Sunday, February 5, 2012

अध्याय 4भारत के समक्ष चुनौतिया

भारत के समक्ष चुनौतिया भयंकर गरीबी और लगातार बढती जा रही असमानता
भले ही आज दुनिया में भारत को एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में पहचान मिल रही है और निश्चित रूप से भारत इस और अग्रसर भी है परन्तु सचाई यह भी है की आज भी भारत के ज्यादतर लोग भयंकर गरीबी की मार झेल रहे हैं तथा असमानता बढती जा रही है , जो भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने के रस्ते में सब से बड़ी चुनौती है जिस का हमें सामना करना है | विश्व बैंक की 2005 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत के 42 % लोग अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा ( $ १.२५ प्रतिदिन ) से नीचे हैं हालाकि यह संख्या 1981 ( 60 प्रतिशत थी ) के मुकाबले काफी कम है | NATIONAL COMMISSION FOR INTERPRISES IN THE UNORGANISED SECTOR की 2007 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत के 77 % लोग ( 836 मिलियन )प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम में गुजारा कर रहे हैं जो इस बात की और इंगित करता है की देश के बहुगिनती लोग कैसी भयंकर गरीबी में जी रहे हैं | UNDP की मदद से OXFORD POVERT AND HUMAN DEVELOPMENT INITIATIVE द्वारा २०१० ही में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है की भारत के आठ राज्यों बिहार , छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश , झारखण्ड , उत्तरप्रदेश , पश्चिम बंगाल , ओड़िसा तथा राजस्थान में 421 मिलियन लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं जोकि अफ्रीका के 26 सबसे गरीब देशो की गरीब संख्या से भी ज्यादा हैं | यह अनुमान Multidimensional Povety Index की मदद से लगाया गया है जिसे 1997 से HUMAN DEVELOPMENT REPORT बनाने के लिए प्रयोग किया जा रहा है |
ऐसा नहीं है है की भारत में गरीबी को समाप्त करने के प्रयास नहीं किये जा रहे हैं | आज़ादी के बाद से निरंतर सभी सरकारे गरीबी को समाप्त करने के बड़े बड़े दावे करती रही हैं , कई बार गरीबी हटायो का नारा दे कर वोट हासिल किये जाते रहे हैं परन्तु गरीबी जस की तस बनी हुई है | निश्चत रूप से आज़ादी के बाद गरीबी के प्रतिशत में कुछ कमी आई है | वैश्वीकरण व् उदारीकरण की नीतियों के पैरोकार यह दावा करते रहते हैं की 1992 के बाद लगातार गरीबी में कमी आई है और आर्थिक सुधारों के कारन से आने वाले समय में इस में और तेजी आएगी | सरकार के योजना आयोग के आंकड़े भी गरीबी में लगातार कमी की बात कर रहे हैं , गरीबी रेखा से नीचे रहने वालो की संख्या 1977 -78 में 51 .3 % थी जो 2005 -6 में 27 .5 % रह गयी है | परन्तु पी . साईनाथ जैसे कई चिन्तक इस बात की और भी इशारा कर रहे हैं की अगर गरीबी सच मुच में कम हो रही है तो फिर भारत का Human Development Index में स्थान 122 ( 1992 में ) से गिर कर 132 ( 2008 में ) तक कैसे पहुँच गया है |
World Hunger Index में 119 देशो में भारत का स्थान 94 वा है जो यह दर्शाने के लिए काफी है की भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे रहते हैं | इस गरीबी और भूख का ही परिणाम है की दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषण के शिकार लोग ( 230 मिलियन ) भारत में ही हैं | आज दुनिया के 42.5 % कुपोषित बच्चे भारत में हैं | जबकि विश्व के कम् भार वाले 49 % बच्चे भी अकेले भारत में ही है | आज जब हम यह सोच रहे हैं की भारत कैसे महाशक्ति बन कर दुनिया में उभरे , यह सोचना बहुत जरुरी है की कुपोषित और भूख से पीड़ित बच्चो कैसे आने वाले समय में भारत को शक्तिशाली बनाने में अपना योगदान देंगे | निश्चित रूप से हमें भूख , गरीबी और असमानता की इस चुनौती से निपटाना ही होगा |

लगातार बढती बेरोजगारी
भारत लगातार बढती हुई बेरोजगारी से जूझ रहा है | लगातार बढती जनसँख्या के कारण श्रम शक्ति हर साल बढती जा रही है परन्तु उस अनुपात में रोजगार के साधन न बड़ने के कारण बड़ी संख्या में युवा बेरोजगार होते जा रहे हैं | अगर हम पिछले कुछ वर्षो की बेरोजगारी की दर का अध्यन करें तो ध्यान में आता है की बहुत सारे दावों के बावजूद भी बेरोजगारी लगातार बढती ही जा रही है |

YearUnemployment rateRankPercent ChangeDate of Information
2003 8.80 %110 2002
2004 9.50 %1057.95 %2003
2005 9.20 %83-3.16 %2004 est.
2006 8.90 %91-3.26 %2005 est.
2007 7.80 %92-12.36 %2006 est.
2008 7.20 %89-7.69 %2007 est.
2009 6.80 %85-5.56 %2008 est.
2010 10.70 %12157.35 %2009 est


वर्तमान में देश में बेरोजगारी की दर 10.7 % तक पहुँच चुकी है जोकि अमरीका ( ९.६ % ), चीन ( ४.१ %), जापान ( ५.१ %) के मुकाबले में कहीं ज्यादा है |

भारत सरकार के Labour Bureau द्वारा करवाए गए Employment - Unemployment survey 2009-10 की रिपोर्ट भारत में बेरोजगारी की विस्तृत स्थिति को उजागर करती है | रिपोर्ट के अनुसार इस समय देश की अनुमानित जनसँख्या 1182 मिलियन है जिस में काम करने योग्य 15 साल से लेकर 59 साल तक के लोगो की संख्या 65 % है | पूरे देश में 238 मिलियन परिवार हैं जिनमें 172 मिलियन गाँव में तथा 66 मिलियन शहर में हैं |





रिपोर्ट के अनुसार भारत की Labour Participation Ratio 359 व्यक्ति ( प्रति 1000 व्यक्ति ) है , जिस के अनुसार भारत में 424 मिलियन लोग या तो काम कर रहे है या काम करने योग्य है | वर्तमान में भारत में बेरोजगारी की दर 9 .4 % है , इसके हिसाब से इस समय लगभग 40 मिलियन लोग भारत में बेरोजगार है | हलाकि देश में बेरोजगारी की स्थिति इस सरकारी आंकड़े से भी ज्यादा भयंकर है |
भारत में बढती जा रही इस बेरोजगारी की समस्या के कारणों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है | भारत में श्रम शक्ति २ % सालाना की रफ़्तार से बढ रही है , जिस के अनुसार लगभग 7 - 8 .5 मिलियन लोग हर साल बढ जाते हैं जबकि रोजगार के साधन उस गति से नहीं बढ रहे हैं | आज़ादी के बाद से जारी आर्थिक नीतियाँ हमेशा उत्पादन पर ही केन्द्रित रही हैं जिस कारण रोजगार के प्रयाप्त मोके नही मिल सके | देश में वैश्वीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद स्थिति और भी बिगडती जा रही है | देश को रोजगार देने वाले दो बड़े क्षेत्र , कृषि और लघु उद्योग , वैश्वीकरण की नीतियों की मार झेल रहे हैं |

बदहाल खेती ....बेहाल किसान

खेती भारत की आत्मा है , भारत की संस्कृति और जीवन पद्वति में इस का महत्व का स्थान है | आर्थिक द्रष्टि से भी खेती भारत की अर्थव्यवस्था का आधार है | आज भी भारत के 52% लोग अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है तथा सकल घरेलू उत्पाद का 16.6 % हिस्सा खेती से ही आता है | परन्तु दुर्भाग्य से आज यही खेती गंभीर संकट मैं है | देश के बहुगिनती लोग जिस क्षेत्र से रोजगार पाते है उसकी वृद्धि दर लगातार कम होती जा रही है , 1985-90 तक कृषि की वृद्धि दर 3.2 % थी जो 1997-2002 में काम हो कर 2.1 % हो गयी | आज जबकि भारत की अर्थव्यवस्था लगभग 10 % की रफ़्तार से बढ रही है वहीँ कृषि सिर्फ 1.9 % की रफ़्तार से ही बढ रही है | कृषि की इस ख़राब हालत के कारण जहाँ भारत के लिए गंभीर खाद्य संकट खड़ा हो गया है वहीँ ग्रामीण रोजगार पर भी इस का भयंकर परिणाम हुआ है |
भारत में खाद्यान के उत्पादन के आंकड़ो पर अगर नजर डालें तो ध्यान में आता है की भले ही इस में लगातार वृद्धि हो रही है परन्तु वृद्धि की दर कम होती जा रही है | 1950-51 से लेकर 1960-61 के दस वर्षो में वृद्धि की दर 4.9 % थी जो 1990-91 से लेकर 2000-01 में मात्र 1.10 % रह गयी है |

RiceWheatCoarse CerealsPulsesTotal food grainsGrowth Rate
1950-5120.586.4615.388.4150.82-
1960-6134.581123.7412.782.024.90
1970-7142.2223.8330.5511.82108.432.83
1980-8153.6336.3129.0210.63129.591.80
1990-9174.2955.1432.714.26176.393.13
2000-0184.9869.6831.0811.07196.811.10

उत्पादन की वृद्धि दर में कमी के साथ ही कृषि में रोजगार की वृद्धि दर भी लगतार कम होती जा रही है | खेती की बदतर होती जा रही इस हालत के कारण किसान भी बदहाल हो गये हैं | हरित क्रांति की सफलता की चमक समाप्त हो गयी है , कृषि में उत्पादन का खर्चा बढता जा रहा है जबकि उत्पादन उस अनुपात में नहीं बढ रहा , जिसके कारण किसान आर्थिक रूप से कंगाल होते जा रहे हैं , कर्जा बढता जा रहा है | जहाँ एक और किसान आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या कर रहे हैं वहीँ दूसरी और कीटनाशको , रसायनिक खादों के प्रयोग से पर्यावरण का गंभीर संकट खड़ा हो गया है |
वैश्वीकरण का खेती पर प्रभाव : 1991 से देश में जारी वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों ने सब से ज्यादा खेती को ही प्रभावित किया है | इन नीतियों के कारण से आज भारत में खेती लाभ का व्यवसाय नहीं रह गया है | यही कारण है की इन नीतियों के लागू होने के पहले ही दशक में 1991 से लेकर 2001 के 10 वर्षो में 8 मिलियन किसान खेती से बाहर हो गये थे , अगले दस वर्षों में यह गिनती कितनी बढेगी इस का पता तो 2011 की जनगणना के बाद ही पता चलेगा परन्तु निश्चित रूप से यह संख्या बड़ने वाली है | खेती की ख़राब होती हालत का पता इससे ही चलता है की 1993-2007 के 15 वर्षो में खाद्यान की उपलब्धता 510 ग्राम प्रति व्यक्ति से काम हो कर 422 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गयी है | खेती पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का शिकंजा कसता जा रहा है | किसान को कपास का जो बीज 1990 में 6-7 रूपये प्रति किलोग्राम मिल जाता था वहीँ बीज मोंसैंटो जैसी बड़ी कंपनिया बी. टी कपास के नाम पर 2005 आते आते 450 ग्राम के पैक में 1650-1800 रूपये तक बेचने लगी थी | इन बीजो के लिए रासायनिक खाद और कीटनाशक का प्रयोग भी बढता जा रहा है जिस कारण से किसान लगतार कर्जे के बोझ तले दबते जा रहे हैं | 1991 से लेकर 2001 के दस सालो में कर्ज के नीचे दबे किसानो की संख्या 26 % से बढकर 48.6 % हो गयी | वर्तमान में भी यह लगातार बढती जा रही है | कर्जे के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं | India's National Crime Records Bureau के अनुसार 1997 से 2007 के दस वर्षो में 182936 किसानो ने आत्महत्या की है और इन आत्महत्याओ की वार्षिक वृद्धि दर 2.4 % है | देखने में यह एक आंकड़ा लगता है लेकिन जरा गंभीरता से विचार करेंगे तो ध्यान में आता है की अगर समाज के किसी और वर्ग के लोगो ने इस का दसवा हिस्सा भी आत्महत्या की होती तो शायद देश में बवंडर मच गया होता लेकिन दुर्भाग्य से देश के अन्नदाता के जीवन की इस देश के नीति निर्मातायो को शायद ही कोई चिंता हो | किसानो की इस आत्महत्या के पीछे सबसे बड़ा कारण वह नव उदार आर्थिक नीतिया है जो विश्व बैंक के कहने पर भारत की सरकारे लागू करती जा रही हैं | इन नीतियों के अनुसार किसानो को गेहूं, धान, दाले आदि की खेती को छोड़ कर पैसे कमाने वाली फसलो को उगाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए | इसी का परिणाम है की आत्महत्या करने वाले ज्यादातर किसान कैश क्रोप्स उगने वाले किसान ही हैं जो महंगे बीज , महंगी खाद. महंगे कीटनाशको के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर हुए |
किसान की जमीन निगलते सेज ( विशेष आर्थिक ज़ोन ) : एक तरफ जहाँ भारत में खाद्य सुरक्षा पर गंभीर संकट है वहीँ देश की जमीन को बड़ी कंपनियों और निगम निगलते जा रहे है | इस समय देश की 70 % जमीन 26 % आबादी के पास है | ११ वी पञ्च वर्षीय योजना के ख़तम होने तक देश की 90 % जमीन सिर्फ 15 % लोगो के अधिकार में होगी | विशेष आर्थिक ज़ोन ( सेज ) के नाम पर किसानो की उपजाऊ जमीन बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनिया हथिया रही है | अंग्रेजो के बनाये Land Acquisation Act 1894 की मदद से सरकारे किसानो की जमीन छीन कर सस्ते में कम्पनियों को दे रही है | Land Acquisation ( Amendment ) Bill 2007 तथा Resettlement and Rehabilitation Bill 2009 के रूप में जमीन हथियाने के नये कानून बनाये जा रहे है , हालाकि अभी तक यह संसद में पारित नहीं हो सके हैं परन्तु खतरा बरकरार है | 15 अगस्त 1955 को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने लाल किले से भाषण देते हुए कहा कहा था की खाद्य पदार्थो का आयात किसी भी देश के लिए शर्मनाक है हमे आत्मनिर्भर बनना होगा | आज 55 साल बाद कांग्रेस के प्रधानमंत्री डॉ; मनमोहन सिंह कह रहे हैं की खाद्य पदार्थो का तो निर्यात भी किया जा सकता है परन्तु हमे देश के विकास के लिए उद्योग स्थापित करने ही होंगे तथा उसके लिए जमीन चाहिए ही होगी | यह सोच विश्व बैंक और विश्व व्यापर संगठन की नव उदार वादी नीतियों का ही समर्थन करती है | लेकिन इस प्रशन का उत्तर हमारे नीति निर्मातायो को जरुर देना होगा की १२० करोड़ लोगो के लिए अनाज उपलब्ध करवाने की ताकत दुनिया के किस देश के बस में है |
भारत की खेती के लिए आने वाले दिनों में एक और बड़ा खतरा सामने आने वाला है | भारत के नये बीज कानून की मदद से भारत के बीज बाज़ार पर कब्ज़ा ज़माने के बाद अब बहुराष्ट्रीय कम्पनिया Genetic Modified Crops के नाम पर भारत की फसलो को अपने कब्जे में लेने की साजिश कर रही है | बी. टी कपास के बाद बी.टी बेंगन का बीज ला कर सब्जियों के सारे बाज़ार पर कब्ज़ा ज़माने की शुरुयात हो चुकी है | हालाकि देश भार में हुए व्यापक विरोध के कारण अभी सरकार ने इसकी मजूरी नहीं दी है परन्तु खतरा अबी टला नहीं है | G.M Crops से एक तरफ हमारी फसलो की देसी किस्मे समाप्त हो जायेंगी वहीँ दूसरी और हमारे स्वास्थ पर भी इसका गंभीर परिणाम होगा |
भारत की खेती पर दुनिया के सब बड़े देशो और उनकी कम्पनियों की नजर है | बराक ओबामा ने भी अपनी भारत यात्रा में कृषि बाज़ार को खोलने की बात की है और इसके लिए दबाब लगातार बनाया जा रहा है | आज जबकि अमरीका और यूरोप अपने किसानो को भारी सब्सिडिया दे रहे है तथा वहां खेती किसान नहीं कंपनिया कर रही है , ऐसे में भारत के बाज़ार को विदेशी निवेश के लिए खोलने से हमारे किसानो के अस्तित्व पर ही खतरा पैदा हो जायेगा | भारत में भी खेती के निगमिकरन की नई नीति अपनाने की वकालत की जा रही है , परन्तु इस प्रश्न का उत्तर कोई नही दे पा रहा की लगभग 70 करोड़ लोगो को रोजगार देने वाले इस क्षेत्र का अगर निगमि करन कर देंगे तो बेरोजगार होने वाले करोड़ो किसानो को कौन सा वैकल्पिक रोजगार दिया जा सकता है | किस क्षेत्र में इतने लोगो को रोजगार देने की क्षमता है |

भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था
भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की राह में एक और बड़ी रूकावट देश में व्यापत भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था है | अगर हम भ्रष्टाचार की बात करें तो पिछले २० वर्षो में बोफोर्स घोटाला , शेयर घोटाला , चारा घोटाला , चीनी घोटाला , जी . स्पेक्ट्रम घोटाला सहित अनेको घोटाले हुए है जिन में लाखो करोड़ रूपये भ्रष्ट राजनेता तथा अफसर डकार गये है | जितनी भी योजनाये बनती है उनका बहुत बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में ही चला जाता है | राजीव गाँधी ने एक बार कहा था की अगर १ रुपया दिल्ली से भेजता हूँ तो नीचे सिर्फ २० पैसे ही पहुँचता है , बाकी रस्ते में भ्रष्टाचार की भेट चढ़ जाता है | आज स्थिति उस से भी भयंकर है | देश में भ्रष्टाचार अब संस्थागत हो गया है | देश की संसद से लेकर न्यालय और अदालते तक सब भ्रष्टाचार से लिप्त है | ऐसे में कोई भी योजना असरकार नही हो सकती | जो देश कबी नैतिक मूल्यों , इमानदारी और सचाई के लिए विश्व में प्रसिद्ध था आज भ्रष्टाचार की सूची में सबसे ऊपर के देशो में शामिल है | भ्रष्टाचार के साथ साथ भारत में काले धन की अर्थ व्यवस्था भी जोर शोर से चल रही है | जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अरुण कुमार ने अपनी पुस्तक The Black Economy in India में विस्तार से बताया है की जी. डी.पी का 50 % काले धन में ही जा रहा है | Central Stastical Organisation के अनुसार इस समय 2500000 करोड़ रूपये की काले धन की अर्थव्यवस्था देश में चल रही है | अगर 30 % की दर से इस सारे धन का टैक्स लिया जाये तो यह 750000 करोड़ रूपये बनेगा | यह राशी 2009-10 में देश में एकत्र टैक्स 641000 करोड़ से भी ज्यादा बनती है |
भारत में भ्रष्टाचार और काले धन का परवाह कितना अधिक है इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की स्विस बैंक में सबसे ज्यादा पैसा भारतीयों का ही है , इस समय लगभग 1456 बिलियन डालर भारत के स्विस बैंक में जमा हैं जबकि जबकि रशिया ( 470 बिलियन डालर ), इंग्लैंड ( 390 बिलियन डालर ) तथा चीन ( 96 बिलियन डालर ) कहीं पीछे हैं | भारत का स्विस बैंक में जमा धन भारत के विदेशी ऋण से 13 गुना ज्यादा है | इसलिए आज अगर भारत को आर्थिक महाशक्ति बनना है तो तो भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाना होगा |

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