व की 3 प्रतिषत जनता इसमें मारी गई।
क्योंकि 1918 में विश्व युद्ध चल रहा था, इसलिए अधिकांश देशों की सरकारों ने समाचारों पर प्रतिबंध लगा रखा था। किंतु यूरोप में स्पेन न्यूट्रल देश था और वहां पर मीडिया को स्वतंत्रता भी थी। इसलिए उसने सबसे पहले व्यापक रूप से इसके समाचार प्रकाषित किए। इसलिए इसको स्पेनिश फ्लू भी कहते हैं। इसने संपूर्ण दुनिया के साथ-साथ भारत में भी भयंकर तबाही मचाई और भारत में भी सभी तरफ तबाही का मंजर प्रकट हुआ। प्रत्यक्ष आंकड़े किसी भी तरह से उपलब्ध नहीं, किंतु यह संख्या भारत में भी एक करोड़ से अधिक मानी जाती है। 1920 तक (2 वर्ष के बाद) यह महामारी स्वाभाविक रूप से उतर गई। यद्यपि इसकी वैक्सीन 1940 में ही जाकर अमेरिका में विकसित हो पाई।
उसके पश्चात भी भारत और विश्व ने महामारियों का दंश झेला है। 1957-58 में चीन के ही ग्वांगझू से शुरू हुआ एशियन फ्लू 40 लाख लोगों को इस धरती से विदा कर गया। यह ध्यान में आया है कि गत विश्व की 10 महामारियों में से पांच का उद्गम यह चीन अथवा उससे संबंधित भूमि पर ही हुआ है।
1968 में हांगकांग फ्लू और 2009 में स्वाइन फ्लू इसके बड़े प्रमाण हैं। यद्यपि उस वर्ष स्वाइन फ्लू में 18,449 मौतें भी हुई। लेकिन स्वाइन फ्लू से हुई बाद के कुछ वर्षों में संख्या 2 लाख 84 हजार तक बैठती है। ऐसा अनुमान है कि विश्व की 70 करोड़ जनता को स्वाइन फ्लू हुआ, किंतु मृत्यु दर उसमें बहुत कम रही।
इसके अलावा भी 2013-16 में ‘इबोला फलू’ पश्चिमी अफ्रीकन देश, 2012 में मार्स और 2015 में ब्राजील में ‘जीका’ वायरस महामारी भी फैली।
फिर यह भी सच है कि 2018 से एड्स की बीमारी से ही कोई 3.79 करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं और 7 लाख 70 हजार मौतें हुई हैं। यही नहीं ट्यूबर क्लोसिस (टीबी) से प्रतिवर्ष करोड़ों लोग बीमार होते हैं और 15 लाख की मौत भी होती है।
किंतु संपूर्ण समय पर वैज्ञानिकों, चिकित्सकों ने एक बड़ी भूमिका निभाकर विश्व को महामारियों से निकाला है और प्रकृति अपना संदेश देकर फिर से पुनर्निर्माण में लग गई है।
कोरोना संकट की शुरुआत!
चीन का मध्य प्रांत है हुबई। वुहान उसकी राजधानी है। वहां कुल 1.1 करोड़ आबादी है। यह शहर हान और यांग्त्जी नदी के दोनों ओर बसा है। इस वुहान नगर में ही चीन की विश्व प्रसिद्ध जीवाणु लैब भी है। जिसमें सैकड़ों वैज्ञानिक काम करते हैं। इसी वुहान नगर में ही माना जाता है कि सितंबर 2019 में इस कोरोना वायरस का प्रारंभ हुआ। 30 दिसंबर 2019 को वहां के बड़े प्रसिद्ध डॉक्टर ‘ली वेंग लियांग’ ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को बताया कि ‘‘एक नए प्रकार का निमोनिया इस समय अनेक मरीजों को हो गया है, जैसा कि पीछे सार्स वायरस से हुआ था। हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए और क्योंकि वह छुआछूत से फैल रहा है, इसलिए हमें विशेष प्रकार के कपड़े और मास्क पहनना चाहिए।’’ किंतु जैसे ही यह बात वरिष्ठ लोगों तक पहुंची तो पुलिस ने दखल दिया और उस डॉक्टर तथा उसके अन्य आठ सहयोगियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया। उन पर अफवाह फैलाने का आरोप लगा दिया गया। उन्हें अपनी चेतावनी वापस लेने को बाध्य किया।
इसके 7-8 दिन बाद ही वे डाक्टर (ली वेंग लियांग) स्वयं बीमार पड़ गए और अंततः 7 फरवरी 2020 को 33 वर्ष की आयु में उनकी इसी करोना महामारी से मृत्यु हो गई।
चीन में मीडिया पर सब प्रकार के प्रतिबंध हैं। यद्यपि संपूर्ण चीन में उस समय तक रोष फैल गया था जो कि सोशल मीडिया पर प्रकट भी हो रहा था। किंतु कम्युनिस्ट चीन में कुछ भी बाहर नहीं आ पाता है। वहां के वाइबो (भारत के ट्विटर जैसा) पर आई हुई लाखों प्रतिक्रियाओं को तुरंत मिटा दिया गया। चीन में क्या हो रहा है और वायरस कैसे फैल रहा है, इस पर सब प्रकार की रोक लगा दी गई।
जो भी हो कोरोना से उस समय चीन में प्रतिदिन 4000 नए संक्रमित रोगी आने लग गए थे तथा 65-70 मृत्यु प्रतिदिन होने लगी थी। संपूर्ण विश्व में भी (चीन से निकल कर), इटली, यूरोप और अमेरिका में यह पैर पसारने लगा था।
संपूर्ण दुनिया के विशेषज्ञ इस समय इस बात पर बंटे हुए हैं कि चीन ने यह महामारी पैदा की या यह प्राकृतिक रूप से पैदा हुई। चीन ने अपनी तरफ से कह दिया है कि यह वायरस वुहान की मीट मार्केट में चमगादड़ से आया है। अमेरिका के डॉक्टरों के एक वर्ग ने भी इसकी पुष्टि की है, किंतु अमेरिका से लेकर विश्व तक के वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस पर आशंका जताई है और उनका कहना है कि यह वुहान की लैब से किसी एक्सीडेंट के कारण भी निकला हो सकता है। उधर अमेरिका के पूर्व विदेश सचिव माइकल पॉम्पियो ने स्पष्ट कहा है कि “यह चीन के बायो वार (जैविक युद्ध) का परिणाम है, जिसकी वह तैयारी कर रहा था’’। एक अन्य रिपोर्ट में भी 2016 से वहां की लैब में कोरोना वायरस पर रिसर्च वर्क की रिपोर्ट आई है। अभी तक कुछ भी स्पष्ट नहीं। लेकिन चीन के रहस्यमय तरीकों व बयानों से शंकाएं और भी बढ़ जाती हैं। चीन ने ही इसे सबसे पहले 2019-N Cov नाम दिया।
डब्ल्यूएचओ (विष्व स्वास्थ्य संगठन) के महानिदेशक प्रोफेसर टुड्रोस घेब्रियासिस (Tudors Ghebreyesus) ने इसे 30 जनवरी को पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न घोषित किया। किंतु इसे वैश्विक महामारी तो उन्होंने (विश्व स्वास्थ्य संगठन ने) भी 11 मार्च 2020 को ही जाकर की। तब तक यह 114 देशों में 1,18,000 लोगों को संक्रमित कर गया था।
24 मार्च को जब भारत ने अपना लॉकडाउन घोषित किया, उस दिन तक विश्व भर में 3,34,000 लोग संक्रमित हो चुके थे और 14,000 लोगों की तब तक मृत्यु हो गई थी।
क्योंकि चीन ने तो जैसे-तैसे इस पर अगले 3 महीने में काबू पा लिया। किंतु जैसे ही यह इटली, फ्रांस, इंग्लैंड व अन्य यूरोपीय देशों तथा अमेरिका में गया तो वह अत्यधिक तेजी के साथ फैला। संपूर्ण विश्व एक तरीके से आतंकित हो गया। किसी को भी कुछ नहीं समझ में आ रहा था कि यह कैसी बीमारी आई है और इससे कैसे निपटा जाए। न कोई इसकी दवा थी, न कोई रोकथाम का टीका था, तो केवल एक ही हथियार था - संपूर्ण लॉकडाउन करके अपने घरों के अंदर छुप जाओ। एक अदृश्य जीवाणु ने सभी को, व्यापार उद्योग की चहल-पहल बंद करके अपने-अपने घरों में बंद होने को मजबूर कर दिया और विश्व 1918 के बाद की सबसे बड़ी महामारी के भंवर में फंस गया।
’भारत में काल रात्रि का आरंभ’
भारत में सबसे पहला केस केरल में आया, जब वहां पर चीन के वुहान नगर से ही लौटे 3 लोगों को कोरोना संक्रमित पाया गया। वे 30 जनवरी को ही आए थे। मार्च आते-आते भारत में भी यह महामारी तेजी से फैलने लगी थी। फरवरी में जयपुर में भ्रमण पर आए इटली के 23 सदस्य संक्रमित पाए गए। भारत में सभी सावधानियां बरतने के बावजूद भी मार्च 23 तक 564 कोरोना के केस आ चुके थे। केरल के बाद जयपुर, फिर मुंबई, फिर दिल्ली और फिर अन्य प्रमुख नगरों से भी कोरोना संक्रमित होने के समाचार आने लगे। इन्हीं दिनों दिल्ली में इस्लामिक सेंटर में देष और विष्व से आए तब्लीगियों ने कहर बरपाया। वहां से 400 से अधिक संक्रमित निकलकर देषभर में फेल गए। भारत पर भी इस वायरस की धनी अंधकार की छाया प्रारंभ हो गई थी। सांत्वना केवल इतनी थी कि जनवरी से ही विश्व समाचार सुनने के कारण से भारतीय जनमानस डरा हुआ तो था, किंतु सजग भी था और सरकार ने ऐतिहासिक रूप से इस कोरोना महामारी से रोकथाम व उससे निपटने के लिए अभूतपूर्व तेजी के साथ तैयारी की थी। जो विश्व के अन्य देशों के लिए भी एक उदाहरण बन गई।
महायुद्ध में विजय होने को, भारत की पूर्व तैयारी
जनवरी में जैसे ही चीन से यह समाचार आने लगे, भारत की सरकार ने तुरंत इसके लिए बैठकें करनी शुरू की। संपूर्ण तंत्र को अत्यधिक सावधान कर दिया गया और 17 जनवरी से ही (उस समय तक भारत में कोई केस नहीं आया था) बाहर से आने वाली उड़ानों की सख्त चेकिंग शुरू हो गई थी। 21 अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों और 72 समुद्री बंदरगाहों पर यात्रियों हेतु जांच बिठा दी गई थी। ईरान से, जहां से संक्रमित आने की संभावना थी, वहीं पर ही एक लैब स्थापित कर दी गई। भारत के स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने देश को आश्वस्त किया “हम पूरी तरह से सावधान हैं।“ एन-95 मास्क का निर्यात बंद कर दिया गया।
कोरोना की टेस्ट लैब हमारे यहां पर ना के बराबर थी, किंतु मार्च 2020 तक ही 52 लैब स्थापित हो गई। इसके लिये अति आवश्यक पीपीई किट, जो कि भारत में नहीं बनती थी, उसको बनाने के ऑर्डर जाने लगे। टेस्टिंग किट के लिए कोरियन कंपनी से अनुबंध कराकर मानेसर (हरियाणा, गुरुग्राम) में उत्पादन शुरू करवाया गया। सब प्रकार की सावधानियां और जांच-परख करने के बाद भी जब मार्च 18-19 तक 500 केस भारत में आ ही गए, तो 22 मार्च को प्रधानमंत्री जी ने स्वयं मोर्चा संभालते हुए टेलीविजन पर आकर जनता कर्फ्यू की अपील की। जिसका बहुत उत्तम प्रतिसाद जनता से मिला और विश्व भर की जानकारी व चिकित्सा टीम के योजना संकेत करने पर 24 मार्च 2020 को 21 दिन का लंबा और संपूर्ण लॉकडाउन भारत में घोषित कर दिया गया।
विश्व से अपने नागरिकों को सुरक्षित निकाला
भारत ने न केवल 17 जनवरी से 22 मार्च के बीच 10 लाख से अधिक बाहर से आने वाले यात्रियों की पूरी स्कैनिंग की, बल्कि उनके लिए 14 दिन का क्वॉरेंटाइन समय भी रखा गया। विशेषकर कोरिया, चीन, जापान, फ्रांस व जर्मनी से आने वालों के लिए।
सरकार द्वारा विशेष ‘वंदे भारत मिशन’ चलाया गया। इसके अंतर्गत पहले 900 लोगों को 12 मार्च तक जापान, चीन व ईरान से निकाल लाया गया और फिर बाद में तो 149 फ्लाइट्स के माध्यम से 14,536 लोगों को विश्व के 31 देशों से वापस लाया गया। भारत की जनता ने भी विषय की गंभीरता को समझते हुए सब प्रकार से सहयोग किया। अपनी पीपीई किट बनाने के लिए लुधियाना से लेकर तिरुपुर तक की फैक्ट्रियां काम करने लगीं। जहां फरवरी में षून्य (0) उत्पादन था, वहां पर मई 2020 आते-आते तक भारत से पीपीई किट के एक्सपोर्ट करने की स्थिति भी बनने लगी। फिर एक बड़ा काम था चिकित्सकों तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का, फ्रंटलाइन वर्कर्स का मनोबल बढ़ाना। क्योंकि अपनी मृत्यु का डर किसको नहीं होता? उस समय पर कोरोना के मरीज को छूना, मानो स्वयं को कोरोना संक्रमित करना और ऐसी बीमारी से ग्रसित कर लेना जिसका कोई इलाज नहीं है। और मृत्यु होने की संभावनाएं बहुत हैं।
ऐसे में प्रधानमंत्री जी ने आह्वान किया कि कोरोना योद्धाओं के समर्थन में सभी लोग अपने घर व छत पर खड़े होकर ताली बजाएं, थाली बजाएं और कोरोना योद्धाओं का अभिनंदन करें। वायु सेना के हेलीकॉप्टरों ने दिल्ली के एम्स अस्पताल, पूर्व मुंबई के अस्पताल पर भी पुष्प वर्षा की और भय को उत्साह में बदलने का एक सफल प्रयोग भारत में भी शुरू हुआ।
चिकित्सकीय ढांचा कमजोर, इरादे मजबूत
भारत का चिकित्सकीय ढांचा यदि देखा जाए तो वह विश्व के प्रमुख देशों के मुकाबले में बहुत ही कमजोर है। अमेरिका के मुकाबले में भारत का स्वास्थ्य बजट 0.3 प्रतिषत है। भारत में प्रति 1465 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर है। भारत के प्राइवेट अस्पताल 50 प्रतिषत मरीजों को देख लेते हैं। पर भारत में प्राइवेट व सरकारी मिलाकर प्रति 10,000 जनसंख्या पर केवल पांच बिस्तर हैं। सामान्य व गरीब आदमी उनके लिए तो और भी दयनीय स्थिति रहती है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में। किंतु भारत का संकल्प यह समाज की बड़ी ताकत है। इसलिए जब करोना जून-जुलाई में तेजी से बढ़ भी रहा था तो भी सरकार व समाज दोनों ने पहली लहर को ठीक से संभालने का न केवल काम किया, बल्कि संपूर्ण विश्व में भी एक धारणा बनी कि भारत ने महामारी का सबसे अच्छे ढंग से निबटने का कार्य किया है।
क्योंकि 17 सितंबर को जब भारत में सर्वाधिक संक्रमण संख्या (97,600) आई, उसी समय पर अमेरिका में ही दो लाख से ऊपर केस आ रहे थे। यदि प्रति दस लाख पर मरीजों की संख्या और मृत्यु दर देखी जाए तो वह विश्व के अन्य विकसित देशों की तुलना में काफी बेहतर है। उदाहरण के लिए यदि दूसरी लहर के बाद भी भारत में प्रति दस लाख पर 18,467 लोग संक्रमित हुए, तो अमेरिका में 1,01,518, ब्राजील में 73,570, इटली में 69,100, इंग्लैंड में 65,256, फ्रांस में 90,188 और जर्मनी में 43,065।
इसी प्रकार मृत्यु प्रति दस लाख पर आज तक भारत में 215 है, जबकि अमेरिका में 1807, ब्राजील में 2054, इटली में 2064, इंग्लैंड में 1872, फ्रांस में 1652 और जर्मनी में 1038 है। आगे तालिका भी देखें।
लॉकडाउन की विषम चुनौती व समाज की जागृत षक्ति
जैसे ही लॉकडाउन प्रारंभ हुआ तो सबसे बड़ा प्रश्न आया कि जो लोग दिहाड़ीदार हैं, ठेला लगाते हैं, मजदूरी करते हैं, ऑटो या टैक्सी चलाते हैं, आदि आदि वे अपना गुजर-बसर कैसे करें? उनके परिवारों की, बच्चों की दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताएं कैसी पूरी हों? क्योंकि 138 करोड़ का समाज और एकदम अचानक लॉकडाउन का लगना, बीमारी ही ऐसी विचित्र आयी थी, लाकडाउन के अलावा चारा नहीं, पर लाकडाउन में गुजर भी कैसे?
सरकार ने तो अपनी और से 80 करोड़ लोगों के लिए राशन की घोषणा की और न केवल सरकार बल्कि पार्टी ने भी राशन, भोजन पेकेट बस्ती-बस्ती, घर-घर तक पहुंचाने के लिए परिश्रम प्रारंभ किया। लेकिन बड़ी बात है कि समाज की आंतरिक शक्ति जागृत हुई। क्या आर्थिक, क्या धार्मिक, सामाजिक अथवा जातिगत संगठन, सब आगे आए। स्थान-स्थान पर राशन वितरण करना, बने बनाए भोजन के पैकेट वितरण करना, सैनिटाइजर और मास्क बांटना प्रारंभ हुआ। काम करते हुए भी सरकार के नियमों से दूरी बनाए रखना, छूना नहीं, इसका भी पालन करना था और सहयोग भी करना था।
स्वामीनारायण संप्रदाय (गुजरात), श्री श्री रविशंकर जी, गायत्री परिवार, बाबा रामदेव का पतंजलि योग ट्रस्ट, आर्य समाज, सनातन धर्म संस्थाएं, हजारों की संख्या में मठ, मंदिर, गुरुद्वारे इस विषय में आगे आए। और कहीं पर भी कोई व्यक्ति या परिवार भूखा न रहे यह अद्भुत दृश्य उत्पन्न हुआ। यह भारत की ही संभवतः सबसे अधिक विशेषता है कि इतने विशाल परिवार (देश) को, समाज को, सरकार नहीं समाज ने अपनी अंतःनिहित, शक्ति के आधार पर लगभग 2 महीने तक खड़े रखा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उससे प्रेरित 40 से अधिक संगठन स्वयं स्फुर्त ढंग से पहले की भांति इस कार्य में लग गए। सेवा भारती ने 24ग7 हेल्पलाइन नंबर जारी करते हुए, चिकित्सा एवं सहायता केंद्रों की स्थापना की। यही नहीं देशभर में मई 2020 तक कुल 62,336 स्थानों पर संघ द्वारा राहत व सेवा कार्य चलाए गए। जिनमें 3,42,319 कार्यकर्ताओं ने लगकर काम किया। 6 मई तक ही 31,08,000 भोजन पैकेट वितरित किया गया। अन्य सलाह सहायता केंद्र तो चलते ही रहे। उधर सेवा इंटरनेशनल ने भी अमेरिका से न केवल अमेरिका की 300 यूनिवर्सिटीओं में पढ़ रहे छह लाख विद्यार्थियों के स्वास्थ्य, वित्तीय और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के समाधान के लिए टीम बनाकर प्रयत्न किए, बल्कि उन्होंने प्रवासी मजदूरों को राशन बांटने के लिए 1.2 लाख कच्चे राशन की किट और 10 लाख से अधिक फेस कवर भारत में सेवा भारती के माध्यम से वितरित करवाए।
विश्व हिंदू परिषद के 28000 कार्यकर्ताओं ने 28 लाख से अधिक भोजन पैकेट व 3.5 लाख परिवारों को कच्चे राशन की व्यवस्था की। मजदूर संघ के लोगों ने भी 35000 लोगों को भोजन और 7000 लोगों को राशन वितरण किया। भारत में एकल विद्यालय बड़े प्रमाण पर चलते हैं। इसके एक लाख गांव में छोटे विद्यालय संचालित हो रहे हैं। जिनसे भारत के 4,00,000 गांवों का संपर्क बना हुआ है। इसके माध्यम से लाखों गांवों तक भी सहयोग की प्रक्रिया चली। यही नहीं, इतिहास संकलन समिति, आसाम के संगठन के कुछ सदस्य वहां के कुछ सामाजिक संगठनों से मिलकर पशु पक्षी एवं जानवरों के चारे का भी प्रबंधन करते रहे। आसाम में और पूर्वोत्तर में विद्या भारती एवं विवेकानंद केंद्र ने अहम भूमिका निभाई। दिल्ली सहित देष के अनेक स्थानों पर पषु-पक्षियों के पानी-आहार की भी व्यवस्था थी। स्वदेशी जागरण मंच के दिल्ली से लेकर देशभर में फैले हुए तंत्र ने सेवा कार्यों में स्वाभाविक रूप से सहयोग करना ही था।
अर्थव्यवस्था एवं रोजगार के मोर्चे पर संघर्ष
सेवा कार्यों के अलावा स्वदेशी जागरण मंच ने 20 अप्रैल को यह मानते हुए कि इस लॉकडउन के तुरंत पश्चात लोगों को रोजगार की बड़ी समस्या खड़ी होगी, अर्थव्यवस्था लड़खड़ायेगी, ध्यान में कर योजना बनाई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी के उन्हीं दिनों हुए प्रेरक उद्बोधन से प्रेरित होकर स्वदेशी स्वावलंबन अभियान प्रारंभ किया। जिसका उद्देश्य स्पष्ट था। लोगों का मनोबल बनाए रखना, उन्हें अपने व अपने बस्ती, गांव के लोगों के रोजगार को संभालने के लिए प्रेरित करना, स्वरोजगार और अपने बल पर स्वावलंबी भाव के आधार पर खड़े होकर कार्य करना। स्वदेशी का पालन करने से और स्वदेशी व स्थानीय खरीदने से ही हम अपनी अर्थव्यवस्था को संभाल पाएंगे और रोजगार को भी संभाल पाएंगे। इसका आग्रह किया।
इसके लिए 26 अप्रैल से संपूर्ण भारत में 5 स्वदेशी बिंदुओं को, जिनमें स्वदेशी व स्थानीय चीजों को खरीदना, स्वरोजगार व लघु कुटीर उद्योगों की विचार प्रक्रिया शुरू करना, कौशल विकास पर ध्यान देना, ग्राम व विकेंद्रित प्रक्रिया पर ध्यान करना, लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने का संकल्प, पर्यावरण, योग आयुर्वेद, पंचगव्य आदि के प्रचार प्रसार का संकल्प था। मूल विचार यह था कि जब संपूर्ण समाज लॉकडाउन में है तो टेक्नोलॉजी का प्रयोग करते हुए समाज में जन जागरण अभियान चलाने से कार्यकर्ताओं को काम भी मिलेगा व स्वदेशी का प्रसार, देश की दूरगामी आवष्यकता रोजगार व मजबूत अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया को भी बल मिलेगा।
इसके लिये उक्त 5 बिंदुओं पर फ़ोन के माध्यम से, डिजिटल हस्ताक्षर करवाने की योजना बनी। यह प्रयोग बहुत सफल रहा। देशभर के बड़े संत, जैसे बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, संघ के अखिल भारतीय अधिकारी, अनेक केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, सांसद सबने डिजिटल हस्ताक्षर किए। कुल मिलाकर 13 लाख 87 हजार लोगों ने डिजिटल हस्ताक्षर (मोबाइल में फॉर्म भरना) joinswadeshi.com की वेबसाइट से किये और यही नहीं 48,300 वालंटियर ने अपने आपको स्वदेशी कार्य के लिए समय देने हेतु भी आवेदन किया। विषम परिस्थिति में वैचारिक व संगठनात्मक फैलाव का यह अनुपम उदाहरण बना। विचार परिवार के ही नहीं हिंदू समाज के अन्य संगठनों ने भी इसमें खुलकर सहभाग किया।
आत्मनिर्भर भारत घोषणाः स्वदेषी विचार की विजय
उधर 12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत’ का विचार दिया गया। उस दिन टेलीविजन पर अपने एक विशेष प्रसारण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था को संभालने, संपूर्ण देश के उद्योग से लेकर देहात तक व दिहाडीद़ार, कामगार व्यक्तियों, सामान्य कृषि मजदूर से लेकर बड़े उद्योगों तक को संभालने की योजना प्रस्तुत की। और यह वास्तव में स्वदेशी विचार की विजय भी थी। जब भारत सरकार ने ‘स्वावलंबी भारत’ स्वदेशी जागरण मंच के विचार को ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नाम से स्वीकार किया। इसका सर्वदूर स्वागत हुआ। जिसमें भारत के ही संसाधनों द्वारा भारत में ही निर्माण, (इंपोर्ट सब्सीट्यूट) आयात का विकल्प, केंद्रीय स्थिति में था और लगभग 20 लाख करोड रुपए के पैकेज की घोषणा हुई। जो भारत की जीडीपी का लगभग 10 प्रतिषत के बराबर था। विश्व भर के अर्थशास्त्रियों ने इस आत्मनिर्भर भारत पैकेज का स्वागत किया।
जून आते-आते अर्थव्यवस्था और रोजगार की बड़ी समस्या खड़ी हो गई, जो स्वभाविक था। सरकार ने आत्मनिर्भर भारत के लिए तो पैकेज दिया ही था, उसके अतिरिक्त भी रिजर्व बैंक ने एक दूसरी किस्त में भी दो आर्थिक पैकेज घोषित किये। प्रवासी मजदूरों के लिए और छोटे रोजगार की वृद्धि के लिए बिना गारंटी के लोन देने की बड़ी प्रक्रियाएं प्रारंभ हुई। स्वदेशी जागरण मंच ने संपूर्ण देश में स्वदेशी स्वावलंबन अभियान के अंतर्गत भारत के युवाओं को कौशल विकास व स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना प्रारंभ किया। भारत के 100 से अधिक विश्वविद्यालयों में इसके लिए वेबीनार, संवाद व चर्चाएं करवाई गई। जिलों में बैठकें, गोष्ठियों, कार्यक्रम के अलावा अर्थ एवं रोजगार सृजक सम्मान कार्यक्रम लिए गए। जिनमें जिन लोगों ने भी दूसरों को रोजगार दिया था, उनको समाज में सम्मानित प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया हुई। देश में कुल ढाई सौ जिलों में यह कार्यक्रम संपन्न हुए। जिनमें सामान्य कार्यकर्ताओं से लेकर संघ के अखिल भारतीय अधिकारी, केंद्रीय मंत्री भी शामिल हुए। भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, लघु उद्योग भारती व अन्य आर्थिक संगठनों ने भी स्वरोजगार और अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयत्न प्रारंभ किए।
मई में लॉकडाउन धीरे-धीरे करके खुलने लगे। किंतु कोरोना की रफ्तार धीमी नहीं हुई। वह लगातार बढ़ रही थी। हां! इस सभी के कारण से एक अवश्य लाभ हुआ कि भारत को आवश्यक तैयारी करने का समय मिल गया। जून माह तक भारत में अपनी ही पीपीई किट, अपनी टेस्टिंग लैब, जो अब बढ़कर 600 से ऊपर हो गई थी, सब प्रकार के मास्क बनाना, टेस्टिंग किट, आवश्यक दवाइयां, अस्पतालों में बेड़ों, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर का प्रबंध कर लिया गया। जिसके कारण से यद्यपि संक्रमित की संख्या तो बढ़ रही थी किंतु अब देश में घबराहट या अफरा-तफरी नहीं थी, बल्कि समाज पूरी तरह से इस महामारी को अपने तरीके से निबटने में लग गया।
एक बड़ी चुनौती उपस्थित हुई लगातार लॉकडाउन के कारण से देशभर में प्रवासी मजदूर अपने गांव में वापस लौटने लगे। यद्यपि उस समय पर रेलगाड़ियां नहीं चल रही थी, आवागमन शुरू नहीं हुआ था, तो भी लाखों की संख्या में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक आदि से लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के अपने गांव को लौटने लगे। बहुत लोग 400-500 किलोमीटर की पैदल यात्रा करने करते हुए भी दिखाई दिए। उस समय भी सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक व विचार परिवार के संगठनों ने उनकी संभाल और सेवा में अपनी पूरी ताकत झोंकी।
भारत की एक और अग्नि परीक्षा, चीन की लद्दाख में घुसपैठ
ठीक इस समय पर जब संपूर्ण विश्व के साथ-साथ भारत भी कोरोना महामारी कि इस चुनौती से निपट रहा था, इसी समय पर चीन ने परिस्थिति का फायदा उठाते हुए भारत के हिमालय क्षेत्र में लद्दाख के गलवान घाटी के क्षेत्र में अपनी सेनाओं को आगे बढ़ा दिया। देश के लिए सीमा पर एक बड़ी और नई चुनौती उपस्थित हो गयी। वास्तव में चीन जो करोना वायरस फ़ैलाने के कारण से संपूर्ण दुनिया में उस समय तक बदनाम हो चुका था, विश्व राजनीति का यह विषय बदलना चाहता था। उसने जापान, फिलीपींस, इंडोनेशिया, नेपाल आदि सबकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए और झगड़े करने शुरु कर दिए। क्योंकि उस समय तक चीन ने तो अपने यहां कठोरता से इस संक्रमण पर काबू पा लिया था। उधर विश्व के सभी देश अपने मरीजों की देखभाल करने, जान बचाने में व्यस्त थे तो इसी का फायदा उठाया चीन ने। अपने पुराने स्वभाव के अनुसार वह दूसरे देश की सीमा में घुसकर विस्तारवादी नीति को अमलीजामा पहनाने लगा।
इधर सौभाग्य से इस बार भारत सरकार सजग थी। भारतीय सेना ने तुरंत ही गलवान घाटी में मोर्चा संभाला। संपूर्ण देश से सेनाएं ने वहां भेजी गईं और चीन तथा भारत की सेनाएं वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बिल्कुल आमने सामने आ गईं। और जब गलवान के फिंगर फोर चोटी पर चीनियों ने पक्के कब्जे के लिए स्थान बनाना शुरू किया, तो स्वभाविक रूप से भारत के सैनिकों ने विरोध किया। उसमें चीन की सेनाओं ने 16 जून 2020 की रात्रि में, पुराने समझौते (दोनों तरफ से गोली नहीं चलेगी) का दुरुपयोग करते हुए कील लगे फट्टे व लकड़ियों से हमला कर दिया। जिसमें एक कर्नल संतोष बाबू सहित 20 जवान शहीद हो गए। चीन के भी बहुत सैनिक मारे गए। संपूर्ण भारत में रोष की लहर फैल गई। यद्यपि विश्व भर में चीन की बदनामी हुई तो भी वास्तविकता का सामना करना था। समाज आंतरिक और बाहरी दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ाई के लिए तैयार हुआ।
भारतीय सेनाओं ने दूसरी चोटियों फ़ीगंर 7 और 8 पर कब्जा कर लिया (जो खाली छोड़ा हुआ था), जिसके कारण से चीन को वार्ता की मेज पर आना पड़ा। लगभग 9 महीने तक की रुकावट के बाद अंततोगत्वा चीन गलवान घाटी और उस इलाके में पीछे हटने को मजबूर हुआ।
प्रथम लहर पर प्रभावी नियंत्रण
17 सितंबर 2020 को भारत में किसी एक दिन में सर्वाधिक संक्रमित 97600 कोरोना रोगी आये। किंतु उसके पश्चात क्रमशः कम होते-होते फरवरी 12-13 तक यह केस प्रतिदिन 10-11 हजार ही रह गए। रिकवरी रेट 97 प्रतिषत को पार कर एक्टिव मरीजों की संख्या 1.5 प्रतिषत रह गई। और भारत दुनिया में प्रति दस लाख सबसे कम संक्रमण व मृत्यु दर के साथ पहली लहर पर विजय पाने में सफल रहा। इससे संपूर्ण भारत ही नहीं विश्व भर में, भारत मॉडल की चर्चा प्रारंभ हुई। अर्थव्यवस्था जो 2020 के प्रथम तिमाही में -23.9 प्रतिषत तक गिर गई थी, व द्वितीय वित्तीय तिमाही में -7.8 प्रतिषत, वह तृतीय में सब उल्टी भविष्यवाणियों के बावजूद 0.4 प्रतिषत के सकारात्मक यानि उत्थान पर आ गई। भारत सरकार द्वारा लगातार प्रयत्न हुए कि आयात के विकल्प क्या-क्या हो सकते हैं? इसकी योजनाएं घोषित हुई। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उठाव देने के लिए विशेष प्रयत्न हुए। किसान सम्मान निधि तो दी ही जा रही थी रू. 6000 वार्षिक। सरकार की आई PLI (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) की योजना भी कारगर हुई। जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो, सोलर आदि के क्षेत्र में भारत में ही निर्माण करने पर इंसेंटिव दिया जाने लगा। उसका परिणाम यह हुआ कि सभी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों s&p, Finch आदि ने ही नहीं, आईएमएफ, विश्व बैंक आदि ने भी अनुमान घोषित किया कि भारत विश्व में सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बन रहा है और यह 13 प्रतिषत तक की जीडीपी की उछाल के साथ 2021-22 में प्रगति करेगा। और अगले तीन-चार वर्षों तक भारत दुनिया की सबसे तेज गति की अर्थव्यवस्था प्रमुख देशों में बना रहेगा।
संकटकाल में भी उपलब्धिः राम मंदिर का निर्माण प्रारंभ
यद्यपि कोरोना महामारी के प्रारंभ होने से पूर्व ही राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया था। किंतु उसका भूमि पूजन व शिलान्यास की प्रक्रिया को इसलिए टालना पड़ा क्योंकि सब तरफ लॉकडाउन था। जैसे ही परिस्थिति कुछ ठीक हुई तो यह निर्णय हुआ कि चाहे छोटे स्तर से ही क्यों न हो, इस कार्य को अब रोकना नहीं और अंततः 25 सितंबर को अयोध्या के अंदर राम जन्मभूमि निर्माण हेतु कार्य प्रारंभ कर दिया गया। एक विशेष पूजन प्रक्रिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय मोहन भागवत, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के अलावा देशभर के प्रमुख 250 संत शामिल हुए। संपूर्ण भारत नहीं, दुनिया ने भी उसको अपने घरों से टेलीविजन पर बैठकर देखा। लगभग 500 वर्षों के संघर्ष के पश्चात भारत को अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने का अवसर आया था। बाद में जब संपूर्ण देश ने जनवरी 2021 में ही धन संग्रह करने का निर्णय किया और कहा कि ‘‘इसे समाज ही बनाएगा, सरकारी पैसे से नहीं’’। तो इस विचार का भी सर्वदूर स्वागत हुआ।
विश्व हिंदू परिषद और विचार परिवार के संगठन इसमें अग्रदूत बने। देश के लगभग 5 लाख गांवों से अभूतपूर्व रूप से व ऐतिहासिक रूप से 3400 करोड रुपए से अधिक की धनराशि एकत्र हुई। विदेशों से अभी तक भी लगातार धन आ रहा है। यह भारत की आंतरिक क्षमता को भी प्रकट करता है कि जब भारत कोरोना व चीन दोनों से लड़ भी रहा था, उस समय पर समाज अपने इतिहास का सबसे बड़ा रचनात्मक धन संग्रह (मंदिर निर्माण हेतु) भी कर रहा था और भारत का विजय सूर्य विश्व में उभरने को तैयार हो रहा था कि तभी कोरोना की दूसरी लहर ने दस्तक दी।
कोरोना की दूसरी लहरः एक सुनामी
फरवरी 2021 में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में यह मान्य हो रहा था कि कोरोना पर लगभग विजय प्राप्त कर ली गई है। उधर 18 दिसंबर को इंग्लैंड ने कोरोना टीके का, अविष्कार कर, अनुमति दे दी थी। भारत में भी 28 जनवरी से टीके की दो कम्पनियों को अनुमति दे दी गयी - कोवेक्सीन और कोविशील्ड। व्यक्ति को वैक्सीन लगने से कोरोना से काफी हद तक सुरक्षा मिलती हैं, यह प्रमाणित हो चुका है। वेक्सीन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का तरीका है।
इसलिए देश में कुछ मात्रा में लापरवाही या धारणा हो गई कि अब कोरोना पस्त हो जाएगा। तभी मार्च मास में कोरोना की दूसरी लहर आई और सभी पूर्व अनुमानों को झूठलाते हुए अप्रैल के प्रथम सप्ताह में यह लहर एक काले सुनामी तूफान में बदल गई। और देखते ही देखते भारत पहले से भी बड़े संकट में घिर गया। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में भारत में प्रतिदिन 3 लाख से अधिक नए संक्रमित आने लगे। मृत्यु दर भी तेजी से प्रतिदिन 2000 के लगभग होने लगी। क्योंकि यह अत्यधिक तेजी से बढ़ा था, इसलिए दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक अस्पतालों में बिस्तरों की, दवाइयों की, यहां तक कि ऑक्सीजन आदि की भी कमी होने लगी और जब तक सरकार और समाज संभलता तब तक चारों तरफ हाहाकार मच चुका था। टेलीविजन पर अस्पतालों के बाहर पड़े मरीजों की दर्दनाक फोटो दिखाई देने लगी। श्मशान घाट पर लंबी लाइनें लगने लगी। लोग ऑक्सीजन के सिलेंडरों हेतु भागते, परेशान होते नजर आए। रेमडीसीविर और अन्य दवाइयों की कमी के कारण से ब्लैक मेलिंग के स्टिंग ऑपरेशन आने लगे। 800 रू. की दवाई 40,000 तक बिक रही है, ऐसा टेलिविजन समाचार दे रहे थे। और जो ताकतें भारत को नीचा दिखाने, व विश्व पटल पर भारत को न ऊभरने देने को कृत संकल्प थी, उन्होंने इस स्थिति का पूरा दुरुपयोग किया और विश्व भर के मीडिया व अन्य संस्थानों में भारत बुरी तरह से विफल हो रहा है, ऐसा चित्र रेखांकित किया। भारत की सरकार और यहां तक कि सामाजिक संगठनों के बारे में भी नकारात्मक रिपोर्टिंग, व समाचार सब तरफ छा गए। जनवरी-फरवरी में हुए कुंभ मेले को सुपर स्प्रेडर बताया गया, यद्यपि यह पूर्णतया भ्रामक तथ्य था।
आयुर्वेद, योग की बड़ी भूमिका
जब चीन में सबसे पहले यह कोरोना की महामारी फैली तो चीन ने एलोपैथी पद्धति का प्रयोग तो किया ही, किंतु साथ ही साथ उन्होंने टीसीएम यानी Traditional Chinese Medicines का प्रयोग भी बड़ी मात्रा में किया। लगभग 85 प्रतिषत मरीजों को यह TCM दी गई, उसके परिणाम भी अच्छे रहे।
देखा जाए तो भारत में भी लगभग 85 प्रतिषत लोगों ने आयुर्वेदिक काढ़े, योग, अश्वगंधा, तुलसी, गिलोय आदि का प्रयोग किया ही है, किंतु उसको किसी प्रकार की सरकारी मान्यता नहीं है। चीन ने 3100 वर्कफोर्स केवल एक ही प्रांत में इसके लिये लगा दी।
भारत में तो विश्व की सबसे पुरानी चिकित्सा परंपरा है। अभी भारत सरकार ने भी इसका मंत्रालय बनाया है। जिसमें पांच प्रकार की पद्धतियां शामिल हैं। आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्धा और होम्योपैथी। विश्व में सबसे सफल व पुरानी चिकित्सा पद्धति का श्रेय भी आयुर्वेद को है। यहां तक कि 3000 वर्ष पूर्व सुश्रुत द्वारा सफल शल्य चिकित्सा (सर्जरी) की जाती थी। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय में सुश्रुत की आदमकद मूर्ति यह संकेत करती है कि दुनिया भी शल्य चिकित्सा में भारत को प्रथम मानती हैं। विश्व भर में आयुर्वेद के कारण से करोड़ों लोग आज तक स्वस्थ हुए हैं और उसका खर्च भी बहुत कम रहता है।
भारत में आयुर्वेद का विषाल तंत्र
इस समय पर भारत में भी 3598 आयुष के हस्पताल हैं। जिनमें से 2818 आयुर्वेद के हैं। 25723 आयुष की डिस्पेंसरी हैं। भारत में कुल 7.73 लाख पंजीकृत आयुष के चिकित्सक हैं, जिनमें से 4.28 लाख केवल आयुर्वेद के हैं। भारत में 8954 आयुष की दवा निर्माता इकाइयां हैं, इनमें से 7718 आयुर्वेद की हैं। इनके अलावा बड़ी मात्रा में बाबा रामदेव, डाबर, विवेकानंद योग अनुसंधान बेंगलुरु व अन्य संस्थान आयुर्वेद व योग में गहन काम कर रहे हैं। केरल में चल रहे अनगिनत (जो पंजीकृत नहीं है) केंद्रों की तरह देशभर में बड़ी मात्रा में केंद्र हैं।
भारत में आयुर्वेद के प्रति अपार आस्था एवं श्रद्धा भी है। यहां तक कि तथाकथित बड़े-बड़े लोग भी बाहर न बताकर, घर में इन्हीं औषधियों का, योग प्राणायाम का प्रयोग करते हैं। जैसे-जैसे भारत मेकालेवादी बौद्धिक मानसिकता से निकलकर बाहर आ रहा है, वैसे-वैसे वह अन्य चीजों के अलावा योग, पंचगव्य, आयुर्वेद, सिद्धा आदि पद्धतियों का भी तेजी से प्रयोग करने लगता है।
इसी का परिणाम है कि आयुर्वेदिक औषधियों का हमारा निर्यात प्रतिवर्ष 3200 करोड़ रूपये का है। भारत की आयुर्वेद मार्किट को 300 अरब रूपये का माना जाता है। और लाखों लोंगो को रोजगार तो मिला ही है। बाबा रामदेव का ही दावा है कि उनके संस्थान के कारण लगभग 5 लाख लोग रोजगार पाते हैं।
यद्यपि सरकारी स्तर पर (एलोपैथी चिकित्सा पद्धति वाले) और अंतरराष्ट्रीय जगत पर भी ये लोग आयुर्वेद का उपचार न होने देने में अड़े ही रहे। यहां तक कि उन्होंने आयुर्वेदिक पद्धति को इम्यूनिटी बूस्टर के नाते से भी मान्यता नहीं दी। फिर भी यह सर्व ज्ञात है कि आयुष मंत्रालय से लेकर जनसामान्य तक करोड़ों लोगों को इससे लाभ हुआ और इस अवधि में योग, आयुर्वेद की औषधियों का प्रयोग कई गुना बढ़ गया। स्वयं प्रधानमंत्री व आयुर्वेद के मूर्धन्य लोगों ने जो संभव था, वह सब किया।
स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ताओं ने देश भर में विशेषकर कर्नाटक व हरियाणा में बड़ी मात्रा में आयुर्वेदिक औषधियों के प्रसार-प्रचार में भूमिका निभाई। हरियाणा में जहां मार्च 2020 से ही स्वास्थ्य रक्षा अभियान आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय के साथ मिलकर चलाया गया, तो वहीं कर्नाटक में आयुर्वेदिक औषधियों (प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली) का लाखों की मात्रा में वितरण व बिक्री की गई। आरोग्य भारती, विश्व आयुर्वेद परिषद, सेवा भारती ने तो संगठित रूप से संपूर्ण देश में इसके लिए व्यापक अभियान चलाया ही।
कोरोना की दूसरी लहर की चुनौती
फरवरी 2021 आते-आते भारत में कोरोना के नए रोगी 11-12 हजार प्रतिदिन से भी कम होने लगे। प्रतिदिन मृत्यु भी 200 से कम आ चुकी थी। सब प्रकार की परिस्थितियां नियंत्रण में थी। इसे देखते हुए ही डॉक्टर हर्षवर्धन जी ने मार्च के प्रारंभ में एक प्रेस वार्ता में घोषणा की “भारत में कोरोना महामारी अब समाप्ति की ओर है।“ किंतु प्रकृति की, ईश्वर की, इच्छा अभी भारत की एक और परीक्षा लेनी बाकी थी। और मार्च के अंत में जो कोरोना के केस बढ़ने शुरू हुए तो अप्रैल के पहले सप्ताह में प्रतिदिन के संक्रमितों का आंकड़ा इतनी तेजी से बढ़ा कि सब हतप्रभ रह गए। दूसरी लहर (सरकारी स्तर पर घोषित नहीं) की भयावहता व मात्रा इस बार अलग प्रकार की थी। न केवल आंकड़ा काफी बड़ा आ रहा था।
पिछली बार जो मौतें हुई थीं, उनमें 80 प्रतिषत से अधिक मौतें, 60 वर्ष या इससे ऊपर की आयुवर्ग की थीं। किंतु अब यह 40 से 60 के बीच में अधिक संक्रमण व मृत्यु हो रही थी। फिर इस बार संक्रमण की दर इतनी तेज थी कि दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या कम पड़ गई, दवाइयां, आक्सीजन सब कम पड़ गई। यहां तक कि ऑक्सीजन की सप्लाई तो बड़े-बड़े अस्पतालों में भी कम पड़ने लगी। अप्रैल के चौथे सप्ताह तक प्रतिदिन नए संक्रमितों का आंकड़ा 4 लाख तक छूने लगा। अस्पतालों के बाहर, स्ट्रेचर पर, चारपाई पर, भूमि पर, यहां तक की ऑटो और टैक्सी में ही ऑक्सीजन या अन्य इलाज ले रहे मरीजों की फोटो टेलीविजन पर सर्वदूर आने लगी। संपूर्ण देश में चिंता व भय व्याप्त हुआ।
राष्ट्रीय चारित्र्य का अभाव
इस समय पर जब संपूर्ण देश को एकजुट होकर परिस्थिति को संभालना था, उस समय पर भारतीय राजनीतिक दलों, वाम विचार प्रेरित किसान व मजदूर संगठनों, यहां तक कि उच्च संस्थानों तक में राष्ट्रीय चरित्र्य का अभाव दिखा। राजनीतिक दल इस संकट को भी अपने दल के लाभ के लिए मोड़ने के लिए सत्ताधारी दल के ऊपर आक्रमण करने में ही अपनी समय व ऊर्जा लगाने लगे। जिस राज्य में जो विपक्ष में था, वह सत्ता पक्ष को कोसने लगा। सोशल मीडिया प्रमुख हथियार बन गया, सरकार व तंत्र (सिस्टम) को कोसने का।
यही नहीं न्यायालयों तक ने भी भावना में बहकर या अन्य कारण से अमर्यादित टिप्पणियाँ कीं। मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि “चुनाव आयोग पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए“ (बंगाल चुनाव के बारे में)। बाद में सुप्रीम कोर्ट को सफाई देनी पड़ी और कहा कि मद्रास हाईकोर्ट ने अनुचित मौखिक टिप्पणी की है। दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के स्वास्थ्य के अधिकारियों को जेल भेजने का हुक्म दे दिया, उसे भी सुप्रीम कोर्ट को रोकना पड़ा। हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीशों में तो मानो होड़ लग गयी कि कौन कितना सख्त टिपणी सरकारों और अधिकारियों के खिलाफ देता है। जबकि चाहिए यह था कि सामाजिक संगठन, स्वायत्त संस्थान, सरकार, प्रशासन, विभिन्न राजनीतिक दल, यहां तक कि धार्मिक संगठन भी एक साथ आकर परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए एकजुट होते। उसके स्थान पर आरोप-प्रत्यारोपो की प्रक्रिया अधिक चलती दिखाई दी। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी गैर जिम्मेदाराना तरीके से रिपोर्टिंग कर रहा था।
भारतः विष्व में सबका मित्र
लेकिन इस सबके बीच में भी भारत ने अपनी अंतर्निहित शक्ति का परिचय दिया और सब प्रकार के प्रबंध होने लगे। सेना ने भी मोर्चा संभाला। रेलवे मंत्रालय ने विशेष ऑक्सीजन एक्सप्रेस ग्रीन कॉरिडोर रेल चलानी शुरू की। जिससे झारखंड व अन्य संस्थान जहां से भी (ऑक्सीजन स्टील प्लांटो से अधिक मिलती है) मिल सकती थी, उसको उठाकर दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, मुंबई ले जाया जाने लगा।
विश्व भर से भी भारत की सहायता हेतु 70 से अधिक देश आगे आए। यह भारत की विश्व को दी गई सहायता व वैश्विक प्रभुत्व का ही परिणाम था। जो अमेरिका शुरू में आनाकानी कर रहा था, उस पर भी दबाव ऐसा बना कि राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की “क्योंकि भारत ने भी अमेरिका की विषम परिस्थिति में साथ दिया था, इसलिए हम भी भारत का इस विषम परिस्थिति में सहयोग देंगे।“ और सहायता तुरंत भेजी भी। क्या जर्मनी, क्या फ्रांस, क्या ऑस्ट्रेलिया यहां तक कि ऑस्ट्रिया जैसे छोटे देश ने भी सहायता देने में देर नहीं की। जल, थल और वायु सेना, इन तीनों ने रेलवे और हवाई एजेंसियों का सहयोग लेते हुए 10 से 12 दिन में ऑक्सीजन सहित सब प्रकार के आवश्यक प्रबंध कर दिए और यह भयावह दृश्य दो सप्ताह से अधिक नहीं चल पाया।
सारे देश भर में अलग-अलग स्तर के लॉकडाउन लग चुके थे और मई 2021 का द्वितीय सप्ताह आते-आते भारत में संक्रमण दर तेजी से घटने भी लगी।
वैक्सीनः कोरोना के विरूद्ध प्रभावी हथियार
2020 के प्रारंभ में जब यह महामारी षुरू हुई, उस समय इसके विरूद्ध न तो रोकथाम की कोई वैक्सीन थी, न ही ईलाज हेतु कोई औषधियां। सारा विष्व निहत्था हो एक अदृष्य (वायरस) जीवाणु से लड़ रहा था। किंतु वर्तमान के आधुनिक विज्ञान तंत्र व वैज्ञानिकों को इस बात का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही इसकी सफल रोकथाम करने वाली वैक्सीन का अविष्कार कर लिया।
र्स्वप्रथम इंग्लैंड ने 18 दिसंबर 2020 को अमेरिका की फायजर वैक्सीन को आपातकालीन अनुमति दी, फिर मार्डना व आक्सफोर्ड की एस्अ्राजेनिका को। भारत ने फरवरी के दूसरे सप्ताह में पूर्णतया स्वदेषी वैक्सीन कोवैक्सीन विकसित कर ली। एस्अ्राजेनिका की भी वैक्सीन बनती भारत में ही है कोविषील्ड। लगभग इसी समय तक रूस की स्पूतनिक, चीन की सिनोवेक, अमेरिका की ही जानसन एण्ड जानसन विकसित हो निर्माण प्रारंभ कर चुकी थी व मार्च माह में लगभग 100 देषों में कम-अधिक मात्रा में यह लग रही थी।
वैक्सीन के उत्तम परिणाम
जिन देषों ने वैक्सीन का प्रयोग किया, उन्हें अच्छे परिणाम मिलें। इस्त्रायल (आबादी 94 लाख) ने जब अपने वयस्क आबादी का 80 प्रतिषत वैक्सीनेषन किया तो वहां यह बीमारी लगभग समाप्त हो गई। इसी तरह इंग्लैंड ने 65 प्रतिषत वयस्कों को मई प्रथम सप्ताह तक वैक्सीन दी गई, तो वहां भी प्रतिदिन संक्रमण 1000 तक व मृत्यु 18-20 तक नीचे आ गई है। यही बात अमेरिका में भी है, जहां 62 प्रतिषत वैक्सीन लगने पर संक्रमण व मृत्यु 80 प्रतिषत तक कम हो गई। यही प्रमाण प्रतिषत अन्य देषों में भी है।
भारत ने अपनी दोनों वैक्सीन तेजी से लगानी षुरू की, 9 मई के तीसरे सप्ताह तक 19 करोड़ लोगों को टीका लगा दिया। किंतु यहां वैक्सीन के विषय में विष्व में एक नया आयाम उभरा और वह है पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन की उपलब्धता। चूंकि अमेरिका-इंग्लैंड की 5 बड़ी कपंनियों ने यह विकसित की, अतः उन्होंने इसे पेटेंट करवा लिया। याने सर्वाधिकार सुरक्षित। उसक मूल्य भी उन्होंने अपने हिसाब से तय किया। (काफी अधिक - तालिका देखें)। तब भारत सरकार ने भी बाद में स्वदेषी जागरण मंच ने भी इस समस्या के समाधान का मार्ग खोजना प्रारंभ किया।
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कोविड से भी खतरनाक पेटेंटधारकों की स्वार्थवृत्ति
विश्व में 16.25 करोड़ व भारत में 2.5 करोड स अधिक कोरोना संक्रमित लोग जीवन मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। विश्व की शेष जनसंख्या में भी अधिकांश जनता इस प्राणान्तक महामारी के भय से त्रस्त है। कोरोना से मृत 35 लाख लोगां के करोड़ों परिवारीजन गंभीर शोक में निमग्न हैं। लेकिन, इस रोग के उपचार की औषधियों व रोकथाम हेतु उपलब्ध टीकों के पेटेंटधारी उत्पादक अपने स्वार्थवश इन औषधियों की सुलभता के विरूद्ध हृदयहीन बन कर बैठे हैं। यदि ये पेटेंटधारी मौत के सौदागर की भांति अपने एकाधिकार को अक्षुण्ण रखने के स्थान पर इन औषधियों व टीकों की प्रौद्योगिकी, स्वेच्छापूर्वक सर्वसुलभ कर इनकी उत्पादन सामग्री सभी इच्छुक उत्पादकों को सुलभ कर देंगे तो मानवता को इस संत्रास से मुक्ति दी जा सकेगी। इसलिए इन टीकों व औषधियों को पेटेंट मुक्त किया जाना, इनके उत्पादन की प्रौद्योगिकी का निःशुल्क या अल्पतम रॉयल्टी पर हस्तान्तरण और इनके उत्पादन की सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति परम-आवश्यक है।
अन्यायपूर्ण असमानता
अब तक एक अरब में से अधिकांश टीकों का उपयोग धनी देशों ने किया है। अफ्रीका, एशिया व लेटिन अमेरिका के कम आय वाले देशों ने मुश्किल से कोई टीका प्राप्त किया होगा। भारत में भी टीकों व औषधियों के अभाव में अधिकांश जनता भयावह सत्रांस से त्रस्त है। आज 36 देशों में संक्रमण की दर बढ़ रही है। फाइजर का ही इस टीके की मुनाफाखोरी से 7 अरब डालर (52,500 करोड़ रू. तुल्य) लाभ रहने की अपेक्षा है।
इन टीकों के विकस में बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन से सहायता दी गयी है। अमेरिका में छः टीका कंपनियों को 12 अरब डालर (रू. 90,000 करोड़ तुल्य) की सार्वजनिक सहायता मिली है। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा जेनेका का कोविषील्ड व भारत बायोटेक का कोवेक्सिन भी सरकारी सहायता से विकसित हुआ है। ऐसे में यह तर्क देना कि इन टीकों पर इन कंपनियों ने भारी व्यय किया है, इसलिए इनका एकाधिकार आवश्यक है, कितना उचित है?
भारत की मानवोचित पहल को वैश्विक समर्थन
इन औषधियों व टीकों को पेटेंट मुक्त किये जाने के लिए विश्व व्यापर संगठन में भारत व दक्षिण अफ्रीका ने अक्टूबर 2020 में ही प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया था। छः माह तक 10 बैठकों में प्रतिरोध के उपरान्त जन दबाव के आगे झुकते हुए अमेरिका व अधिकांश औद्योगिक देशों ने टीकों को पेटेंट मुक्त करने के प्रस्ताव का 5 मई को विश्व व्यापार संगठन की जनरल काउन्सिल में समर्थन दिया। अब यह प्रस्ताव ट्रिप्स काउन्सिल की 8-9 जून की बैठक में जाएगा। उसके उपरान्त मन्त्री स्तरीय बैठक से अनुमोदन भी अपेक्षित होगा। तब भी केवल टीकों की पेटेंट मुक्ति ही सम्भव हो सकेगी। इनके उत्पादन हेतु प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण भी आवश्यक होगा। कोविड की औषधियों व टीकों को पेटेंट मुक्त करने के भारत के प्रस्ताव का 750 सदस्यों की यूरोपीय संसद ने भी समर्थन दिया है, जबकि यूरोप के कुछ राष्ट्राध्यक्ष व यूरोपीयन कमीशन ने जी-20 की बैठक में इसका विरोध किया है।
प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण की विधिसम्मत अनिवार्यता
विश्व व्यापार संगठन के 1995 के ‘‘बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर हुए समझौते’’ जिसे ‘‘एग्रीमेण्ट आन ट्रेड रिलेटेड इण्टेलेक्चुअल राइट्स’’ या ‘ट्रिप्स समझौता’ कहा जाता है में उसकी धारा 7 में प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण का वैधानिक प्रावधान है। इसलिए औद्योगिक देशों को प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण करवाने के इस धारा 7 के दायित्व का निर्वहन करना चाहिए। वैसे पेटेण्ट मुक्ति का यह निर्णय टीकों के सन्दर्भ में ही हुआ है। कोरोना की चिकित्सा की औषधियों के उत्पादन को पेटेंट मुक्त नही किए जाने से पेटेण्टधारक से इतर उत्पादकों को इन औषधियों के उत्पादन के लिए ‘अनिवार्य अनुज्ञापन’ (कम्पल्सरी लाइसेसिंग) एक विकल्प हो सकता है। भारत के पेटेंट अधिनियम की धारा 84,92 व 100 में अनिवार्य अनुज्ञापन के प्रावधान हैं।
अनिवार्य अनुज्ञापनः पेटेंटधारकों के शोषण पर अंकुश
यकृत व गुर्दे के कैंसर की जर्मन कंपनी ‘बायर’ का ‘नेक्सावर’ नामक इंजेक्शन 2,80,000 रूपये का आता था। उसे मात्र 8,8,00 रु. में बेचने का प्रस्ताव कर एक भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ ने भारत के मुख्य पेटेंट नियंत्रक को आवेदन कर कम्पल्सरी लाइसेंस प्राप्त कर लिया। आज नेक्सावर भारत के बाहर 2,80,000 रु. में मिलता है, वहीं भारत में यह उसकी मात्र तीन प्रतिशत कीमत पर मिल जाता है। दुर्भाग्य से इस अनिवार्य अनुज्ञा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर यूरो-अमेरिकी देशों का इतना दबाव आया कि उन नियंत्रक को पद छोड़ना पड़ गया। अभी यह भी गर्व का विषय है कि भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ फार्मा ने पुनः अमेरिकी कंपनी ‘एली लिलि’ की कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के समानांतर उत्पादन हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के लिए आवेदन कर दिया है। आशा है शीघ्र ही कोरोना की शेष औषधियों के उत्पादन के लिए कई कंपनियां स्वैच्छिक अनुज्ञापन के लिए आगे आएंगी।
वर्तमान में कम्पल्सरी लाइसेंस आप्रासंगिक
वर्तमान में अनिवार्य अनुज्ञापन या कम्पल्सरी लाइसेंस से कोई समाधान संभव नहीं है। रेमिडोसिविर के लिए ‘जी लीड’ नामक कंपनी ने भारत में सात कंपनियों को एवं बेटिसिटिनिब के उत्पादन के लिए नाटको फार्मा को स्वैच्छिक अनुज्ञा अर्थात वोलंटरी लाइसेंस दे दिया है। इनको छोडकर किसी औषधि या टीके के समानान्तर उत्पादन के लिए आवेदन ही नहीं किया है। आक्सफॉर्ड-एस्ट्राजेनेका की स्वैच्छिक अनुज्ञा सीरम इन्स्टीटयूट को कोविशील्ड के लिए दिया हुआ है। भारत बायोटेक ने कोवेक्सिन के लिए तीन कंपनियों को स्वैच्छिक अनुज्ञा दे दी है। फाइजर, माडरना व जॉनसन आदि कंपनियों के अभी पेटेंट के लिए भारत में आवेदन ही नहीं किया है। ऐसे में उनके संबंध में कम्पल्सरी लाइसेंस दिया जाना संभव नहीं है। इन कंपनियों ने अभी पेटेंट कॉपरेशन ट्रीटी के अधीन ही पेटेंट ले रखा है। अभी-अभी 7 देषों की 11 कंपनियों ने कोवैक्सीन के लिए एप्लाई किया है। संभावना है कि उन्हें षीघ्र लाईसेंस मिल जायेगा।
पेटेण्टधारकों के शोषण के विरुद्ध पिछला संघर्ष
नब्बे के दशक में यूरो-अमेरिकी कंपनियां एड्स की औषधियों की कीमत इतनी लेती थीं कि भारत से बाहर एक रोगी की वार्षिक चिकित्सा लागत 15,000 डॉलर यानी 10 लाख रुपये से अधिक आती थी। चूंकि 1995 के पहले भारत में ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ न होकर, केवल ‘प्रक्रिया पेटेंट’ ही होता था। इसलिए कई भारतीय कंपनियां अंतरराष्ट्रीय पेटेंटधारक की उत्पादन प्रक्रिया से भिन्न प्रक्रिया का विकास कर इन्हें बनाती व इतनी कम लागत पर बेचती थीं कि व्यक्ति की चिकित्सा लागत 350-450 डॉलर ही आती थी। इसलिए दक्षिणी अफ्रीका व ब्राजील ने भारत से इन औषधियों के आयात हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के कानून बना लिए। तब अमेरिकी कंपनियों के एक समूह ने दक्षिण अफ्रीकी कानून को ट्रिप्स विरोधी बता कर दक्षिण अफ्रीकी सर्वाच्च न्यायालय में व अमेरिकी सरकार ने ब्राजील के कानून को डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र में चुनौती दे डाली। इस पर दक्षिणी अफ्रीका में अमेरिकी दूतावास के सम्मुख सड़कों पर ऐसा उग्र प्रदर्शन हुआ कि अमेरिकी कंपनियों ने सर्वाच्च न्यायालय से व अमेरिकी सरकार ने डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र से वे मुकदमे वापस ले लिए।
इसके बाद 2001 के विश्व व्यापार संगठन के दोहा के मंत्री स्तरीय सम्मेलन के पहले दिन ही सभी विकासशील देशों ने इतने उग्र तेवर दिखाए कि गैर विश्व व्यापार संगठन के पांच दशक के इतिहास में पहली बार सम्मेलन के पहले दिन ही औषधियों के उत्पादन के लिए अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। इस प्रस्ताव के आधार पर ही भारत के पेटेंट कानून में 2005 में अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रावधान धारा 84, 92 व 100 के माध्यम से जोड़ना संभव हुआ। इसी अनिवार्य अनुज्ञापन से ‘नेक्सावर’ इंजेक्शन का भारत में उत्पादन और तीन प्रतिशत कीमत अर्थात 8,800 रु. में बेचना संभव हुआ। इसी प्रावधान के अधीन नाट्को फार्मा ने कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन किया है और शेष औषधियों की भी सर्व सुलभता के लिए भारतीय कंपनियां अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन की तैयारी में हैं।
रक्त कैन्सर की जेनेरिक औषधिः भारतीय कीर्त्तिमान
1995 के पूर्व के भारतीय पेटेंट अधिनियम के अंतर्गत 1 जनवरी, 1995 के पहले आविष्कृत किसी भी औषधि के पेटेंटधारक के नाम पेटेंट से रक्षित प्रक्रिया को छोड़कर स्व अनुसंधान से विकसित प्रक्रिया से दवा उत्पादन की स्वतंत्रता थी। ट्रिप्स समझौते के कारण ही भारत को यह नियम बदल कर ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ का नियम लागू करना पड़ा था, जिससे 1995 के बाद में आविष्कृत औषधियों के उत्पादन का वह अधिकार भारतीय कंपनियों से छिन गया। इसीलिए 1995 के पहले की हजारों औषधियां भारत में अत्यंत अल्प मूल्य पर सुलभ हैं। इन्हीं के मूल्य भारत को छोड़कर शेष देशों में 10 से 60 गुने तक हैं। रक्त कैंसर की ‘ग्लिवेक’ नामक 1994 में आविष्कृत औषधि स्विस कंपनी नोवार्टिस 1200 रु. प्रति टेबलेट बेचती थी। इसे भारतीय कंपनियों ने अपनी वैकल्पिक विधियों से उत्पादित कर मात्र 90 रु. में बेचना प्रारंभ कर दिया। आज विश्व के 40 प्रतिशत रक्त कैंसर के रोगी इस औषधि को भारत से आयात करते हैं। इस ‘ग्लिवेक’ के 1994 के मूल रसायन ‘इमेंटीनिब’ का एक ‘डेरिटवेटिव’ विकसित कर 1998 में एक और पेटेंट आवेदन कर दिया। लेकिन भारत ने मूल पेटेंट में मामूली परिवर्तन से पेटेंटों की अवधि पूरी होने पर भी उसके दुरुपयाग को रोकने हेतु पेटेंट अधिनियम की धारा 3 डी में ‘इन्क्रीमेंटल’ अनुसंधानों को पेटेंट योग्य नहीं माना। यह विवाद सर्वाच्च न्यायालय तक गया पर नोवार्टिस कंपनी हार गई और आज विश्व के रक्त कैंसर के रोगी 1200 रु. के स्थान पर 90 रु. प्रति टेबलेट की दर पर इसे क्रय कर पा रहे हैं।
ट्रिप्स आधारित पेटेंट व्यवस्था अमानवीय
ट्रिप्स आधारित वर्तमान पेटेंट व्यवस्था सर्वथा न्याय विरुद्ध और अमानवीय है। किसी भी आविष्कार के प्रथम आविष्कारक को संपूर्ण विश्व की 786 करोड़ जनसंख्या के विरुद्ध 20 वर्ष के लिए यह एकाधिकार प्रदान कर देना कि वह आविष्कारक इस आविष्कार या औषधि की कुछ भी कीमत ले, यह ठीक नहीं है। इसमें प्रथम आविष्कारक के बाद स्व अनुसंधान से या प्रथम आविष्कारक से तकनीक प्राप्त कर किसी उत्तरवर्ती उत्पादक द्वारा उस औषधि को अत्यंत अल्प कीमत पर आपूर्ति करने की दशा में सभी उत्तरवर्ती उत्पादकों से 5-15 प्रतिशत तक रॉयल्टी भुगतान का प्रावधान किया जा सकता है। वह रॉयल्टी भी तब तक दिलाई जा सकती है जब तक कि उस आविष्कारक को अपनी लागत की दुगुनी या तिगुनी कीमत न प्राप्त हो जाए। लेकिन किसी प्रथम उत्पादक को संपूर्ण विश्व के विरुद्ध ऐसा एकाधिकार देकर पूरे विश्व के असीम शोषण की छूट देना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। विशेषकर जब उसी उत्पाद या औषधि को विश्व में सैकड़ों उत्पादक व अनुसंधानकर्ता मात्र 1-3 प्रतिशत मूल्य या उससे भी कम में सुलभ करा सकें। सिप्रोलोक्सासिन पर बायर कम्पनी की पेटेंट की अवधि समाप्ति के पहले जब वह कम्पनी विश्व भर में एक आधे ग्राम की टेबलेट के 150-300 रू. तक लेती रही है। भारत में तब प्रोडक्ट पेटेंट का नियम न हो कर प्रोसेस पेटेंट का मानवोचित पेटेंट प्रावधान होने से 90 थोक दवा उत्पादक उसे 900 रू. किलो बेचते थे। उनसे सैकड़ो कम्पनियाँ उसे क्रय कर रू0 3-8 में वही आधा ग्राम (500 मिली ग्राम) की टेबलेट बेच लेती थीं। यही स्थिति 1995 के पहले की अधिकांश औषधियों के सम्बन्ध मे थी।
पेटेंट फ्री वैक्सीन हेतु वैश्विक प्रयास!
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि अक्टूबर 2020 में ही भारत सरकार ने साउथ अफ्रीका को साथ लेकर डब्ल्यूटीओ में वैक्सीन को पेटेंट फ्री रखने और उसकी सर्वसुलभता के लिए आवश्यक सहयोग करने के लिए एक प्रस्ताव रख दिया था। किन्तु अप्रैल तक 8 बैठकें होने के पश्चात भी उसमें कोई सार्थक परिणाम नहीं दिख रहा था।
इसी प्रक्रिया में अमेरिका व युरोप के कुछ गैर सरकारी संस्थानों, पूर्व सांसदों, शिक्षाविदों, कलाकारों आदि ने एक अभियान शुरू किया, पीपल्स वैक्सीन एलाएंस (people’s vaccine alliance) उसको अच्छा समर्थन भी मिलने लगा। फिर ऑक्सफॉम (OXFOM) ने भी इसके समर्थन में अभियान चलाना शुरु किया।
दिसंबर में बांग्लादेश के रहने वाले और नोबेल पुरस्कार प्राप्त ‘मोहम्मद यूनुस‘ ने ‘पेटेंट फ्री वेक्सीन फार कामन गुड’ हेतु व्यापक अभियान शुरु किया। उसके अंतर्गत उन्होंने विश्व के 200 नोबेल पुरस्कार प्राप्त तथा पूर्व राष्ट्र के अध्यक्षों से याचिका पर हस्ताक्षर करवाए। उनका कहना है कि संपूर्ण मानवता को बचाने के लिए पेटेंट फ्री वैक्सीन चाहिए ही और यह सबकी भलाई (common good) में है।
इस आवश्यक और उपयोगी मांग पर संपूर्ण विश्व में एकजुटता बनती चली गई और जो प्रारंभ में इसका विरोध कर रहे थे, वह भी समर्थन में आ जुटे। इधर भारत में भी इसके लिए प्रयत्न शुरू हो गए थे। विभिन्न न्यूज़ चैनल और प्रबुद्ध वर्ग इसकी चर्चा कर रहे थे। लेख लिखे जा रहे थे, गोष्ठियां, वेबिनार हो रहे थे। स्वदेशी जागरण मंच ने इसी समय पर ही इस विषय की आवश्यकता को समझते हुए 30 अप्रैल को वैश्विक सर्वसुलभ टीकाकरण व चिकत्सा (अभियान) (Universal access to Vaccines n Medicines) अभियान की शुरुआत कर दी।
मंच के प्रयास से पेटेंट पर भारत के लगभग 100 विशेषज्ञ तरंग माध्यम से इकट्ठे हुए और उन्होंने इसकी तुरंत आवश्यकता बताते हुए इस अभियान को विश्वव्यापी बनाने का आह्वान किया। प्रोफेसर कुरियन, प्रोफेसर प्रबुद्ध गांगुली, धनपत राम अग्रवाल, प्रो. भगवती प्रकाश, डॉ. अष्वनी महाजन, डॉ. चंद्रिका आदि ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
9 मई को स्वदेशी जागरण मंच के आह्वान पर दिल्ली सहित देशभर में इसके लिए प्रदर्शन किये गए। यद्यपि लॉकडाउन था तो भी अपने तरीके से, घरों के बाहर खड़े होकर, आवश्यक दूरी रखते हुए, यह प्रदर्शन हुए, जिसे समाचार पत्रों व चेनलों ने प्रमुखता से स्थान दिया।
11 मई को पोखरण दिवस पर (जब भारत ने 1998 में परमाणु विस्फोट किया था) संपूर्ण भारत में हस्ताक्षर अभियान प्रारंभ किया। 20 लाख हस्ताक्षर लक्ष्य लेकर यह मास भर चलने वाला अभियान है। जिसमें अभी तक 4 लाख लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। उधर भारत के 900 विश्वविद्यालयों के प्रमुख कुलपति (वाइस चांसलर) एवं अन्य शिक्षाविद, अधिवक्ता, डॉक्टर, व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी एक ऐसी ही याचिका पर हस्ताक्षर का अभियान लिया है। जिसमें 1000 भारत के प्रमुख शिक्षाविद, पेटेंट फ्री वैक्सिंन के लिए डब्ल्यूटीओ, बड़ी फार्मा कम्पनियों और विभिन्न सरकारों से वेक्सिन की सर्वसुलभता के लिये आग्रह कर रहे हैं।
अभियान के सुखद परिणाम
इस अभियान के सुखद परिणाम आने शुरू हो गए हैं। मई के प्रारंभ में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाईडन, जो अभी तक चुप थे वह समर्थन में आ गए। उसके पश्चात विश्व के 120 देश भी इसके समर्थन में आ गए हैं। सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब यूरोपियन यूनियन की पार्लियामेंट में पेटेंट फ्री वैक्सीन को समर्थन देने के लिए प्रस्ताव पारित कर दिया गया। ऐसा ही प्रस्ताव ब्राजील की पार्लियामेंट ने भी पारित किया है। जापान, चीन और जर्मनी, जो अभी तक इसका समर्थन नहीं कर रहे थे, वह भी लचीले रुख अपनाने को मजबूर हुए हैं। यहां तक कि बिल गेट्स जो प्रारंभ से ही पेटेंट फ्री वैक्सीन के मुखर विरोधी थे, अब झुके हैं और सभी को वैक्सीन मिले, इस हेतु सहयोग करने का आश्वासन दे रहे हैं। यहां तक कि उन चार बड़ी वेक्सीन निर्माता कंपनियों के (बयान) स्वर में भी फर्क आने लगा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरेक्टर जनरल ज्नकतव ळीमइतपलेंपे पहले ही कह चुके हैं कि “यदि पेटेंट फ्री करने का यह वक्त नहीं है, तो फिर कौन सा समय आएगा।“
अमेरिका के जोसेफ स्टिगलिस (नोबेल विजेता) ने एक लंबे लेख में कहा “बड़ी फार्मा कंपनियों को इस महामारी को लंबा करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।“ अन्ना मैरियट (स्वास्थ्य सलाहकार आक्सफाम) ने कहा है कि यदि नहीं तो “जब तक सब सुरक्षित नहीं, तब तक कोई भी सुरक्षित नहीं।“
ऐसा लग रहा है कि विश्व एक सुखद निर्णय की ओर बढ़ रहा है। भारत सहित संपूर्ण विश्व में जनमत को देखते हुए डब्ल्यूटीओ, वैश्विक सरकारें और बड़ी फार्मा कंपनियां न केवल (चाहे 3 वर्ष के लिए ही) पेटेंट फ्री वैक्सिंन के लिए तैयार हो रही हैं, बल्कि उसकी तकनीकी हस्तांतरण, कच्चा माल और उत्पादन में अन्य सुविधाएं देने हेतु तैयार होने की भी संभावनाएं बढ़ गई है।
भारत ने भी कोवैक्सीन बनाने हेतु अन्य तीन कंपनियों को पहले ही फार्मूला व अन्य सुविधाएं दिलवा दी हैं। कोरोना की दवाइयों के लिए भी अन्य कंपनियों को वॉलंटरी लाइसेंस दे दिया है। इससे दिसंबर तक भारत में, और अगले वर्ष के मई-जून तक विश्व भर में इस करोना महामारी पर नियंत्रण पाने की संभावनाएं काफी प्रबल हो गई हैं।
आपदा को अवसर में बदलोः भारत बने वैश्विक फार्मेसी का महाकेंद्र!
हमें कोरोना आपदा को अवसर में बदलने का विचार भी करना चाहिए। दवा निर्माण के विषय में भारत की पहले से ही अच्छी स्थिति है, अभी भी हमें विश्व की फार्मेसी कहा जाता है। भारत ने कोरोना की दवाइयां, मास्क, पीपीई किट विश्व के 150 देशों में भी भेजी हैं। भारत निर्मित वैक्सीन 72 देशों में गई है। जोकि गुणवत्ता में भी उत्तम है, और विश्व की सबसे सस्ती भी (210 रू. प्रति खुराक) है। इससे वैश्विक स्तर पर भारत को अपने आभामंडल बढ़ाने में भी सहायता हुई है। वैसे भी हमारे निर्यात में तीसरा सबसे बड़ा हिस्सा औषधियों का है। अमेरिका में सर्वाधिक औषधियां हमारी ही जाती हैं। भारत का औषधीय उद्योग इस समय लगभग 41 बिलियन डॉलर का है। जिसके 2030 तक 130 बिलियन डॉलर तक होने की संभावना है। अमेरिका के एफडीए से मान्यता प्राप्त भारत में 262 इकाइयां हैं। भारत में हमारे पास इस विषय की कुषल श्रम, कच्चा माल व सबसे बड़ा स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति देखने का सात्विक दृष्टिकोण है। केवल एक ही बात है कि एपीआई (Active Pharmaceuticals Ingredients) में अभी हम काफी मात्रा में चीन पर निर्भर हैं। इसलिए भारत सरकार ने जिन 10 उद्योगों के लिए प्रोडक्शन लिंकड इंसेंटिव दिया है, उनमें से एक फार्मा भी है। यदि हम पूरी दुनिया की 1200 करोड़ वैक्सीन की आवश्यकता में से आधी भी देने में सफल हुए, तो स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भारत विष्व की आशा व विश्वास का केंद्र बन सकता है, इससे भारत की आर्थिक समृद्धि व रोजगार के भी नए अवसर बनेंगे।
निष्कर्षः भारत को करने चाहिएं यह पांच आवश्यक कार्य -
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प्रस्तुत लघु पुस्तिका ’वैश्विक महामारीः कोरोना चुनौती एवं समाधान’, यद्यपि प्रोफेसर भगवती प्रकाश जी व मेरे द्वारा लिपिबद्ध हुई है, तथापि यह स्वदेशी टीम का सामूहिक प्रयत्न है। इस समय पर वैश्विक महामारी कोरोना व वैक्सीन की चर्चा चारों तरफ है। इस विषय में स्वदेशी जागरण मंच के प्रयासों से ’वैश्विक सर्व सुलभ टीकाकरण एवं चिकित्सा अभियान’ जिसे यूनिवर्सल एक्सेस टू वेक्सीन ऐंड मेडिसन (UVAM) कहा है, व्यापक रूप से विश्व भर में चल रहा है।
यह महामारी कहां से आई, महामारियों का इतिहास कैसा है, वर्तमान में इस बीमारी के कारण से कितने लोगों को कैसी परेशानी हो रही है, आर्थिक नुकसान कैसा हो रहा है, इसकी जानकारी होना आवश्यक है। और फिर इसका आकलन भी आवश्यक है कि इस महामारी से निपटने के लिए समाज और विश्व में कैसे-कैसे प्रयत्न हो रहे हैं। और क्या-क्या करने की आवश्यकता है, यह भी स्पष्ट होना आवश्यक है।
प्रोफेसर भगवती प्रकाश जी, मूर्धन्य विद्वान हैं, ऐसे विषयों का लंबे समय से उनका अध्ययन है। इसके अतिरिक्त स्वदेशी जागरण मंच के संगठक कश्मीरी लाल जी, सह संयोजक डॉ अश्विनी महाजन जी, धनपत राम जी, अरुण ओझा जी, अजय पत्की आदि से भी चर्चा करने के पश्चात यह विषय व लेखन अस्तित्व में आ पाया।
मंच की टीम का यह सर्वसम्मत मत था कि विश्व भर में फैले हुए स्वदेशी प्रेमी व मानवता के लिए इस महामारी के समय पर कुछ कर गुजरने की इच्छा रखने वाले भाईयों-बहनों के लिए कुछ लिखित सामग्री उपलब्ध करवानी चाहिए। यह कोई शोध ग्रंथ नहीं है, बल्कि सामान्य कार्यकर्ताओं को सर्व सुलभ समझ में आ जाए तथा वे इसका उपयोग कर अभियान को सर्वत्र फैलाने में लग सकें, इस हेतु से यह सामग्री तैयार की गई है।
आशा है कार्यकर्तागण इसका पूर्ण उपयोग करेंगे। हम सब मिलकर देश व विश्व को इस महामारी से मुक्त कराने के जिस अभियान में जुटे हैं उसे गति देने में यह पुस्तिका अवश्य सहायक होगी। और वैक्सीन व दवाईयां सब तक पहुंचाने में तथा महामारी का अंत करने में, इस अभियान के माध्यम से हमें सफलता भी अवश्य मिलेगी, ऐसा विश्वास है। अन्य अनेक बंधुओं बहिनों का भी इस रचना में काफी सहयोग मिला है, हम हृदय से उनके भी आभारी हैं।
- सतीश कुमार
सार संक्षेप
- 1918 के स्पेनिश फ्लू, जिसमें 5 करोड लोगों की मौत हुई थी, के बाद अभी तक की सबसे बड़ी वैश्विक महामारी। कुल 17 करोड़ संक्रमित, 35 लाख लोगों की मृत्यु, कोविड-19 से।
- विश्व में इससे पूर्व की 10 महामारियों में से पांच का उद्गम चीन या संबंधित भूमि से। इसका भी वुहान, चीन के हुबेई प्रांत की राजधानी से (आशंका वहां की जीवाणु लैब से)
- भारत में 31 जनवरी 2020 को पहला केस, अभी तक 2 करोड़ 70 लाख संक्रमित, 3 लाख 50 हजार की मृत्यु।
- पहली लहर का भारत द्वारा सफल मुकाबला पर अर्थव्यवस्था 7.3 प्रतिशत गिरी। रोजगार का बड़ा नुकसान।
- अचानक आई दूसरी लहर में भी समाज व सरकार के व्यापक प्रयत्न। दूसरे देशों की अपेक्षा ठीक। अमेरिका में प्रति दस लाख पर मृत्यु 1785, इंग्लैंड में 1906, ब्राजील में 2104, तो भारत में 213
- सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक व आर्थिक संगठनों द्वारा विश्व का सबसे बड़ा सेवा कार्य अभियान। स्वदेशी सहित संघ विचार परिवार ने भी शक्ति झोंकी। बाकी संगठनों ने भी अथाह प्रयत्न किए।
- सरकार के द्वारा अर्थव्यवस्था, रोजगार को ठीक करने के लिए 21 लाख करोड़ का आत्मनिर्भर पैकेज। 80 करोड़ लोगों को 2 वर्ष तक मुफ्त राशन। देश में स्वावलंबी बनने का संकल्प। जीडीपी के 10-11 प्रतिशत बढ़ने की संभावना।
- वैक्सीन निर्माणः एक वर्ष में ही सात कंपनियों द्वारा प्रारंभ। अभी तक 24 करोड़ लोगों को टीका लग चुका। अमेरिका के बाद सबसे अधिक।
- स्वदेशी जागरण मंच ने पहले स्वदेशी स्वावलंबन अभियान व अब यूनिवर्सल एक्सेस टू वैक्सिंग एंड मेडिसन अभियान शुरू किया। जिसमें 12 लाख हस्ताक्षर, 50 देशों से 9500 हस्ताक्षर व कुलपति सहित उच्च शिक्षाविदों के 2200 हस्ताक्षर शामिल हैं।
- विश्व में भी अनेक कंपनियों ने अच्छे टीके विकसित किए। पर पेटेंट व बड़ी कीमत के कारण सर्वसुलभ नहीं। 80-85 प्रतिशत टीके 27 अमीर देशों को।
- विश्व के सभी 205 देशों की 786 करोड़ आबादी को टीकाकरण करने का संकल्प। राष्ट्रीय, मानवीय, पवित्र व महानतम संकल्प।
- विश्व में भी अभी तक 20 लाख हस्ताक्षर, 200 नोबेल पुरस्कृत व पूर्व राष्ट्रध्यक्ष ने मुहिम चलाई। मोहम्मद यूनुस, जोसेफ, अन्ना मैरियट व WHO प्रमुख टेड्रोस घेब्रेयेसस सहित शामिल।
- भारत, दक्षिण अफ्रीका की अक्तूबर 2020 में ही प्रारंभ ‘पेटेंट फ्री वेक्सीन’ प्रयत्नों को अब अमेरिका सहित विश्व की 120 सरकारों ने समर्थन दिया। ...अभियान की सफलता की प्रबल संभावना।
भूमिकाः 100 वर्षो बाद आयी वैश्विक महामारी पर विजय की और विश्व
“प्रत्येक जन्म लेने वाला बच्चा, प्रभु का यह संदेश लेकर आता है कि मानवता से अभी उसका विश्वास डिगा नहीं है।“ कवि रवींद्रनाथ टैगोर की यह पंक्तियां इतिहास में सदैव स्मरण की जाती है। और यह पंक्तियां वर्तमान में कोरोना से जूझते विष्व को मानसिक संबल भी प्रदान करती है।
गत जनवरी (2020) माह से ही चीन के वुहान नगर से प्रारंभ हुई कोरोना महामारी से भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व भी त्रस्त है। भारत ने बहुत उत्तम रीति से इसका सामना किया है और विश्व की विभिन्न देशों की सरकारों तथा समाजों ने भी व्यापक प्रयत्न किए हैं।
यह रोग उत्पन्न हुआ या किया गया, प्राकृतिक है अथवा मनुष्य निर्मित, इसके बारे में तो अभी प्रमाण जुटाए जा रहे हैं, खोज जारी है। किंतु यह सत्य है कि वर्तमान की मेडिकल साइंस ने, जहां पर स्पेनिश फ्लू 1918-20 की वैक्सीन अर्थात टीका निकालने में लगभग 20 वर्ष लिये (1940 में), वहीं पर इस बार एक वर्ष के अंदर-अंदर उन्होंने इसकी वैक्सीन भी निकाल दी। संपूर्ण भारत और विश्व में सेवा कार्यों और इलाज का, सरकारों व समाजों द्वारा जीवन बचाने, लोगों को संबल प्रदान करने का जहां एक और ऐतिहासिक प्रयत्न हुए, वहीं पर ही कुछ गिद्ध दृष्टि के व्यक्तियों, कंपनियों ने, जिन्होंने दवाइयों/वैक्सीन के बेतहाशा दाम बढ़ाए, अन्य-अन्य प्रकार से इस संकट में भी अपने हित का सोचा। उनको भी समाज ने देखा है। फिर पहले की महामारियों की तरह एक के बाद दूसरी कोरोना की लहर ने विश्व को झकझोर कर रख दिया है। दुनिया के लगभग 17 करोड़ लोग इससे संक्रमित हुए है। बड़ी संख्या में चिकित्सक सहित 35 लाख लोग अभी तक इस महामारी में काल कवलित हुए हैं। करोड़ों लोगों के रोजगार या तो पूरी तरह से छिन गए हैं, या फिर बहुत कम हो गए हैं। विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाएं बुरी तरह से लड़खड़ा गई हैं। वैश्विक व्यापार (वस्तु) में 13 से 32 प्रतिषत तक की कमी आई है। डालर की कीमत गिरी है। यद्यपि सेवा व्यापार में 2 प्रतिषत की वृद्धि हुई है।
इस सारे लेखा-जोखा का चिंतन करना आवश्यक है। लेकिन भारत से लेकर अमेरिका तक के वैश्विक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप इस महामारी पर भी भारत और विश्व विजय प्राप्ति की ओर अग्रसर है।
इसको समग्र दृष्टिकोण से समझना न केवल जानकारी के लिए, वरन् हमारी आगामी दिशा तय करने हेतु भी आवश्यक है।
सामान्य जिज्ञासा व उनके उत्तर
क्या है, कोरोना या कोविड-19 ?
कोरोना नाम वायरस अर्थात् विषाणु से संक्रमित होने पर व्यक्ति को बुखार, जुकाम, खांसी, थकान एवं सांस लेने में कठिनाई उत्पन्न होती है और सांस में अवरोध से मृत्यु तक हो जाती है। यह एक दूसरे से स्पर्ष, ष्वास या ष्वास कण से दूसरों में तेजी से फेलता है। कोरोना वायरस की यह बीमारी 2019 से प्रारंभ होने इसे ‘‘ब्वतवदं टपतने क्पेमेंम.2019’’ कहा गया, जिसका संक्षिप्त नाम ‘‘ब्व्टप्क्.19’’ अर्थात कोविड-19 हो गया।
यह विष्व में कैसे फैली? चीन से इसका क्या संबंध है ?
कोरोना वायरस नवंबर 2019 में चीन के वुहान नगर की प्रयोगषाला से षुरू हुआ और व्यक्ति से व्यक्ति में फेलने लगा। वुहान में चीन की विष्वस्तरीय जीवाणु प्रयोगषाला है। षीघ्र ही यह जापान, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, ताईवान, यूरोप, अमरीका और भारत सहित पूरे विष्व में महामारी की तरह फैल गया। मई 24, 2021 तक इससे विष्व में 34.86 लाख (भारत में 3.04 लाख) लोग मृत्यु के षिकार हो चुके हैं। इसे चीन ने जैविक युद्ध के लिए प्रयोगषाला में उत्पन्न किया अथवा वहां सहज में उत्पन्न हुआ, इसे लेकर दोनों ही प्रकार की चर्चाएं हैं, खोज जारी है।
चीन में 17 नवंबर 2019 को कोरोना संक्रमित एक रोगी चिन्हित हो गया और 31 दिसंबर 2019 तक 266 रोगी संक्रमित हो गये थे। तब तक चीन ने इसे छिपाये रखा, जबकि अंतरराष्ट्रीय नियमों के अधीन चीन को यह सूचना 17 नवंबर से 24 घंटे में विष्व स्वास्थ्य संगठन को अनिवार्यतः दे देनी थी। जनवरी 1, 2020 को प्रथम बार यह सूचना देने तक 50 लाख यात्री चीन से विष्व के अनेक देषों में प्रवास कर चुके थे, जिससे यह संक्रमण सर्वत्र फैलने लगा।
कोविड-19 के उपचार व रोकथाम से पेटेंट का संबंध है?
विष्व के 16.8 करोड़ व भारत के 2.7 करोड़ कोविड संक्रमित रोगियों की उपचार एवं विष्व की 780 करोड़ जनसंख्या के बचाव हेतु इसकी औषधियों व टीकों के मूल्यों में कमी व इनकी आपूर्ति बढ़ाना आवष्यक है। इसके लिए भारत ने विगत अक्टूबर में इन औषधियों व टीकों को 5 वर्ष के लिए पेटेंट मुक्त करने का प्रस्ताव विष्व व्यापार संगठन में रखा। इस पर आज अमेरिका सहित 120 देष अब भारत के इस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा होने से इनकी पेटेंटधारक एक-एक कंपनी के अतिरिक्त अन्य उत्पादक भी इनके उत्पादन के लिए स्वतंत्र हो जायेंगे। इससे इनके मूल्य गिरेंगे व आपूर्ति बढ़ेगी।
दवाईयां व टीकों की सर्वसुलभता का अभियान क्या है ?
स्वदेषी जागरण मंच का स्पष्ट मत है कि कोविड-19 की औषधियों व टीकों के उत्पादन को पेटेंट मुक्त कर इनके उत्पादन की प्रौद्योगिकी का अधिकतम सक्षम उत्पादकों को हस्तान्तरण व इनके उत्पादन की सभी प्रकार की सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति आवष्यक है। विष्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स के समझौते की धारा 7 व 8 में भी ट्रिप्स का उद्देष्य प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण है। इसलिए मंच ने यह ‘‘न्दपअमतेंस ।बबमे जव टंबबपदम ंदक डमकपबपदमे ब्ंउचंपहद’’ के नाम से टीकों व औषधियों की सर्वसुलभता का अभियान प्रारंभ किया है। इसका उद्देष्य कोविड-19 की औषधियों व टीकों को सर्व सुलभ करवाना है। आज इजरायल, इंग्लैंड, नार्वे, अमेरिका व भूटान ने अपनी अधिकांष व्यस्क जनसंख्या का टीकाकरण (टंबबपदंजपवद) कर कोविड के संक्रमण व कोविड से होने वाली मृत्यु पर लगभग पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। इसलिए सभी संक्रमित रोगियों को औषधियों एवं टीकाकरण से विष्व की 7.8 अरब जनता की इस रोग से सुरक्षा आवष्यक है।
कहते है, विष्व में दूसरे देषों की अपेक्षा भारत में कम हानि हुई, क्या यह बात सच है ?
हां! यह सच है। जहां अमेरिका में प्रति 10 लाख 1,00,013 संक्रमित, मृत्यु 1785, इंग्लैंड में 88,502 संक्रमित व मृत्यु 1907 है, वहीं भारत में प्रति 10 लाख संक्रमित 19,230 व मृत्यु 215 है। प्रमुख 16 देषों में भारत इस हिसाब से 15वें स्थान पर है। (अंत में तालिका देखें)
यदि भारत में हानि कम है तो उसके कारण क्या है ?
पहली बात तो है कि हम भारतीयों की षरीर प्रतिरोधक क्षमता अच्छी है। फिर सरकार ने तेजी से उचित कदम उठाए (विषेषकर पहली लहर में)। इसके अलावा योग-आयुर्वेद सहित हमारे चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों का सेवाभावयुक्त परिश्रम, सामाजिक, धार्मिक व अन्य संस्थाओं का सहयोगी व सेवा भाव भी कारण है।
महामारियों का इतिहास
यद्यपि यह कोई रचनात्मक इतिहास तो नहीं है, किंतु वर्ष 541 से 750 के समय पर फेला बुबोनिक प्लेग (bubonic plague), ज्ञात इतिहास की सबसे पहली बड़ी वैश्विक महामारी माना जाता है। जिससे प्रतिदिन 10 हजार लोग मरते रहे। यूरोप की 50 प्रतिषत आबादी मारी गई और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गई। क्योंकि उस समय, आंकड़े रखने का कोई क्रम तो नहीं था, फिर भी अनुमान व उस समय की प्रक्रिया के अनुसार ऐसी ही जानकारी इतिहास में दर्ज है।
फिर 1346 ईस्वी से 1353 ईस्वी में आया ब्लैक डेथ। यूरोप, एशिया और अफ्रीकी देषों में इस महामारी ने भयंकर तबाही मचाई। जब मेस्सीना के सिलिकॉन पोर्ट पर 12 जहाज ब्लैक-सी से होकर उसके तट पर पहुंचे, बंदरगाह पर पहुंचे। इन जहाजों पर लोग तो माल देखने, खरीदने हेतु उसके ऊपर चढ़े, किंतु सारे देखकर दंग रह गए कि वहां उसके सारे यात्री और व्यापारी या तो मृत हो गए थे या फिर बुरी तरह से रुग्ण थे। उनके चेहरे काले हो चुके थे, उनके शरीर, रक्त व पस से भरे पड़े थे। यद्यपि थोड़ी देर देखने के बाद अधिकांश लोग डरकर वापस आ गए और उन सभी 12 जहाजों को वापिस समुद्र में ढ़केल दिया गया। किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वे लोग जिन्होंने लाशों को छुआ था अथवा उस समय की गंध ली थी, वह बीमारी के वाहक बने। धीरे-धीरे संपूर्ण यूरोप ही नहीं, अफ्रीका, एषिया, यहां तक कि अमेरिका में भी यह प्लेग फैल गया। अगले 5 सालों में कोई दो करोड़ लोग मारे गए। यूरोप की एक तिहाई आबादी खत्म हो गई। बचे लोग भागकर दूर गांव में निकल गए अथवा अपने आप को सुरक्षित कर लिया।
किंतु 1918-19 में फैला स्पेनिश फ्लू, यह और भी भयंकर सिद्ध हुआ। इसका नाम यद्यपि स्पेनिश फ्लू है किंतु यह कहां से शुरू हुआ इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। प्रथम विश्व युद्ध के समय पर जो अमेरिकी सैनिक बड़ी मात्रा में यूरोप और दुनिया में लड़ाई करने गए हुए थे, वे अपने साथ इस बीमारी को लेकर आए। हां! यह भी सत्य है कि जितने सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में अमेरिका के मारे गए, उससे कहीं अधिक (6,70,000) इस स्पेनिष फ्लू से मारे गए। अमेरिका की नौसेना का 40 प्रतिषत भाग और रेगुलर सेना का 25 प्रतिषत भाग इस स्पेनिश फ्लू के कारण मारा गया। यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन भी इसे स्पेनिश फ्लू से ग्रसित हुए, यद्यपि बच गए। माना जाता है कि जब वे ट्रीटी आफ वर्सेल्स, जिससे प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ, की बातचीत करने गए तो संक्रमित हुए। उस समय के लिहाज से विश्व की 3 प्रतिषत जनता इसमें मारी गई।
क्योंकि 1918 में विश्व युद्ध चल रहा था, इसलिए अधिकांश देशों की सरकारों ने समाचारों पर प्रतिबंध लगा रखा था। किंतु यूरोप में स्पेन न्यूट्रल देश था और वहां पर मीडिया को स्वतंत्रता भी थी। इसलिए उसने सबसे पहले व्यापक रूप से इसके समाचार प्रकाषित किए। इसलिए इसको स्पेनिश फ्लू भी कहते हैं। इसने संपूर्ण दुनिया के साथ-साथ भारत में भी भयंकर तबाही मचाई और भारत में भी सभी तरफ तबाही का मंजर प्रकट हुआ। प्रत्यक्ष आंकड़े किसी भी तरह से उपलब्ध नहीं, किंतु यह संख्या भारत में भी एक करोड़ से अधिक मानी जाती है। 1920 तक (2 वर्ष के बाद) यह महामारी स्वाभाविक रूप से उतर गई। यद्यपि इसकी वैक्सीन 1940 में ही जाकर अमेरिका में विकसित हो पाई।
उसके पश्चात भी भारत और विश्व ने महामारियों का दंश झेला है। 1957-58 में चीन के ही ग्वांगझू से शुरू हुआ एशियन फ्लू 40 लाख लोगों को इस धरती से विदा कर गया। यह ध्यान में आया है कि गत विश्व की 10 महामारियों में से पांच का उद्गम यह चीन अथवा उससे संबंधित भूमि पर ही हुआ है।
1968 में हांगकांग फ्लू और 2009 में स्वाइन फ्लू इसके बड़े प्रमाण हैं। यद्यपि उस वर्ष स्वाइन फ्लू में 18,449 मौतें भी हुई। लेकिन स्वाइन फ्लू से हुई बाद के कुछ वर्षों में संख्या 2 लाख 84 हजार तक बैठती है। ऐसा अनुमान है कि विश्व की 70 करोड़ जनता को स्वाइन फ्लू हुआ, किंतु मृत्यु दर उसमें बहुत कम रही।
इसके अलावा भी 2013-16 में ‘इबोला फलू’ पश्चिमी अफ्रीकन देश, 2012 में मार्स और 2015 में ब्राजील में ‘जीका’ वायरस महामारी भी फैली।
फिर यह भी सच है कि 2018 से एड्स की बीमारी से ही कोई 3.79 करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं और 7 लाख 70 हजार मौतें हुई हैं। यही नहीं ट्यूबर क्लोसिस (टीबी) से प्रतिवर्ष करोड़ों लोग बीमार होते हैं और 15 लाख की मौत भी होती है।
किंतु संपूर्ण समय पर वैज्ञानिकों, चिकित्सकों ने एक बड़ी भूमिका निभाकर विश्व को महामारियों से निकाला है और प्रकृति अपना संदेश देकर फिर से पुनर्निर्माण में लग गई है।
कोरोना संकट की शुरुआत!
चीन का मध्य प्रांत है हुबई। वुहान उसकी राजधानी है। वहां कुल 1.1 करोड़ आबादी है। यह शहर हान और यांग्त्जी नदी के दोनों ओर बसा है। इस वुहान नगर में ही चीन की विश्व प्रसिद्ध जीवाणु लैब भी है। जिसमें सैकड़ों वैज्ञानिक काम करते हैं। इसी वुहान नगर में ही माना जाता है कि सितंबर 2019 में इस कोरोना वायरस का प्रारंभ हुआ। 30 दिसंबर 2019 को वहां के बड़े प्रसिद्ध डॉक्टर ‘ली वेंग लियांग’ ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को बताया कि ‘‘एक नए प्रकार का निमोनिया इस समय अनेक मरीजों को हो गया है, जैसा कि पीछे सार्स वायरस से हुआ था। हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए और क्योंकि वह छुआछूत से फैल रहा है, इसलिए हमें विशेष प्रकार के कपड़े और मास्क पहनना चाहिए।’’ किंतु जैसे ही यह बात वरिष्ठ लोगों तक पहुंची तो पुलिस ने दखल दिया और उस डॉक्टर तथा उसके अन्य आठ सहयोगियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया। उन पर अफवाह फैलाने का आरोप लगा दिया गया। उन्हें अपनी चेतावनी वापस लेने को बाध्य किया।
इसके 7-8 दिन बाद ही वे डाक्टर (ली वेंग लियांग) स्वयं बीमार पड़ गए और अंततः 7 फरवरी 2020 को 33 वर्ष की आयु में उनकी इसी करोना महामारी से मृत्यु हो गई।
चीन में मीडिया पर सब प्रकार के प्रतिबंध हैं। यद्यपि संपूर्ण चीन में उस समय तक रोष फैल गया था जो कि सोशल मीडिया पर प्रकट भी हो रहा था। किंतु कम्युनिस्ट चीन में कुछ भी बाहर नहीं आ पाता है। वहां के वाइबो (भारत के ट्विटर जैसा) पर आई हुई लाखों प्रतिक्रियाओं को तुरंत मिटा दिया गया। चीन में क्या हो रहा है और वायरस कैसे फैल रहा है, इस पर सब प्रकार की रोक लगा दी गई।
जो भी हो कोरोना से उस समय चीन में प्रतिदिन 4000 नए संक्रमित रोगी आने लग गए थे तथा 65-70 मृत्यु प्रतिदिन होने लगी थी। संपूर्ण विश्व में भी (चीन से निकल कर), इटली, यूरोप और अमेरिका में यह पैर पसारने लगा था।
संपूर्ण दुनिया के विशेषज्ञ इस समय इस बात पर बंटे हुए हैं कि चीन ने यह महामारी पैदा की या यह प्राकृतिक रूप से पैदा हुई। चीन ने अपनी तरफ से कह दिया है कि यह वायरस वुहान की मीट मार्केट में चमगादड़ से आया है। अमेरिका के डॉक्टरों के एक वर्ग ने भी इसकी पुष्टि की है, किंतु अमेरिका से लेकर विश्व तक के वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस पर आशंका जताई है और उनका कहना है कि यह वुहान की लैब से किसी एक्सीडेंट के कारण भी निकला हो सकता है। उधर अमेरिका के पूर्व विदेश सचिव माइकल पॉम्पियो ने स्पष्ट कहा है कि “यह चीन के बायो वार (जैविक युद्ध) का परिणाम है, जिसकी वह तैयारी कर रहा था’’। एक अन्य रिपोर्ट में भी 2016 से वहां की लैब में कोरोना वायरस पर रिसर्च वर्क की रिपोर्ट आई है। अभी तक कुछ भी स्पष्ट नहीं। लेकिन चीन के रहस्यमय तरीकों व बयानों से शंकाएं और भी बढ़ जाती हैं। चीन ने ही इसे सबसे पहले 2019-N Cov नाम दिया।
डब्ल्यूएचओ (विष्व स्वास्थ्य संगठन) के महानिदेशक प्रोफेसर टुड्रोस घेब्रियासिस (Tudors Ghebreyesus) ने इसे 30 जनवरी को पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न घोषित किया। किंतु इसे वैश्विक महामारी तो उन्होंने (विश्व स्वास्थ्य संगठन ने) भी 11 मार्च 2020 को ही जाकर की। तब तक यह 114 देशों में 1,18,000 लोगों को संक्रमित कर गया था।
24 मार्च को जब भारत ने अपना लॉकडाउन घोषित किया, उस दिन तक विश्व भर में 3,34,000 लोग संक्रमित हो चुके थे और 14,000 लोगों की तब तक मृत्यु हो गई थी।
क्योंकि चीन ने तो जैसे-तैसे इस पर अगले 3 महीने में काबू पा लिया। किंतु जैसे ही यह इटली, फ्रांस, इंग्लैंड व अन्य यूरोपीय देशों तथा अमेरिका में गया तो वह अत्यधिक तेजी के साथ फैला। संपूर्ण विश्व एक तरीके से आतंकित हो गया। किसी को भी कुछ नहीं समझ में आ रहा था कि यह कैसी बीमारी आई है और इससे कैसे निपटा जाए। न कोई इसकी दवा थी, न कोई रोकथाम का टीका था, तो केवल एक ही हथियार था - संपूर्ण लॉकडाउन करके अपने घरों के अंदर छुप जाओ। एक अदृश्य जीवाणु ने सभी को, व्यापार उद्योग की चहल-पहल बंद करके अपने-अपने घरों में बंद होने को मजबूर कर दिया और विश्व 1918 के बाद की सबसे बड़ी महामारी के भंवर में फंस गया।
’भारत में काल रात्रि का आरंभ’
भारत में सबसे पहला केस केरल में आया, जब वहां पर चीन के वुहान नगर से ही लौटे 3 लोगों को कोरोना संक्रमित पाया गया। वे 30 जनवरी को ही आए थे। मार्च आते-आते भारत में भी यह महामारी तेजी से फैलने लगी थी। फरवरी में जयपुर में भ्रमण पर आए इटली के 23 सदस्य संक्रमित पाए गए। भारत में सभी सावधानियां बरतने के बावजूद भी मार्च 23 तक 564 कोरोना के केस आ चुके थे। केरल के बाद जयपुर, फिर मुंबई, फिर दिल्ली और फिर अन्य प्रमुख नगरों से भी कोरोना संक्रमित होने के समाचार आने लगे। इन्हीं दिनों दिल्ली में इस्लामिक सेंटर में देष और विष्व से आए तब्लीगियों ने कहर बरपाया। वहां से 400 से अधिक संक्रमित निकलकर देषभर में फेल गए। भारत पर भी इस वायरस की धनी अंधकार की छाया प्रारंभ हो गई थी। सांत्वना केवल इतनी थी कि जनवरी से ही विश्व समाचार सुनने के कारण से भारतीय जनमानस डरा हुआ तो था, किंतु सजग भी था और सरकार ने ऐतिहासिक रूप से इस कोरोना महामारी से रोकथाम व उससे निपटने के लिए अभूतपूर्व तेजी के साथ तैयारी की थी। जो विश्व के अन्य देशों के लिए भी एक उदाहरण बन गई।
महायुद्ध में विजय होने को, भारत की पूर्व तैयारी
जनवरी में जैसे ही चीन से यह समाचार आने लगे, भारत की सरकार ने तुरंत इसके लिए बैठकें करनी शुरू की। संपूर्ण तंत्र को अत्यधिक सावधान कर दिया गया और 17 जनवरी से ही (उस समय तक भारत में कोई केस नहीं आया था) बाहर से आने वाली उड़ानों की सख्त चेकिंग शुरू हो गई थी। 21 अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों और 72 समुद्री बंदरगाहों पर यात्रियों हेतु जांच बिठा दी गई थी। ईरान से, जहां से संक्रमित आने की संभावना थी, वहीं पर ही एक लैब स्थापित कर दी गई। भारत के स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने देश को आश्वस्त किया “हम पूरी तरह से सावधान हैं।“ एन-95 मास्क का निर्यात बंद कर दिया गया।
कोरोना की टेस्ट लैब हमारे यहां पर ना के बराबर थी, किंतु मार्च 2020 तक ही 52 लैब स्थापित हो गई। इसके लिये अति आवश्यक पीपीई किट, जो कि भारत में नहीं बनती थी, उसको बनाने के ऑर्डर जाने लगे। टेस्टिंग किट के लिए कोरियन कंपनी से अनुबंध कराकर मानेसर (हरियाणा, गुरुग्राम) में उत्पादन शुरू करवाया गया। सब प्रकार की सावधानियां और जांच-परख करने के बाद भी जब मार्च 18-19 तक 500 केस भारत में आ ही गए, तो 22 मार्च को प्रधानमंत्री जी ने स्वयं मोर्चा संभालते हुए टेलीविजन पर आकर जनता कर्फ्यू की अपील की। जिसका बहुत उत्तम प्रतिसाद जनता से मिला और विश्व भर की जानकारी व चिकित्सा टीम के योजना संकेत करने पर 24 मार्च 2020 को 21 दिन का लंबा और संपूर्ण लॉकडाउन भारत में घोषित कर दिया गया।
विश्व से अपने नागरिकों को सुरक्षित निकाला
भारत ने न केवल 17 जनवरी से 22 मार्च के बीच 10 लाख से अधिक बाहर से आने वाले यात्रियों की पूरी स्कैनिंग की, बल्कि उनके लिए 14 दिन का क्वॉरेंटाइन समय भी रखा गया। विशेषकर कोरिया, चीन, जापान, फ्रांस व जर्मनी से आने वालों के लिए।
सरकार द्वारा विशेष ‘वंदे भारत मिशन’ चलाया गया। इसके अंतर्गत पहले 900 लोगों को 12 मार्च तक जापान, चीन व ईरान से निकाल लाया गया और फिर बाद में तो 149 फ्लाइट्स के माध्यम से 14,536 लोगों को विश्व के 31 देशों से वापस लाया गया। भारत की जनता ने भी विषय की गंभीरता को समझते हुए सब प्रकार से सहयोग किया। अपनी पीपीई किट बनाने के लिए लुधियाना से लेकर तिरुपुर तक की फैक्ट्रियां काम करने लगीं। जहां फरवरी में षून्य (0) उत्पादन था, वहां पर मई 2020 आते-आते तक भारत से पीपीई किट के एक्सपोर्ट करने की स्थिति भी बनने लगी। फिर एक बड़ा काम था चिकित्सकों तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का, फ्रंटलाइन वर्कर्स का मनोबल बढ़ाना। क्योंकि अपनी मृत्यु का डर किसको नहीं होता? उस समय पर कोरोना के मरीज को छूना, मानो स्वयं को कोरोना संक्रमित करना और ऐसी बीमारी से ग्रसित कर लेना जिसका कोई इलाज नहीं है। और मृत्यु होने की संभावनाएं बहुत हैं।
ऐसे में प्रधानमंत्री जी ने आह्वान किया कि कोरोना योद्धाओं के समर्थन में सभी लोग अपने घर व छत पर खड़े होकर ताली बजाएं, थाली बजाएं और कोरोना योद्धाओं का अभिनंदन करें। वायु सेना के हेलीकॉप्टरों ने दिल्ली के एम्स अस्पताल, पूर्व मुंबई के अस्पताल पर भी पुष्प वर्षा की और भय को उत्साह में बदलने का एक सफल प्रयोग भारत में भी शुरू हुआ।
चिकित्सकीय ढांचा कमजोर, इरादे मजबूत
भारत का चिकित्सकीय ढांचा यदि देखा जाए तो वह विश्व के प्रमुख देशों के मुकाबले में बहुत ही कमजोर है। अमेरिका के मुकाबले में भारत का स्वास्थ्य बजट 0.3 प्रतिषत है। भारत में प्रति 1465 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर है। भारत के प्राइवेट अस्पताल 50 प्रतिषत मरीजों को देख लेते हैं। पर भारत में प्राइवेट व सरकारी मिलाकर प्रति 10,000 जनसंख्या पर केवल पांच बिस्तर हैं। सामान्य व गरीब आदमी उनके लिए तो और भी दयनीय स्थिति रहती है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में। किंतु भारत का संकल्प यह समाज की बड़ी ताकत है। इसलिए जब करोना जून-जुलाई में तेजी से बढ़ भी रहा था तो भी सरकार व समाज दोनों ने पहली लहर को ठीक से संभालने का न केवल काम किया, बल्कि संपूर्ण विश्व में भी एक धारणा बनी कि भारत ने महामारी का सबसे अच्छे ढंग से निबटने का कार्य किया है।
क्योंकि 17 सितंबर को जब भारत में सर्वाधिक संक्रमण संख्या (97,600) आई, उसी समय पर अमेरिका में ही दो लाख से ऊपर केस आ रहे थे। यदि प्रति दस लाख पर मरीजों की संख्या और मृत्यु दर देखी जाए तो वह विश्व के अन्य विकसित देशों की तुलना में काफी बेहतर है। उदाहरण के लिए यदि दूसरी लहर के बाद भी भारत में प्रति दस लाख पर 18,467 लोग संक्रमित हुए, तो अमेरिका में 1,01,518, ब्राजील में 73,570, इटली में 69,100, इंग्लैंड में 65,256, फ्रांस में 90,188 और जर्मनी में 43,065।
इसी प्रकार मृत्यु प्रति दस लाख पर आज तक भारत में 215 है, जबकि अमेरिका में 1807, ब्राजील में 2054, इटली में 2064, इंग्लैंड में 1872, फ्रांस में 1652 और जर्मनी में 1038 है। आगे तालिका भी देखें।
लॉकडाउन की विषम चुनौती व समाज की जागृत षक्ति
जैसे ही लॉकडाउन प्रारंभ हुआ तो सबसे बड़ा प्रश्न आया कि जो लोग दिहाड़ीदार हैं, ठेला लगाते हैं, मजदूरी करते हैं, ऑटो या टैक्सी चलाते हैं, आदि आदि वे अपना गुजर-बसर कैसे करें? उनके परिवारों की, बच्चों की दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताएं कैसी पूरी हों? क्योंकि 138 करोड़ का समाज और एकदम अचानक लॉकडाउन का लगना, बीमारी ही ऐसी विचित्र आयी थी, लाकडाउन के अलावा चारा नहीं, पर लाकडाउन में गुजर भी कैसे?
सरकार ने तो अपनी और से 80 करोड़ लोगों के लिए राशन की घोषणा की और न केवल सरकार बल्कि पार्टी ने भी राशन, भोजन पेकेट बस्ती-बस्ती, घर-घर तक पहुंचाने के लिए परिश्रम प्रारंभ किया। लेकिन बड़ी बात है कि समाज की आंतरिक शक्ति जागृत हुई। क्या आर्थिक, क्या धार्मिक, सामाजिक अथवा जातिगत संगठन, सब आगे आए। स्थान-स्थान पर राशन वितरण करना, बने बनाए भोजन के पैकेट वितरण करना, सैनिटाइजर और मास्क बांटना प्रारंभ हुआ। काम करते हुए भी सरकार के नियमों से दूरी बनाए रखना, छूना नहीं, इसका भी पालन करना था और सहयोग भी करना था।
स्वामीनारायण संप्रदाय (गुजरात), श्री श्री रविशंकर जी, गायत्री परिवार, बाबा रामदेव का पतंजलि योग ट्रस्ट, आर्य समाज, सनातन धर्म संस्थाएं, हजारों की संख्या में मठ, मंदिर, गुरुद्वारे इस विषय में आगे आए। और कहीं पर भी कोई व्यक्ति या परिवार भूखा न रहे यह अद्भुत दृश्य उत्पन्न हुआ। यह भारत की ही संभवतः सबसे अधिक विशेषता है कि इतने विशाल परिवार (देश) को, समाज को, सरकार नहीं समाज ने अपनी अंतःनिहित, शक्ति के आधार पर लगभग 2 महीने तक खड़े रखा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व उससे प्रेरित 40 से अधिक संगठन स्वयं स्फुर्त ढंग से पहले की भांति इस कार्य में लग गए। सेवा भारती ने 24ग7 हेल्पलाइन नंबर जारी करते हुए, चिकित्सा एवं सहायता केंद्रों की स्थापना की। यही नहीं देशभर में मई 2020 तक कुल 62,336 स्थानों पर संघ द्वारा राहत व सेवा कार्य चलाए गए। जिनमें 3,42,319 कार्यकर्ताओं ने लगकर काम किया। 6 मई तक ही 31,08,000 भोजन पैकेट वितरित किया गया। अन्य सलाह सहायता केंद्र तो चलते ही रहे। उधर सेवा इंटरनेशनल ने भी अमेरिका से न केवल अमेरिका की 300 यूनिवर्सिटीओं में पढ़ रहे छह लाख विद्यार्थियों के स्वास्थ्य, वित्तीय और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के समाधान के लिए टीम बनाकर प्रयत्न किए, बल्कि उन्होंने प्रवासी मजदूरों को राशन बांटने के लिए 1.2 लाख कच्चे राशन की किट और 10 लाख से अधिक फेस कवर भारत में सेवा भारती के माध्यम से वितरित करवाए।
विश्व हिंदू परिषद के 28000 कार्यकर्ताओं ने 28 लाख से अधिक भोजन पैकेट व 3.5 लाख परिवारों को कच्चे राशन की व्यवस्था की। मजदूर संघ के लोगों ने भी 35000 लोगों को भोजन और 7000 लोगों को राशन वितरण किया। भारत में एकल विद्यालय बड़े प्रमाण पर चलते हैं। इसके एक लाख गांव में छोटे विद्यालय संचालित हो रहे हैं। जिनसे भारत के 4,00,000 गांवों का संपर्क बना हुआ है। इसके माध्यम से लाखों गांवों तक भी सहयोग की प्रक्रिया चली। यही नहीं, इतिहास संकलन समिति, आसाम के संगठन के कुछ सदस्य वहां के कुछ सामाजिक संगठनों से मिलकर पशु पक्षी एवं जानवरों के चारे का भी प्रबंधन करते रहे। आसाम में और पूर्वोत्तर में विद्या भारती एवं विवेकानंद केंद्र ने अहम भूमिका निभाई। दिल्ली सहित देष के अनेक स्थानों पर पषु-पक्षियों के पानी-आहार की भी व्यवस्था थी। स्वदेशी जागरण मंच के दिल्ली से लेकर देशभर में फैले हुए तंत्र ने सेवा कार्यों में स्वाभाविक रूप से सहयोग करना ही था।
अर्थव्यवस्था एवं रोजगार के मोर्चे पर संघर्ष
सेवा कार्यों के अलावा स्वदेशी जागरण मंच ने 20 अप्रैल को यह मानते हुए कि इस लॉकडउन के तुरंत पश्चात लोगों को रोजगार की बड़ी समस्या खड़ी होगी, अर्थव्यवस्था लड़खड़ायेगी, ध्यान में कर योजना बनाई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी के उन्हीं दिनों हुए प्रेरक उद्बोधन से प्रेरित होकर स्वदेशी स्वावलंबन अभियान प्रारंभ किया। जिसका उद्देश्य स्पष्ट था। लोगों का मनोबल बनाए रखना, उन्हें अपने व अपने बस्ती, गांव के लोगों के रोजगार को संभालने के लिए प्रेरित करना, स्वरोजगार और अपने बल पर स्वावलंबी भाव के आधार पर खड़े होकर कार्य करना। स्वदेशी का पालन करने से और स्वदेशी व स्थानीय खरीदने से ही हम अपनी अर्थव्यवस्था को संभाल पाएंगे और रोजगार को भी संभाल पाएंगे। इसका आग्रह किया।
इसके लिए 26 अप्रैल से संपूर्ण भारत में 5 स्वदेशी बिंदुओं को, जिनमें स्वदेशी व स्थानीय चीजों को खरीदना, स्वरोजगार व लघु कुटीर उद्योगों की विचार प्रक्रिया शुरू करना, कौशल विकास पर ध्यान देना, ग्राम व विकेंद्रित प्रक्रिया पर ध्यान करना, लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने का संकल्प, पर्यावरण, योग आयुर्वेद, पंचगव्य आदि के प्रचार प्रसार का संकल्प था। मूल विचार यह था कि जब संपूर्ण समाज लॉकडाउन में है तो टेक्नोलॉजी का प्रयोग करते हुए समाज में जन जागरण अभियान चलाने से कार्यकर्ताओं को काम भी मिलेगा व स्वदेशी का प्रसार, देश की दूरगामी आवष्यकता रोजगार व मजबूत अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया को भी बल मिलेगा।
इसके लिये उक्त 5 बिंदुओं पर फ़ोन के माध्यम से, डिजिटल हस्ताक्षर करवाने की योजना बनी। यह प्रयोग बहुत सफल रहा। देशभर के बड़े संत, जैसे बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, संघ के अखिल भारतीय अधिकारी, अनेक केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, सांसद सबने डिजिटल हस्ताक्षर किए। कुल मिलाकर 13 लाख 87 हजार लोगों ने डिजिटल हस्ताक्षर (मोबाइल में फॉर्म भरना) joinswadeshi.com की वेबसाइट से किये और यही नहीं 48,300 वालंटियर ने अपने आपको स्वदेशी कार्य के लिए समय देने हेतु भी आवेदन किया। विषम परिस्थिति में वैचारिक व संगठनात्मक फैलाव का यह अनुपम उदाहरण बना। विचार परिवार के ही नहीं हिंदू समाज के अन्य संगठनों ने भी इसमें खुलकर सहभाग किया।
आत्मनिर्भर भारत घोषणाः स्वदेषी विचार की विजय
उधर 12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत’ का विचार दिया गया। उस दिन टेलीविजन पर अपने एक विशेष प्रसारण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा देश की अर्थव्यवस्था को संभालने, संपूर्ण देश के उद्योग से लेकर देहात तक व दिहाडीद़ार, कामगार व्यक्तियों, सामान्य कृषि मजदूर से लेकर बड़े उद्योगों तक को संभालने की योजना प्रस्तुत की। और यह वास्तव में स्वदेशी विचार की विजय भी थी। जब भारत सरकार ने ‘स्वावलंबी भारत’ स्वदेशी जागरण मंच के विचार को ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नाम से स्वीकार किया। इसका सर्वदूर स्वागत हुआ। जिसमें भारत के ही संसाधनों द्वारा भारत में ही निर्माण, (इंपोर्ट सब्सीट्यूट) आयात का विकल्प, केंद्रीय स्थिति में था और लगभग 20 लाख करोड रुपए के पैकेज की घोषणा हुई। जो भारत की जीडीपी का लगभग 10 प्रतिषत के बराबर था। विश्व भर के अर्थशास्त्रियों ने इस आत्मनिर्भर भारत पैकेज का स्वागत किया।
जून आते-आते अर्थव्यवस्था और रोजगार की बड़ी समस्या खड़ी हो गई, जो स्वभाविक था। सरकार ने आत्मनिर्भर भारत के लिए तो पैकेज दिया ही था, उसके अतिरिक्त भी रिजर्व बैंक ने एक दूसरी किस्त में भी दो आर्थिक पैकेज घोषित किये। प्रवासी मजदूरों के लिए और छोटे रोजगार की वृद्धि के लिए बिना गारंटी के लोन देने की बड़ी प्रक्रियाएं प्रारंभ हुई। स्वदेशी जागरण मंच ने संपूर्ण देश में स्वदेशी स्वावलंबन अभियान के अंतर्गत भारत के युवाओं को कौशल विकास व स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना प्रारंभ किया। भारत के 100 से अधिक विश्वविद्यालयों में इसके लिए वेबीनार, संवाद व चर्चाएं करवाई गई। जिलों में बैठकें, गोष्ठियों, कार्यक्रम के अलावा अर्थ एवं रोजगार सृजक सम्मान कार्यक्रम लिए गए। जिनमें जिन लोगों ने भी दूसरों को रोजगार दिया था, उनको समाज में सम्मानित प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया हुई। देश में कुल ढाई सौ जिलों में यह कार्यक्रम संपन्न हुए। जिनमें सामान्य कार्यकर्ताओं से लेकर संघ के अखिल भारतीय अधिकारी, केंद्रीय मंत्री भी शामिल हुए। भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, लघु उद्योग भारती व अन्य आर्थिक संगठनों ने भी स्वरोजगार और अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयत्न प्रारंभ किए।
मई में लॉकडाउन धीरे-धीरे करके खुलने लगे। किंतु कोरोना की रफ्तार धीमी नहीं हुई। वह लगातार बढ़ रही थी। हां! इस सभी के कारण से एक अवश्य लाभ हुआ कि भारत को आवश्यक तैयारी करने का समय मिल गया। जून माह तक भारत में अपनी ही पीपीई किट, अपनी टेस्टिंग लैब, जो अब बढ़कर 600 से ऊपर हो गई थी, सब प्रकार के मास्क बनाना, टेस्टिंग किट, आवश्यक दवाइयां, अस्पतालों में बेड़ों, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर का प्रबंध कर लिया गया। जिसके कारण से यद्यपि संक्रमित की संख्या तो बढ़ रही थी किंतु अब देश में घबराहट या अफरा-तफरी नहीं थी, बल्कि समाज पूरी तरह से इस महामारी को अपने तरीके से निबटने में लग गया।
एक बड़ी चुनौती उपस्थित हुई लगातार लॉकडाउन के कारण से देशभर में प्रवासी मजदूर अपने गांव में वापस लौटने लगे। यद्यपि उस समय पर रेलगाड़ियां नहीं चल रही थी, आवागमन शुरू नहीं हुआ था, तो भी लाखों की संख्या में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक आदि से लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के अपने गांव को लौटने लगे। बहुत लोग 400-500 किलोमीटर की पैदल यात्रा करने करते हुए भी दिखाई दिए। उस समय भी सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक व विचार परिवार के संगठनों ने उनकी संभाल और सेवा में अपनी पूरी ताकत झोंकी।
भारत की एक और अग्नि परीक्षा, चीन की लद्दाख में घुसपैठ
ठीक इस समय पर जब संपूर्ण विश्व के साथ-साथ भारत भी कोरोना महामारी कि इस चुनौती से निपट रहा था, इसी समय पर चीन ने परिस्थिति का फायदा उठाते हुए भारत के हिमालय क्षेत्र में लद्दाख के गलवान घाटी के क्षेत्र में अपनी सेनाओं को आगे बढ़ा दिया। देश के लिए सीमा पर एक बड़ी और नई चुनौती उपस्थित हो गयी। वास्तव में चीन जो करोना वायरस फ़ैलाने के कारण से संपूर्ण दुनिया में उस समय तक बदनाम हो चुका था, विश्व राजनीति का यह विषय बदलना चाहता था। उसने जापान, फिलीपींस, इंडोनेशिया, नेपाल आदि सबकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए और झगड़े करने शुरु कर दिए। क्योंकि उस समय तक चीन ने तो अपने यहां कठोरता से इस संक्रमण पर काबू पा लिया था। उधर विश्व के सभी देश अपने मरीजों की देखभाल करने, जान बचाने में व्यस्त थे तो इसी का फायदा उठाया चीन ने। अपने पुराने स्वभाव के अनुसार वह दूसरे देश की सीमा में घुसकर विस्तारवादी नीति को अमलीजामा पहनाने लगा।
इधर सौभाग्य से इस बार भारत सरकार सजग थी। भारतीय सेना ने तुरंत ही गलवान घाटी में मोर्चा संभाला। संपूर्ण देश से सेनाएं ने वहां भेजी गईं और चीन तथा भारत की सेनाएं वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बिल्कुल आमने सामने आ गईं। और जब गलवान के फिंगर फोर चोटी पर चीनियों ने पक्के कब्जे के लिए स्थान बनाना शुरू किया, तो स्वभाविक रूप से भारत के सैनिकों ने विरोध किया। उसमें चीन की सेनाओं ने 16 जून 2020 की रात्रि में, पुराने समझौते (दोनों तरफ से गोली नहीं चलेगी) का दुरुपयोग करते हुए कील लगे फट्टे व लकड़ियों से हमला कर दिया। जिसमें एक कर्नल संतोष बाबू सहित 20 जवान शहीद हो गए। चीन के भी बहुत सैनिक मारे गए। संपूर्ण भारत में रोष की लहर फैल गई। यद्यपि विश्व भर में चीन की बदनामी हुई तो भी वास्तविकता का सामना करना था। समाज आंतरिक और बाहरी दोनों मोर्चों पर एक साथ लड़ाई के लिए तैयार हुआ।
भारतीय सेनाओं ने दूसरी चोटियों फ़ीगंर 7 और 8 पर कब्जा कर लिया (जो खाली छोड़ा हुआ था), जिसके कारण से चीन को वार्ता की मेज पर आना पड़ा। लगभग 9 महीने तक की रुकावट के बाद अंततोगत्वा चीन गलवान घाटी और उस इलाके में पीछे हटने को मजबूर हुआ।
प्रथम लहर पर प्रभावी नियंत्रण
17 सितंबर 2020 को भारत में किसी एक दिन में सर्वाधिक संक्रमित 97600 कोरोना रोगी आये। किंतु उसके पश्चात क्रमशः कम होते-होते फरवरी 12-13 तक यह केस प्रतिदिन 10-11 हजार ही रह गए। रिकवरी रेट 97 प्रतिषत को पार कर एक्टिव मरीजों की संख्या 1.5 प्रतिषत रह गई। और भारत दुनिया में प्रति दस लाख सबसे कम संक्रमण व मृत्यु दर के साथ पहली लहर पर विजय पाने में सफल रहा। इससे संपूर्ण भारत ही नहीं विश्व भर में, भारत मॉडल की चर्चा प्रारंभ हुई। अर्थव्यवस्था जो 2020 के प्रथम तिमाही में -23.9 प्रतिषत तक गिर गई थी, व द्वितीय वित्तीय तिमाही में -7.8 प्रतिषत, वह तृतीय में सब उल्टी भविष्यवाणियों के बावजूद 0.4 प्रतिषत के सकारात्मक यानि उत्थान पर आ गई। भारत सरकार द्वारा लगातार प्रयत्न हुए कि आयात के विकल्प क्या-क्या हो सकते हैं? इसकी योजनाएं घोषित हुई। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उठाव देने के लिए विशेष प्रयत्न हुए। किसान सम्मान निधि तो दी ही जा रही थी रू. 6000 वार्षिक। सरकार की आई PLI (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) की योजना भी कारगर हुई। जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो, सोलर आदि के क्षेत्र में भारत में ही निर्माण करने पर इंसेंटिव दिया जाने लगा। उसका परिणाम यह हुआ कि सभी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों s&p, Finch आदि ने ही नहीं, आईएमएफ, विश्व बैंक आदि ने भी अनुमान घोषित किया कि भारत विश्व में सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बन रहा है और यह 13 प्रतिषत तक की जीडीपी की उछाल के साथ 2021-22 में प्रगति करेगा। और अगले तीन-चार वर्षों तक भारत दुनिया की सबसे तेज गति की अर्थव्यवस्था प्रमुख देशों में बना रहेगा।
संकटकाल में भी उपलब्धिः राम मंदिर का निर्माण प्रारंभ
यद्यपि कोरोना महामारी के प्रारंभ होने से पूर्व ही राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया था। किंतु उसका भूमि पूजन व शिलान्यास की प्रक्रिया को इसलिए टालना पड़ा क्योंकि सब तरफ लॉकडाउन था। जैसे ही परिस्थिति कुछ ठीक हुई तो यह निर्णय हुआ कि चाहे छोटे स्तर से ही क्यों न हो, इस कार्य को अब रोकना नहीं और अंततः 25 सितंबर को अयोध्या के अंदर राम जन्मभूमि निर्माण हेतु कार्य प्रारंभ कर दिया गया। एक विशेष पूजन प्रक्रिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय मोहन भागवत, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के अलावा देशभर के प्रमुख 250 संत शामिल हुए। संपूर्ण भारत नहीं, दुनिया ने भी उसको अपने घरों से टेलीविजन पर बैठकर देखा। लगभग 500 वर्षों के संघर्ष के पश्चात भारत को अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने का अवसर आया था। बाद में जब संपूर्ण देश ने जनवरी 2021 में ही धन संग्रह करने का निर्णय किया और कहा कि ‘‘इसे समाज ही बनाएगा, सरकारी पैसे से नहीं’’। तो इस विचार का भी सर्वदूर स्वागत हुआ।
विश्व हिंदू परिषद और विचार परिवार के संगठन इसमें अग्रदूत बने। देश के लगभग 5 लाख गांवों से अभूतपूर्व रूप से व ऐतिहासिक रूप से 3400 करोड रुपए से अधिक की धनराशि एकत्र हुई। विदेशों से अभी तक भी लगातार धन आ रहा है। यह भारत की आंतरिक क्षमता को भी प्रकट करता है कि जब भारत कोरोना व चीन दोनों से लड़ भी रहा था, उस समय पर समाज अपने इतिहास का सबसे बड़ा रचनात्मक धन संग्रह (मंदिर निर्माण हेतु) भी कर रहा था और भारत का विजय सूर्य विश्व में उभरने को तैयार हो रहा था कि तभी कोरोना की दूसरी लहर ने दस्तक दी।
कोरोना की दूसरी लहरः एक सुनामी
फरवरी 2021 में भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में यह मान्य हो रहा था कि कोरोना पर लगभग विजय प्राप्त कर ली गई है। उधर 18 दिसंबर को इंग्लैंड ने कोरोना टीके का, अविष्कार कर, अनुमति दे दी थी। भारत में भी 28 जनवरी से टीके की दो कम्पनियों को अनुमति दे दी गयी - कोवेक्सीन और कोविशील्ड। व्यक्ति को वैक्सीन लगने से कोरोना से काफी हद तक सुरक्षा मिलती हैं, यह प्रमाणित हो चुका है। वेक्सीन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का तरीका है।
इसलिए देश में कुछ मात्रा में लापरवाही या धारणा हो गई कि अब कोरोना पस्त हो जाएगा। तभी मार्च मास में कोरोना की दूसरी लहर आई और सभी पूर्व अनुमानों को झूठलाते हुए अप्रैल के प्रथम सप्ताह में यह लहर एक काले सुनामी तूफान में बदल गई। और देखते ही देखते भारत पहले से भी बड़े संकट में घिर गया। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में भारत में प्रतिदिन 3 लाख से अधिक नए संक्रमित आने लगे। मृत्यु दर भी तेजी से प्रतिदिन 2000 के लगभग होने लगी। क्योंकि यह अत्यधिक तेजी से बढ़ा था, इसलिए दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक अस्पतालों में बिस्तरों की, दवाइयों की, यहां तक कि ऑक्सीजन आदि की भी कमी होने लगी और जब तक सरकार और समाज संभलता तब तक चारों तरफ हाहाकार मच चुका था। टेलीविजन पर अस्पतालों के बाहर पड़े मरीजों की दर्दनाक फोटो दिखाई देने लगी। श्मशान घाट पर लंबी लाइनें लगने लगी। लोग ऑक्सीजन के सिलेंडरों हेतु भागते, परेशान होते नजर आए। रेमडीसीविर और अन्य दवाइयों की कमी के कारण से ब्लैक मेलिंग के स्टिंग ऑपरेशन आने लगे। 800 रू. की दवाई 40,000 तक बिक रही है, ऐसा टेलिविजन समाचार दे रहे थे। और जो ताकतें भारत को नीचा दिखाने, व विश्व पटल पर भारत को न ऊभरने देने को कृत संकल्प थी, उन्होंने इस स्थिति का पूरा दुरुपयोग किया और विश्व भर के मीडिया व अन्य संस्थानों में भारत बुरी तरह से विफल हो रहा है, ऐसा चित्र रेखांकित किया। भारत की सरकार और यहां तक कि सामाजिक संगठनों के बारे में भी नकारात्मक रिपोर्टिंग, व समाचार सब तरफ छा गए। जनवरी-फरवरी में हुए कुंभ मेले को सुपर स्प्रेडर बताया गया, यद्यपि यह पूर्णतया भ्रामक तथ्य था।
आयुर्वेद, योग की बड़ी भूमिका
जब चीन में सबसे पहले यह कोरोना की महामारी फैली तो चीन ने एलोपैथी पद्धति का प्रयोग तो किया ही, किंतु साथ ही साथ उन्होंने टीसीएम यानी Traditional Chinese Medicines का प्रयोग भी बड़ी मात्रा में किया। लगभग 85 प्रतिषत मरीजों को यह TCM दी गई, उसके परिणाम भी अच्छे रहे।
देखा जाए तो भारत में भी लगभग 85 प्रतिषत लोगों ने आयुर्वेदिक काढ़े, योग, अश्वगंधा, तुलसी, गिलोय आदि का प्रयोग किया ही है, किंतु उसको किसी प्रकार की सरकारी मान्यता नहीं है। चीन ने 3100 वर्कफोर्स केवल एक ही प्रांत में इसके लिये लगा दी।
भारत में तो विश्व की सबसे पुरानी चिकित्सा परंपरा है। अभी भारत सरकार ने भी इसका मंत्रालय बनाया है। जिसमें पांच प्रकार की पद्धतियां शामिल हैं। आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्धा और होम्योपैथी। विश्व में सबसे सफल व पुरानी चिकित्सा पद्धति का श्रेय भी आयुर्वेद को है। यहां तक कि 3000 वर्ष पूर्व सुश्रुत द्वारा सफल शल्य चिकित्सा (सर्जरी) की जाती थी। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय में सुश्रुत की आदमकद मूर्ति यह संकेत करती है कि दुनिया भी शल्य चिकित्सा में भारत को प्रथम मानती हैं। विश्व भर में आयुर्वेद के कारण से करोड़ों लोग आज तक स्वस्थ हुए हैं और उसका खर्च भी बहुत कम रहता है।
भारत में आयुर्वेद का विषाल तंत्र
इस समय पर भारत में भी 3598 आयुष के हस्पताल हैं। जिनमें से 2818 आयुर्वेद के हैं। 25723 आयुष की डिस्पेंसरी हैं। भारत में कुल 7.73 लाख पंजीकृत आयुष के चिकित्सक हैं, जिनमें से 4.28 लाख केवल आयुर्वेद के हैं। भारत में 8954 आयुष की दवा निर्माता इकाइयां हैं, इनमें से 7718 आयुर्वेद की हैं। इनके अलावा बड़ी मात्रा में बाबा रामदेव, डाबर, विवेकानंद योग अनुसंधान बेंगलुरु व अन्य संस्थान आयुर्वेद व योग में गहन काम कर रहे हैं। केरल में चल रहे अनगिनत (जो पंजीकृत नहीं है) केंद्रों की तरह देशभर में बड़ी मात्रा में केंद्र हैं।
भारत में आयुर्वेद के प्रति अपार आस्था एवं श्रद्धा भी है। यहां तक कि तथाकथित बड़े-बड़े लोग भी बाहर न बताकर, घर में इन्हीं औषधियों का, योग प्राणायाम का प्रयोग करते हैं। जैसे-जैसे भारत मेकालेवादी बौद्धिक मानसिकता से निकलकर बाहर आ रहा है, वैसे-वैसे वह अन्य चीजों के अलावा योग, पंचगव्य, आयुर्वेद, सिद्धा आदि पद्धतियों का भी तेजी से प्रयोग करने लगता है।
इसी का परिणाम है कि आयुर्वेदिक औषधियों का हमारा निर्यात प्रतिवर्ष 3200 करोड़ रूपये का है। भारत की आयुर्वेद मार्किट को 300 अरब रूपये का माना जाता है। और लाखों लोंगो को रोजगार तो मिला ही है। बाबा रामदेव का ही दावा है कि उनके संस्थान के कारण लगभग 5 लाख लोग रोजगार पाते हैं।
यद्यपि सरकारी स्तर पर (एलोपैथी चिकित्सा पद्धति वाले) और अंतरराष्ट्रीय जगत पर भी ये लोग आयुर्वेद का उपचार न होने देने में अड़े ही रहे। यहां तक कि उन्होंने आयुर्वेदिक पद्धति को इम्यूनिटी बूस्टर के नाते से भी मान्यता नहीं दी। फिर भी यह सर्व ज्ञात है कि आयुष मंत्रालय से लेकर जनसामान्य तक करोड़ों लोगों को इससे लाभ हुआ और इस अवधि में योग, आयुर्वेद की औषधियों का प्रयोग कई गुना बढ़ गया। स्वयं प्रधानमंत्री व आयुर्वेद के मूर्धन्य लोगों ने जो संभव था, वह सब किया।
स्वदेशी जागरण मंच के कार्यकर्ताओं ने देश भर में विशेषकर कर्नाटक व हरियाणा में बड़ी मात्रा में आयुर्वेदिक औषधियों के प्रसार-प्रचार में भूमिका निभाई। हरियाणा में जहां मार्च 2020 से ही स्वास्थ्य रक्षा अभियान आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय के साथ मिलकर चलाया गया, तो वहीं कर्नाटक में आयुर्वेदिक औषधियों (प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली) का लाखों की मात्रा में वितरण व बिक्री की गई। आरोग्य भारती, विश्व आयुर्वेद परिषद, सेवा भारती ने तो संगठित रूप से संपूर्ण देश में इसके लिए व्यापक अभियान चलाया ही।
कोरोना की दूसरी लहर की चुनौती
फरवरी 2021 आते-आते भारत में कोरोना के नए रोगी 11-12 हजार प्रतिदिन से भी कम होने लगे। प्रतिदिन मृत्यु भी 200 से कम आ चुकी थी। सब प्रकार की परिस्थितियां नियंत्रण में थी। इसे देखते हुए ही डॉक्टर हर्षवर्धन जी ने मार्च के प्रारंभ में एक प्रेस वार्ता में घोषणा की “भारत में कोरोना महामारी अब समाप्ति की ओर है।“ किंतु प्रकृति की, ईश्वर की, इच्छा अभी भारत की एक और परीक्षा लेनी बाकी थी। और मार्च के अंत में जो कोरोना के केस बढ़ने शुरू हुए तो अप्रैल के पहले सप्ताह में प्रतिदिन के संक्रमितों का आंकड़ा इतनी तेजी से बढ़ा कि सब हतप्रभ रह गए। दूसरी लहर (सरकारी स्तर पर घोषित नहीं) की भयावहता व मात्रा इस बार अलग प्रकार की थी। न केवल आंकड़ा काफी बड़ा आ रहा था।
पिछली बार जो मौतें हुई थीं, उनमें 80 प्रतिषत से अधिक मौतें, 60 वर्ष या इससे ऊपर की आयुवर्ग की थीं। किंतु अब यह 40 से 60 के बीच में अधिक संक्रमण व मृत्यु हो रही थी। फिर इस बार संक्रमण की दर इतनी तेज थी कि दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या कम पड़ गई, दवाइयां, आक्सीजन सब कम पड़ गई। यहां तक कि ऑक्सीजन की सप्लाई तो बड़े-बड़े अस्पतालों में भी कम पड़ने लगी। अप्रैल के चौथे सप्ताह तक प्रतिदिन नए संक्रमितों का आंकड़ा 4 लाख तक छूने लगा। अस्पतालों के बाहर, स्ट्रेचर पर, चारपाई पर, भूमि पर, यहां तक की ऑटो और टैक्सी में ही ऑक्सीजन या अन्य इलाज ले रहे मरीजों की फोटो टेलीविजन पर सर्वदूर आने लगी। संपूर्ण देश में चिंता व भय व्याप्त हुआ।
राष्ट्रीय चारित्र्य का अभाव
इस समय पर जब संपूर्ण देश को एकजुट होकर परिस्थिति को संभालना था, उस समय पर भारतीय राजनीतिक दलों, वाम विचार प्रेरित किसान व मजदूर संगठनों, यहां तक कि उच्च संस्थानों तक में राष्ट्रीय चरित्र्य का अभाव दिखा। राजनीतिक दल इस संकट को भी अपने दल के लाभ के लिए मोड़ने के लिए सत्ताधारी दल के ऊपर आक्रमण करने में ही अपनी समय व ऊर्जा लगाने लगे। जिस राज्य में जो विपक्ष में था, वह सत्ता पक्ष को कोसने लगा। सोशल मीडिया प्रमुख हथियार बन गया, सरकार व तंत्र (सिस्टम) को कोसने का।
यही नहीं न्यायालयों तक ने भी भावना में बहकर या अन्य कारण से अमर्यादित टिप्पणियाँ कीं। मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि “चुनाव आयोग पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए“ (बंगाल चुनाव के बारे में)। बाद में सुप्रीम कोर्ट को सफाई देनी पड़ी और कहा कि मद्रास हाईकोर्ट ने अनुचित मौखिक टिप्पणी की है। दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार के स्वास्थ्य के अधिकारियों को जेल भेजने का हुक्म दे दिया, उसे भी सुप्रीम कोर्ट को रोकना पड़ा। हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीशों में तो मानो होड़ लग गयी कि कौन कितना सख्त टिपणी सरकारों और अधिकारियों के खिलाफ देता है। जबकि चाहिए यह था कि सामाजिक संगठन, स्वायत्त संस्थान, सरकार, प्रशासन, विभिन्न राजनीतिक दल, यहां तक कि धार्मिक संगठन भी एक साथ आकर परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए एकजुट होते। उसके स्थान पर आरोप-प्रत्यारोपो की प्रक्रिया अधिक चलती दिखाई दी। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी गैर जिम्मेदाराना तरीके से रिपोर्टिंग कर रहा था।
भारतः विष्व में सबका मित्र
लेकिन इस सबके बीच में भी भारत ने अपनी अंतर्निहित शक्ति का परिचय दिया और सब प्रकार के प्रबंध होने लगे। सेना ने भी मोर्चा संभाला। रेलवे मंत्रालय ने विशेष ऑक्सीजन एक्सप्रेस ग्रीन कॉरिडोर रेल चलानी शुरू की। जिससे झारखंड व अन्य संस्थान जहां से भी (ऑक्सीजन स्टील प्लांटो से अधिक मिलती है) मिल सकती थी, उसको उठाकर दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, मुंबई ले जाया जाने लगा।
विश्व भर से भी भारत की सहायता हेतु 70 से अधिक देश आगे आए। यह भारत की विश्व को दी गई सहायता व वैश्विक प्रभुत्व का ही परिणाम था। जो अमेरिका शुरू में आनाकानी कर रहा था, उस पर भी दबाव ऐसा बना कि राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की “क्योंकि भारत ने भी अमेरिका की विषम परिस्थिति में साथ दिया था, इसलिए हम भी भारत का इस विषम परिस्थिति में सहयोग देंगे।“ और सहायता तुरंत भेजी भी। क्या जर्मनी, क्या फ्रांस, क्या ऑस्ट्रेलिया यहां तक कि ऑस्ट्रिया जैसे छोटे देश ने भी सहायता देने में देर नहीं की। जल, थल और वायु सेना, इन तीनों ने रेलवे और हवाई एजेंसियों का सहयोग लेते हुए 10 से 12 दिन में ऑक्सीजन सहित सब प्रकार के आवश्यक प्रबंध कर दिए और यह भयावह दृश्य दो सप्ताह से अधिक नहीं चल पाया।
सारे देश भर में अलग-अलग स्तर के लॉकडाउन लग चुके थे और मई 2021 का द्वितीय सप्ताह आते-आते भारत में संक्रमण दर तेजी से घटने भी लगी।
वैक्सीनः कोरोना के विरूद्ध प्रभावी हथियार
2020 के प्रारंभ में जब यह महामारी षुरू हुई, उस समय इसके विरूद्ध न तो रोकथाम की कोई वैक्सीन थी, न ही ईलाज हेतु कोई औषधियां। सारा विष्व निहत्था हो एक अदृष्य (वायरस) जीवाणु से लड़ रहा था। किंतु वर्तमान के आधुनिक विज्ञान तंत्र व वैज्ञानिकों को इस बात का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही इसकी सफल रोकथाम करने वाली वैक्सीन का अविष्कार कर लिया।
र्स्वप्रथम इंग्लैंड ने 18 दिसंबर 2020 को अमेरिका की फायजर वैक्सीन को आपातकालीन अनुमति दी, फिर मार्डना व आक्सफोर्ड की एस्अ्राजेनिका को। भारत ने फरवरी के दूसरे सप्ताह में पूर्णतया स्वदेषी वैक्सीन कोवैक्सीन विकसित कर ली। एस्अ्राजेनिका की भी वैक्सीन बनती भारत में ही है कोविषील्ड। लगभग इसी समय तक रूस की स्पूतनिक, चीन की सिनोवेक, अमेरिका की ही जानसन एण्ड जानसन विकसित हो निर्माण प्रारंभ कर चुकी थी व मार्च माह में लगभग 100 देषों में कम-अधिक मात्रा में यह लग रही थी।
वैक्सीन के उत्तम परिणाम
जिन देषों ने वैक्सीन का प्रयोग किया, उन्हें अच्छे परिणाम मिलें। इस्त्रायल (आबादी 94 लाख) ने जब अपने वयस्क आबादी का 80 प्रतिषत वैक्सीनेषन किया तो वहां यह बीमारी लगभग समाप्त हो गई। इसी तरह इंग्लैंड ने 65 प्रतिषत वयस्कों को मई प्रथम सप्ताह तक वैक्सीन दी गई, तो वहां भी प्रतिदिन संक्रमण 1000 तक व मृत्यु 18-20 तक नीचे आ गई है। यही बात अमेरिका में भी है, जहां 62 प्रतिषत वैक्सीन लगने पर संक्रमण व मृत्यु 80 प्रतिषत तक कम हो गई। यही प्रमाण प्रतिषत अन्य देषों में भी है।
भारत ने अपनी दोनों वैक्सीन तेजी से लगानी षुरू की, 9 मई के तीसरे सप्ताह तक 19 करोड़ लोगों को टीका लगा दिया। किंतु यहां वैक्सीन के विषय में विष्व में एक नया आयाम उभरा और वह है पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन की उपलब्धता। चूंकि अमेरिका-इंग्लैंड की 5 बड़ी कपंनियों ने यह विकसित की, अतः उन्होंने इसे पेटेंट करवा लिया। याने सर्वाधिकार सुरक्षित। उसक मूल्य भी उन्होंने अपने हिसाब से तय किया। (काफी अधिक - तालिका देखें)। तब भारत सरकार ने भी बाद में स्वदेषी जागरण मंच ने भी इस समस्या के समाधान का मार्ग खोजना प्रारंभ किया।
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कोविड से भी खतरनाक पेटेंटधारकों की स्वार्थवृत्ति
विश्व में 16.25 करोड़ व भारत में 2.5 करोड स अधिक कोरोना संक्रमित लोग जीवन मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। विश्व की शेष जनसंख्या में भी अधिकांश जनता इस प्राणान्तक महामारी के भय से त्रस्त है। कोरोना से मृत 35 लाख लोगां के करोड़ों परिवारीजन गंभीर शोक में निमग्न हैं। लेकिन, इस रोग के उपचार की औषधियों व रोकथाम हेतु उपलब्ध टीकों के पेटेंटधारी उत्पादक अपने स्वार्थवश इन औषधियों की सुलभता के विरूद्ध हृदयहीन बन कर बैठे हैं। यदि ये पेटेंटधारी मौत के सौदागर की भांति अपने एकाधिकार को अक्षुण्ण रखने के स्थान पर इन औषधियों व टीकों की प्रौद्योगिकी, स्वेच्छापूर्वक सर्वसुलभ कर इनकी उत्पादन सामग्री सभी इच्छुक उत्पादकों को सुलभ कर देंगे तो मानवता को इस संत्रास से मुक्ति दी जा सकेगी। इसलिए इन टीकों व औषधियों को पेटेंट मुक्त किया जाना, इनके उत्पादन की प्रौद्योगिकी का निःशुल्क या अल्पतम रॉयल्टी पर हस्तान्तरण और इनके उत्पादन की सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति परम-आवश्यक है।
अन्यायपूर्ण असमानता
अब तक एक अरब में से अधिकांश टीकों का उपयोग धनी देशों ने किया है। अफ्रीका, एशिया व लेटिन अमेरिका के कम आय वाले देशों ने मुश्किल से कोई टीका प्राप्त किया होगा। भारत में भी टीकों व औषधियों के अभाव में अधिकांश जनता भयावह सत्रांस से त्रस्त है। आज 36 देशों में संक्रमण की दर बढ़ रही है। फाइजर का ही इस टीके की मुनाफाखोरी से 7 अरब डालर (52,500 करोड़ रू. तुल्य) लाभ रहने की अपेक्षा है।
इन टीकों के विकस में बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन से सहायता दी गयी है। अमेरिका में छः टीका कंपनियों को 12 अरब डालर (रू. 90,000 करोड़ तुल्य) की सार्वजनिक सहायता मिली है। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा जेनेका का कोविषील्ड व भारत बायोटेक का कोवेक्सिन भी सरकारी सहायता से विकसित हुआ है। ऐसे में यह तर्क देना कि इन टीकों पर इन कंपनियों ने भारी व्यय किया है, इसलिए इनका एकाधिकार आवश्यक है, कितना उचित है?
भारत की मानवोचित पहल को वैश्विक समर्थन
इन औषधियों व टीकों को पेटेंट मुक्त किये जाने के लिए विश्व व्यापर संगठन में भारत व दक्षिण अफ्रीका ने अक्टूबर 2020 में ही प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया था। छः माह तक 10 बैठकों में प्रतिरोध के उपरान्त जन दबाव के आगे झुकते हुए अमेरिका व अधिकांश औद्योगिक देशों ने टीकों को पेटेंट मुक्त करने के प्रस्ताव का 5 मई को विश्व व्यापार संगठन की जनरल काउन्सिल में समर्थन दिया। अब यह प्रस्ताव ट्रिप्स काउन्सिल की 8-9 जून की बैठक में जाएगा। उसके उपरान्त मन्त्री स्तरीय बैठक से अनुमोदन भी अपेक्षित होगा। तब भी केवल टीकों की पेटेंट मुक्ति ही सम्भव हो सकेगी। इनके उत्पादन हेतु प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण भी आवश्यक होगा। कोविड की औषधियों व टीकों को पेटेंट मुक्त करने के भारत के प्रस्ताव का 750 सदस्यों की यूरोपीय संसद ने भी समर्थन दिया है, जबकि यूरोप के कुछ राष्ट्राध्यक्ष व यूरोपीयन कमीशन ने जी-20 की बैठक में इसका विरोध किया है।
प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण की विधिसम्मत अनिवार्यता
विश्व व्यापार संगठन के 1995 के ‘‘बौद्धिक सम्पदा अधिकारों पर हुए समझौते’’ जिसे ‘‘एग्रीमेण्ट आन ट्रेड रिलेटेड इण्टेलेक्चुअल राइट्स’’ या ‘ट्रिप्स समझौता’ कहा जाता है में उसकी धारा 7 में प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण का वैधानिक प्रावधान है। इसलिए औद्योगिक देशों को प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण करवाने के इस धारा 7 के दायित्व का निर्वहन करना चाहिए। वैसे पेटेण्ट मुक्ति का यह निर्णय टीकों के सन्दर्भ में ही हुआ है। कोरोना की चिकित्सा की औषधियों के उत्पादन को पेटेंट मुक्त नही किए जाने से पेटेण्टधारक से इतर उत्पादकों को इन औषधियों के उत्पादन के लिए ‘अनिवार्य अनुज्ञापन’ (कम्पल्सरी लाइसेसिंग) एक विकल्प हो सकता है। भारत के पेटेंट अधिनियम की धारा 84,92 व 100 में अनिवार्य अनुज्ञापन के प्रावधान हैं।
अनिवार्य अनुज्ञापनः पेटेंटधारकों के शोषण पर अंकुश
यकृत व गुर्दे के कैंसर की जर्मन कंपनी ‘बायर’ का ‘नेक्सावर’ नामक इंजेक्शन 2,80,000 रूपये का आता था। उसे मात्र 8,8,00 रु. में बेचने का प्रस्ताव कर एक भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ ने भारत के मुख्य पेटेंट नियंत्रक को आवेदन कर कम्पल्सरी लाइसेंस प्राप्त कर लिया। आज नेक्सावर भारत के बाहर 2,80,000 रु. में मिलता है, वहीं भारत में यह उसकी मात्र तीन प्रतिशत कीमत पर मिल जाता है। दुर्भाग्य से इस अनिवार्य अनुज्ञा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर यूरो-अमेरिकी देशों का इतना दबाव आया कि उन नियंत्रक को पद छोड़ना पड़ गया। अभी यह भी गर्व का विषय है कि भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ फार्मा ने पुनः अमेरिकी कंपनी ‘एली लिलि’ की कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के समानांतर उत्पादन हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के लिए आवेदन कर दिया है। आशा है शीघ्र ही कोरोना की शेष औषधियों के उत्पादन के लिए कई कंपनियां स्वैच्छिक अनुज्ञापन के लिए आगे आएंगी।
वर्तमान में कम्पल्सरी लाइसेंस आप्रासंगिक
वर्तमान में अनिवार्य अनुज्ञापन या कम्पल्सरी लाइसेंस से कोई समाधान संभव नहीं है। रेमिडोसिविर के लिए ‘जी लीड’ नामक कंपनी ने भारत में सात कंपनियों को एवं बेटिसिटिनिब के उत्पादन के लिए नाटको फार्मा को स्वैच्छिक अनुज्ञा अर्थात वोलंटरी लाइसेंस दे दिया है। इनको छोडकर किसी औषधि या टीके के समानान्तर उत्पादन के लिए आवेदन ही नहीं किया है। आक्सफॉर्ड-एस्ट्राजेनेका की स्वैच्छिक अनुज्ञा सीरम इन्स्टीटयूट को कोविशील्ड के लिए दिया हुआ है। भारत बायोटेक ने कोवेक्सिन के लिए तीन कंपनियों को स्वैच्छिक अनुज्ञा दे दी है। फाइजर, माडरना व जॉनसन आदि कंपनियों के अभी पेटेंट के लिए भारत में आवेदन ही नहीं किया है। ऐसे में उनके संबंध में कम्पल्सरी लाइसेंस दिया जाना संभव नहीं है। इन कंपनियों ने अभी पेटेंट कॉपरेशन ट्रीटी के अधीन ही पेटेंट ले रखा है। अभी-अभी 7 देषों की 11 कंपनियों ने कोवैक्सीन के लिए एप्लाई किया है। संभावना है कि उन्हें षीघ्र लाईसेंस मिल जायेगा।
पेटेण्टधारकों के शोषण के विरुद्ध पिछला संघर्ष
नब्बे के दशक में यूरो-अमेरिकी कंपनियां एड्स की औषधियों की कीमत इतनी लेती थीं कि भारत से बाहर एक रोगी की वार्षिक चिकित्सा लागत 15,000 डॉलर यानी 10 लाख रुपये से अधिक आती थी। चूंकि 1995 के पहले भारत में ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ न होकर, केवल ‘प्रक्रिया पेटेंट’ ही होता था। इसलिए कई भारतीय कंपनियां अंतरराष्ट्रीय पेटेंटधारक की उत्पादन प्रक्रिया से भिन्न प्रक्रिया का विकास कर इन्हें बनाती व इतनी कम लागत पर बेचती थीं कि व्यक्ति की चिकित्सा लागत 350-450 डॉलर ही आती थी। इसलिए दक्षिणी अफ्रीका व ब्राजील ने भारत से इन औषधियों के आयात हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के कानून बना लिए। तब अमेरिकी कंपनियों के एक समूह ने दक्षिण अफ्रीकी कानून को ट्रिप्स विरोधी बता कर दक्षिण अफ्रीकी सर्वाच्च न्यायालय में व अमेरिकी सरकार ने ब्राजील के कानून को डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र में चुनौती दे डाली। इस पर दक्षिणी अफ्रीका में अमेरिकी दूतावास के सम्मुख सड़कों पर ऐसा उग्र प्रदर्शन हुआ कि अमेरिकी कंपनियों ने सर्वाच्च न्यायालय से व अमेरिकी सरकार ने डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र से वे मुकदमे वापस ले लिए।
इसके बाद 2001 के विश्व व्यापार संगठन के दोहा के मंत्री स्तरीय सम्मेलन के पहले दिन ही सभी विकासशील देशों ने इतने उग्र तेवर दिखाए कि गैर विश्व व्यापार संगठन के पांच दशक के इतिहास में पहली बार सम्मेलन के पहले दिन ही औषधियों के उत्पादन के लिए अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। इस प्रस्ताव के आधार पर ही भारत के पेटेंट कानून में 2005 में अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रावधान धारा 84, 92 व 100 के माध्यम से जोड़ना संभव हुआ। इसी अनिवार्य अनुज्ञापन से ‘नेक्सावर’ इंजेक्शन का भारत में उत्पादन और तीन प्रतिशत कीमत अर्थात 8,800 रु. में बेचना संभव हुआ। इसी प्रावधान के अधीन नाट्को फार्मा ने कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन किया है और शेष औषधियों की भी सर्व सुलभता के लिए भारतीय कंपनियां अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन की तैयारी में हैं।
रक्त कैन्सर की जेनेरिक औषधिः भारतीय कीर्त्तिमान
1995 के पूर्व के भारतीय पेटेंट अधिनियम के अंतर्गत 1 जनवरी, 1995 के पहले आविष्कृत किसी भी औषधि के पेटेंटधारक के नाम पेटेंट से रक्षित प्रक्रिया को छोड़कर स्व अनुसंधान से विकसित प्रक्रिया से दवा उत्पादन की स्वतंत्रता थी। ट्रिप्स समझौते के कारण ही भारत को यह नियम बदल कर ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ का नियम लागू करना पड़ा था, जिससे 1995 के बाद में आविष्कृत औषधियों के उत्पादन का वह अधिकार भारतीय कंपनियों से छिन गया। इसीलिए 1995 के पहले की हजारों औषधियां भारत में अत्यंत अल्प मूल्य पर सुलभ हैं। इन्हीं के मूल्य भारत को छोड़कर शेष देशों में 10 से 60 गुने तक हैं। रक्त कैंसर की ‘ग्लिवेक’ नामक 1994 में आविष्कृत औषधि स्विस कंपनी नोवार्टिस 1200 रु. प्रति टेबलेट बेचती थी। इसे भारतीय कंपनियों ने अपनी वैकल्पिक विधियों से उत्पादित कर मात्र 90 रु. में बेचना प्रारंभ कर दिया। आज विश्व के 40 प्रतिशत रक्त कैंसर के रोगी इस औषधि को भारत से आयात करते हैं। इस ‘ग्लिवेक’ के 1994 के मूल रसायन ‘इमेंटीनिब’ का एक ‘डेरिटवेटिव’ विकसित कर 1998 में एक और पेटेंट आवेदन कर दिया। लेकिन भारत ने मूल पेटेंट में मामूली परिवर्तन से पेटेंटों की अवधि पूरी होने पर भी उसके दुरुपयाग को रोकने हेतु पेटेंट अधिनियम की धारा 3 डी में ‘इन्क्रीमेंटल’ अनुसंधानों को पेटेंट योग्य नहीं माना। यह विवाद सर्वाच्च न्यायालय तक गया पर नोवार्टिस कंपनी हार गई और आज विश्व के रक्त कैंसर के रोगी 1200 रु. के स्थान पर 90 रु. प्रति टेबलेट की दर पर इसे क्रय कर पा रहे हैं।
ट्रिप्स आधारित पेटेंट व्यवस्था अमानवीय
ट्रिप्स आधारित वर्तमान पेटेंट व्यवस्था सर्वथा न्याय विरुद्ध और अमानवीय है। किसी भी आविष्कार के प्रथम आविष्कारक को संपूर्ण विश्व की 786 करोड़ जनसंख्या के विरुद्ध 20 वर्ष के लिए यह एकाधिकार प्रदान कर देना कि वह आविष्कारक इस आविष्कार या औषधि की कुछ भी कीमत ले, यह ठीक नहीं है। इसमें प्रथम आविष्कारक के बाद स्व अनुसंधान से या प्रथम आविष्कारक से तकनीक प्राप्त कर किसी उत्तरवर्ती उत्पादक द्वारा उस औषधि को अत्यंत अल्प कीमत पर आपूर्ति करने की दशा में सभी उत्तरवर्ती उत्पादकों से 5-15 प्रतिशत तक रॉयल्टी भुगतान का प्रावधान किया जा सकता है। वह रॉयल्टी भी तब तक दिलाई जा सकती है जब तक कि उस आविष्कारक को अपनी लागत की दुगुनी या तिगुनी कीमत न प्राप्त हो जाए। लेकिन किसी प्रथम उत्पादक को संपूर्ण विश्व के विरुद्ध ऐसा एकाधिकार देकर पूरे विश्व के असीम शोषण की छूट देना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। विशेषकर जब उसी उत्पाद या औषधि को विश्व में सैकड़ों उत्पादक व अनुसंधानकर्ता मात्र 1-3 प्रतिशत मूल्य या उससे भी कम में सुलभ करा सकें। सिप्रोलोक्सासिन पर बायर कम्पनी की पेटेंट की अवधि समाप्ति के पहले जब वह कम्पनी विश्व भर में एक आधे ग्राम की टेबलेट के 150-300 रू. तक लेती रही है। भारत में तब प्रोडक्ट पेटेंट का नियम न हो कर प्रोसेस पेटेंट का मानवोचित पेटेंट प्रावधान होने से 90 थोक दवा उत्पादक उसे 900 रू. किलो बेचते थे। उनसे सैकड़ो कम्पनियाँ उसे क्रय कर रू0 3-8 में वही आधा ग्राम (500 मिली ग्राम) की टेबलेट बेच लेती थीं। यही स्थिति 1995 के पहले की अधिकांश औषधियों के सम्बन्ध मे थी।
पेटेंट फ्री वैक्सीन हेतु वैश्विक प्रयास!
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि अक्टूबर 2020 में ही भारत सरकार ने साउथ अफ्रीका को साथ लेकर डब्ल्यूटीओ में वैक्सीन को पेटेंट फ्री रखने और उसकी सर्वसुलभता के लिए आवश्यक सहयोग करने के लिए एक प्रस्ताव रख दिया था। किन्तु अप्रैल तक 8 बैठकें होने के पश्चात भी उसमें कोई सार्थक परिणाम नहीं दिख रहा था।
इसी प्रक्रिया में अमेरिका व युरोप के कुछ गैर सरकारी संस्थानों, पूर्व सांसदों, शिक्षाविदों, कलाकारों आदि ने एक अभियान शुरू किया, पीपल्स वैक्सीन एलाएंस (people’s vaccine alliance) उसको अच्छा समर्थन भी मिलने लगा। फिर ऑक्सफॉम (OXFOM) ने भी इसके समर्थन में अभियान चलाना शुरु किया।
दिसंबर में बांग्लादेश के रहने वाले और नोबेल पुरस्कार प्राप्त ‘मोहम्मद यूनुस‘ ने ‘पेटेंट फ्री वेक्सीन फार कामन गुड’ हेतु व्यापक अभियान शुरु किया। उसके अंतर्गत उन्होंने विश्व के 200 नोबेल पुरस्कार प्राप्त तथा पूर्व राष्ट्र के अध्यक्षों से याचिका पर हस्ताक्षर करवाए। उनका कहना है कि संपूर्ण मानवता को बचाने के लिए पेटेंट फ्री वैक्सीन चाहिए ही और यह सबकी भलाई (common good) में है।
इस आवश्यक और उपयोगी मांग पर संपूर्ण विश्व में एकजुटता बनती चली गई और जो प्रारंभ में इसका विरोध कर रहे थे, वह भी समर्थन में आ जुटे। इधर भारत में भी इसके लिए प्रयत्न शुरू हो गए थे। विभिन्न न्यूज़ चैनल और प्रबुद्ध वर्ग इसकी चर्चा कर रहे थे। लेख लिखे जा रहे थे, गोष्ठियां, वेबिनार हो रहे थे। स्वदेशी जागरण मंच ने इसी समय पर ही इस विषय की आवश्यकता को समझते हुए 30 अप्रैल को वैश्विक सर्वसुलभ टीकाकरण व चिकत्सा (अभियान) (Universal access to Vaccines n Medicines) अभियान की शुरुआत कर दी।
मंच के प्रयास से पेटेंट पर भारत के लगभग 100 विशेषज्ञ तरंग माध्यम से इकट्ठे हुए और उन्होंने इसकी तुरंत आवश्यकता बताते हुए इस अभियान को विश्वव्यापी बनाने का आह्वान किया। प्रोफेसर कुरियन, प्रोफेसर प्रबुद्ध गांगुली, धनपत राम अग्रवाल, प्रो. भगवती प्रकाश, डॉ. अष्वनी महाजन, डॉ. चंद्रिका आदि ने अपने विचार प्रस्तुत किए।
9 मई को स्वदेशी जागरण मंच के आह्वान पर दिल्ली सहित देशभर में इसके लिए प्रदर्शन किये गए। यद्यपि लॉकडाउन था तो भी अपने तरीके से, घरों के बाहर खड़े होकर, आवश्यक दूरी रखते हुए, यह प्रदर्शन हुए, जिसे समाचार पत्रों व चेनलों ने प्रमुखता से स्थान दिया।
11 मई को पोखरण दिवस पर (जब भारत ने 1998 में परमाणु विस्फोट किया था) संपूर्ण भारत में हस्ताक्षर अभियान प्रारंभ किया। 20 लाख हस्ताक्षर लक्ष्य लेकर यह मास भर चलने वाला अभियान है। जिसमें अभी तक 4 लाख लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। उधर भारत के 900 विश्वविद्यालयों के प्रमुख कुलपति (वाइस चांसलर) एवं अन्य शिक्षाविद, अधिवक्ता, डॉक्टर, व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी एक ऐसी ही याचिका पर हस्ताक्षर का अभियान लिया है। जिसमें 1000 भारत के प्रमुख शिक्षाविद, पेटेंट फ्री वैक्सिंन के लिए डब्ल्यूटीओ, बड़ी फार्मा कम्पनियों और विभिन्न सरकारों से वेक्सिन की सर्वसुलभता के लिये आग्रह कर रहे हैं।
अभियान के सुखद परिणाम
इस अभियान के सुखद परिणाम आने शुरू हो गए हैं। मई के प्रारंभ में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाईडन, जो अभी तक चुप थे वह समर्थन में आ गए। उसके पश्चात विश्व के 120 देश भी इसके समर्थन में आ गए हैं। सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब यूरोपियन यूनियन की पार्लियामेंट में पेटेंट फ्री वैक्सीन को समर्थन देने के लिए प्रस्ताव पारित कर दिया गया। ऐसा ही प्रस्ताव ब्राजील की पार्लियामेंट ने भी पारित किया है। जापान, चीन और जर्मनी, जो अभी तक इसका समर्थन नहीं कर रहे थे, वह भी लचीले रुख अपनाने को मजबूर हुए हैं। यहां तक कि बिल गेट्स जो प्रारंभ से ही पेटेंट फ्री वैक्सीन के मुखर विरोधी थे, अब झुके हैं और सभी को वैक्सीन मिले, इस हेतु सहयोग करने का आश्वासन दे रहे हैं। यहां तक कि उन चार बड़ी वेक्सीन निर्माता कंपनियों के (बयान) स्वर में भी फर्क आने लगा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरेक्टर जनरल ज्नकतव ळीमइतपलेंपे पहले ही कह चुके हैं कि “यदि पेटेंट फ्री करने का यह वक्त नहीं है, तो फिर कौन सा समय आएगा।“
अमेरिका के जोसेफ स्टिगलिस (नोबेल विजेता) ने एक लंबे लेख में कहा “बड़ी फार्मा कंपनियों को इस महामारी को लंबा करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।“ अन्ना मैरियट (स्वास्थ्य सलाहकार आक्सफाम) ने कहा है कि यदि नहीं तो “जब तक सब सुरक्षित नहीं, तब तक कोई भी सुरक्षित नहीं।“
ऐसा लग रहा है कि विश्व एक सुखद निर्णय की ओर बढ़ रहा है। भारत सहित संपूर्ण विश्व में जनमत को देखते हुए डब्ल्यूटीओ, वैश्विक सरकारें और बड़ी फार्मा कंपनियां न केवल (चाहे 3 वर्ष के लिए ही) पेटेंट फ्री वैक्सिंन के लिए तैयार हो रही हैं, बल्कि उसकी तकनीकी हस्तांतरण, कच्चा माल और उत्पादन में अन्य सुविधाएं देने हेतु तैयार होने की भी संभावनाएं बढ़ गई है।
भारत ने भी कोवैक्सीन बनाने हेतु अन्य तीन कंपनियों को पहले ही फार्मूला व अन्य सुविधाएं दिलवा दी हैं। कोरोना की दवाइयों के लिए भी अन्य कंपनियों को वॉलंटरी लाइसेंस दे दिया है। इससे दिसंबर तक भारत में, और अगले वर्ष के मई-जून तक विश्व भर में इस करोना महामारी पर नियंत्रण पाने की संभावनाएं काफी प्रबल हो गई हैं।
आपदा को अवसर में बदलोः भारत बने वैश्विक फार्मेसी का महाकेंद्र!
हमें कोरोना आपदा को अवसर में बदलने का विचार भी करना चाहिए। दवा निर्माण के विषय में भारत की पहले से ही अच्छी स्थिति है, अभी भी हमें विश्व की फार्मेसी कहा जाता है। भारत ने कोरोना की दवाइयां, मास्क, पीपीई किट विश्व के 150 देशों में भी भेजी हैं। भारत निर्मित वैक्सीन 72 देशों में गई है। जोकि गुणवत्ता में भी उत्तम है, और विश्व की सबसे सस्ती भी (210 रू. प्रति खुराक) है। इससे वैश्विक स्तर पर भारत को अपने आभामंडल बढ़ाने में भी सहायता हुई है। वैसे भी हमारे निर्यात में तीसरा सबसे बड़ा हिस्सा औषधियों का है। अमेरिका में सर्वाधिक औषधियां हमारी ही जाती हैं। भारत का औषधीय उद्योग इस समय लगभग 41 बिलियन डॉलर का है। जिसके 2030 तक 130 बिलियन डॉलर तक होने की संभावना है। अमेरिका के एफडीए से मान्यता प्राप्त भारत में 262 इकाइयां हैं। भारत में हमारे पास इस विषय की कुषल श्रम, कच्चा माल व सबसे बड़ा स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति देखने का सात्विक दृष्टिकोण है। केवल एक ही बात है कि एपीआई (Active Pharmaceuticals Ingredients) में अभी हम काफी मात्रा में चीन पर निर्भर हैं। इसलिए भारत सरकार ने जिन 10 उद्योगों के लिए प्रोडक्शन लिंकड इंसेंटिव दिया है, उनमें से एक फार्मा भी है। यदि हम पूरी दुनिया की 1200 करोड़ वैक्सीन की आवश्यकता में से आधी भी देने में सफल हुए, तो स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में भारत विष्व की आशा व विश्वास का केंद्र बन सकता है, इससे भारत की आर्थिक समृद्धि व रोजगार के भी नए अवसर बनेंगे।
निष्कर्षः भारत को करने चाहिएं यह पांच आवश्यक कार्य -
- भारत को स्वास्थ्य सेवाओं, सुविधाओं का बड़ा केंद्र बनाना होगा। जिससे भविष्य में अपनी ही नहीं, विश्व की आवश्यकताओं को भी पूरा किया जा सके।
- भारत को न केवल उत्तम और सस्ती, बल्कि यथाशीघ्र अपनी और विश्व की आवश्यकता के लिए पर्याप्त वेक्सीन निर्माण कर विकासशील देशों तक पहुंचानी होगी।
- जो कोविड-19 के कारण से 2 वर्ष में अस्वस्थ हुए, जिनके परिजन मित्र आदि मृत्यु को प्राप्त हुए, जो बच्चे अनाथ हुए या मां-बाप, जिनको बच्चों का अवसाद हुआ, या परिस्थिति वश मानसिक अस्वस्थ हुए उन सबकी संभाल (रिहैबिलिटेशन) करने की योजना सोचनी चाहिए।
- लगातार लाकडाउन आदि से अर्थ तंत्र बहुत कमजोर हुआ है। अतः आर्थिक संरचना और रोजगार का व्यापक व बड़े प्रमाण पर पुनर्निर्माण, सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखना होगा।
- संपूर्ण समाज में उत्साह और सकारात्मकता जगाते हुए विश्वास निर्माण करना होगा कि हम फिर से न केवल खड़े होंगे, बल्कि विश्व का मार्गदर्शन करने की क्षमता भी प्राप्त करेंगे।
Suraj Bhardwaj
9899225926
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