Tuesday, June 7, 2011

भू-अधिग्रहण के खतरे: स्वदेशी नोट्स


भूमि अधिग्रहण अधिनियम
उड़ीसा, झारखंड,महाराष्ट्र, कर्नाटक,पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम के बाद उत्तरप्रदेश का चंदौली और भट्टा परसौल गांव भूमि अधिग्रहण अधिनियम की आग में झुलसा रहा है। इस गांव के किसानों के आंदोलन ने एक बार फिर बता दिया है कि विकास परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण का मामला कितना नाजुक हैं।
एक ऐसे देश में जो बड़े पैमाने पर खाद्य असुरक्षा की मार झेल रहा है। खेती की जमीन जैसे दुर्लभ संसाधन को भवन निर्माताओं या दूसरी परियोजनाओं के लिए लुटाए जाने के दुष्परिणामों की देश के नीति नियंता लगातार अनदेखी कर रहे है। औद्योगिक विकास विदेशी पूंजी निवेश और सकल घरेलू उत्पादन की चिंता में दुबली होती हमारी सरकारों ने अन्नदाता किसानों की लगातार अनदेखी की है। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते खेती का रकबा लगातार घटता जा रहा है। विशेष अर्थिक क्षेत्र (सेज) के नाम पर खेती की जमीन हड़पी जा रही है। खेती की जमीन पर ही रियल इस्टेट का बाजार गर्म हो रहा हैं रियल इस्टेट, शेयर बाजार, कमोडिटीज एक्सचेंज और अन्य तरह के सट्टा बाजारों के विकास को केन्द्र में रखकर ही आथ्रिक नीतियाँ बनाई जाएंगी, तो भयंकर दुष्परिणाम सामने आएंगे। अभी हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ’’ऑक्सफेम’’ ने अपनी रिपोर्ट कहा है कि 1990 से 2005 के दौरान भारत में भूखों की संख्या साढ़े छः हजार करोड़ बढ़ गई हैं। 1947 में भारत की आबादी 33 करोड़ 60 लाख थी। आज 1.2 बिलियन है और 2060 तक बढ़कर 1.7 बिलियन हो जाएगी, लेकिन हमारे पास जमीन उतनी ही है। खेती का रकबा लगातार घट रहा है। ऐसे में क्या हालात बनेंगे ? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के बोलबाले के बीच खेती को जिस गहरे संकट में धकेल दिया गया है। उसे देखते हुए यह ताज्जुब की बात नहीं है कि किसानों की नई पीढ़ी अपनी जमीन को मुख्यतः अचल संपत्ति के रूप में ही देखती है। दूसरी ओर सभी सरकारें 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर लोगों की उपजाऊ जमीन छीन रही है, जिसे नाम दिया जा रहा है, ’’अधिग्रहण’’। यह अधिग्रहण वह व्यवस्था है, जिसमें किसान को उस अर्थ में उसकी जमीन का मालिक नहीं माना जाता है, जिस अर्थ में पूंजीपति या उद्योगपति को उसकी संपत्ति का मालिक माना जाता है। इसलिए इस साम्राज्यवादी कानून का सहारा लेकर किसान से तो उसकी जमीन वास्तविक या दिखावटी सार्वजनिक हित के नाम पर छीन कर अधिग्रहण का नाम दिया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी सरकार ने आज तक किसी बंद पड़ी औद्योगिक इकाई की जमीन को किसी सार्वजनिक हित की परियोजना के लिए अधिग्रहित की है ?
इस मामले में राज्य सरकारों से ज्यादा हैरान करने वाली केन्द्र सरकार की चुप्पी हैं। किसानद्रोही माहौल का ही यह नतीजा है कि देश को खाद्यान्य के मामले में आत्मनिर्भर बनाने वाली उपजाऊ जमीनें तथाकथित विकास की भेंट चढ़ रही है। कहा जा सकता है कि किसानों की यह हालत देश की कृषि नीति के साथ-साथ विकास नीति की विफलता के कारण भी है, जिन्हें सामाजिक और आर्थिक समता का दर्शन खटकता है। सरकार के इसी रवैये के चलते अब सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा है कि केन्द्र सरकार को जमीन मालिकों के लिए एक सुविचारित और न्यायोचित मुआवजा नीति बनानी चाहिए।
हालांकि भट्टा परसौल आंदोलन का असर यह हुआ है कि भूमि अधिग्रहण व पुर्नवास के जो दो संशोधित विधेयक काफी समय से अटके हुए थे, उन्हें आगे बढ़ाने में अब तेजी आ गई हैं संसद के मानसून सत्र में इसे पेश करने के लिए अंतिम रूप दिया जा रहा है। हरियाणा व गुजरात में हाल ही में भूमि अधिग्रहण के नियम बनाए हैं मध्यप्रदेश सरकार ने भी कहा है कि किसानों की उपजाऊ जमीन अधिग्रहण के नाम पर जबरन नही छीनी जाएगी।
सौ साल से ज्यादा पुराने भू-अधिग्रहण अधिनियम 1894 की जगह लेने वाले भू-अधिग्रहण संशोधन अधिनियम के प्रारूप को सरकार अंतिम रूप से देने में लगी हैं। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.एस.सी) ने सिफारिश की है कि विकास योजनाओं के लिए अधिग्रहित भूमि के लिए उसके मालिक को पंजीकृत मूल्य से छः गुना अधिक कीमत मिले और यदि निजी क्षेत्र के लिए जमीन अधिग्रहित की जाय तो इसके लिए प्रभावित होने वाले 75 प्रतिशत लोगों की लिखित मंजूरी अनिवार्य होगी। क्या यह समस्या का समाधान है ?
विचारणीय बिन्दु:-
1. इसी तरह अगर खेती का रकबा घटता रहा तो क्या हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रह पाएंगे ?
2. उपजाऊ जमीन पर कांक्रीट के जंगल खड़े होने से क्या देश का पर्यावरणीय संतुलन नही बिगड़ेगा ?
3. खेती योग्य जमीन कम हो जाने से गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ेगा और हमारी ग्राम आधारित अर्थ व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पेड़गा ?
4. पर्वतीय क्षेत्रों के वन आच्छादित क्षेत्र अगर तथाकथित विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ गए तो भूस्खलन, बाढ़, सूखे का खतरा बढ़ जाएगा तथा जैव विविधता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
5. गांवो में बटाईदार, खेत, मजदूर, दस्तकार, कारीगर और अन्य सेवा कार्यो में लगे अनेक परिवारों के पास कानूनी रिकॉर्ड जमीन नहीं होती है। अगर गांव की परंपरागत व्यवस्था टूटेगी तो वे बेरोजगार हो जाएंगे।

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