Sunday, February 5, 2012

भारत के विकास का पथ कौन सा हो ?

भारत के विकास का पथ कौन सा हो ???
हमने अभी तक भारत की क्षमतायो , संभावनायों और चुनौतियों का अध्ययन किया है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है की निश्चित रूप से भारत एक समृद्ध , समर्थ , शक्तिशाली और विकसित राष्ट्र बनने की शक्ति रखता है | परन्तु अब एक और महत्वपूरण प्रशन पर विचार करना होगा की आखिर भारत के विकास का पथ क्या हो ? क्या भारत आज़ादी के बाद अपनाये गये समाजवादी आर्थिक माडल के बलबूते आगे बढेगा या फिर १९९० के बाद से देश में चल रहे वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के पूंजीवादी माडल के सहारे भारत का विकास होगा ? यह दोनों माडल या विचार भारत ने विदेश से लिए हैं या अगर यह भी कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं की पूरी दुनिया में आज यह दोनों आर्थिक विचार ही चल रहे है | ऐसे में एक और महत्व का प्रशन खड़ा होता है की क्या भारत का अपना कोई आर्थिक चिंतन या विचार है ? अगर है तो उस चिंतन के आधार पर क्या भारत का अपना कोई विकास का माडल हो सकता है ? ऐसे सब प्रश्नों पर आज हमें गंभीरता से विचार करने की जरुररत है | क्यूंकि भारत के लिए विकास की गति कितनी हो , इससे ज्यादा महत्त्व इस बात का है कि क्या विकास का पथ सही है या नहीं ?, यह विकास सथायी होगा या नहीं ? , इस विकास में सबकी भागीदारी है या नहीं ? इस लिए हमें थोडा विस्तार से सभी प्रश्नों का विश्लेषण करना होगा और समाधान तलाशना होगा |
भारत की आज़ादी के बाद भारत को किस रस्ते से आगे बदना है , भारत को कैसे विकसित करना है , इस पर देश की आज़ादी से पहले ही विचार होना शुरू हो गया था | अंग्रेजो द्वारा भारत के हो रहे शोषण के विरुद्ध भारत के राजायो , सैनिको और किसानो ने स्वराज और स्वदेशी के नारे के साथ १८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम लड़ा था | इसी युद्ध को आगे बढ़ाते हुए पंजाब में सतगुरु राम सिंह जी ने अंग्रेजी साम्राज्वाद की अर्थ नीतियों के विरुद्ध कूका लहर का प्रारंभ किया और स्वदेशी का शंखनाद किया , अंग्रेजो की रेल में नहीं चड़े, सड़क पर नही चले , यहाँ तक की उनकी डाक व्यवस्था का उपयोग नहीं किया , तोपों के आगे खादकर ६६ कूके उड़ा दिए गये पर स्वदेशी का यह प्रखर आन्दोलन नही रुका | किसानो की दुर्दशा और खेती के जमिदारीकर्ण के खिलाफ अजित सिंह ने " पगड़ी संभल जट्टा " लहर चलायी जिसका उदेश यही था की खेती और किसान देश की अर्थव्यवस्था का आधार है और उनका शोषण देश हित में नही है | बंगाल विभाजन के विरोध में चलने वाले आन्दोलन का मूलमंत्र भी स्वदेशी ही था , बच्चो ने परीक्षा नही दी क्यूंकि विदेशी कागज से प्रशन पत्र बना था , महिलायों ने विदेशी चूडिया उतार फैंकी , स्थान स्थान पर विदेशी कपड़ो की होली जलाई गयी , रोगियों ने अंग्रेजी दवाइआ लेना बंद कर दिया , इतना प्रखर आन्दोलान हुआ की पहली बार अंग्रेजो ने घुटने टेके और बंगाल का विभाजन रद्द हुआ और इस सफलता से भारत को आज़ादी का नया महामंत्र मिल गया था और वह था" स्वदेशी" | कर्जन वायिली को लन्दन में गोली मारने के बाद जब मदन लाल धींगडा को अदालत में पेश किया गया तो उसने जज से पूछा की क्या आप जानते है की आपका देश कैसे भारत का आर्थिक शोषण कर रहा है ? कैसे भारत के सारे उद्योग आपकी कुटिल नीतियों के करण बंद हो रहे है ? कितना धन हमारा अब तक आपकी कंपनिया लूट चुकी है ? हमारे देश के लाखों लोगो को भूखे मरने पर मजबूर करने वाली आपकी अंग्रेज हकुमत को आप क्या सजा दी सकते है ? भगत सिंह ने भी अदालत में ऐसे ही कई प्रशन उठाये थे तथा अंग्रेजो की शोषण की अर्थव्यवस्था का पर्दाफाश किया था | भारत के क्रांतिकारियों के मन में भी भारत की अर्थव्यवस्था का कितना चिंतन था , इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है |
जहाँ एक और भारत के क्रांतिकारी अंग्रेजो से युद्ध में रत थे और अपने खून से भारत माता के माथे पर आज़ादी का तिलक लगाने के लिए बलिदान कर रहे थे , वही दूसरी और महात्मा गाँधी के रूप में इस देश के आम जनमानस को एक नया महानायक मिल गया था जो उनको आज़ादी के लिए अहिंसा और सत्याग्रह का पाठ पड़ा रहा था | गाँधी जी ने चरखा चला कर भारत के लोगो को न सिर्फ अंग्रेजी कपडे का बहिष्कार सिखाया बल्की स्वावलंबन का पाठ भी पडाया | नमक आन्दोलन में गाँधी जी ने आम आदमी की लडाई लड़ी और सन्देश दिया की नमक जैसी जरुरी चीज पर विदेशी कंपनियों का अधिकार नहीं चलेगा | नील की खेती के लिए अंग्रेजो द्वारा मजबूर किये जा रहे चम्पारण के किसानो के आन्दोलन का समर्थन कर गाँधी जी ने खेती पर विदेशी कंपनियों के अधिकार का प्रतिकार किया | गाँधी जी ने ग्राम आधारित , विकेंद्रिकर्ण वाली अर्थ व्यवस्था का सपना भारत के लोगो को दिखाया और अपने इन्ही विचारो को उन्होंने ग्राम स्वराज पुस्तक के माध्यम से देश के सामने रखा | देश के और भी बहुत सारे चिन्तक और महापुर्ष देश को स्वदेशी और स्वावलंबन के आधार पर ही विकसित करने के पक्षधर थे , परन्तु गाँधी जी के सबसे प्रिय शिष्य पंडित नेहरु ही गाँधी जी के विचारो के बिलकुल विपरीत धारणा रखते थे | आज़ादी से पहले और बाद भी उन्होंने सावर्जनिक रूप से गाँधी जी के ग्राम स्वराज के विचार को अप्रासंगिक बताया और हमेशा ही उसका विरोध करते रहे |
समाजवादी माडल का प्रयोग : जब देश आजाद हुआ तो गाँधी जी तथा देश के अन्य चिंतको के विचारो के विपरीत नेहरु जी ने देश के विकास का एक नया समाजवादी माडल चुना | समाजवाद का नारा तथा विचार उस समय दुनिया में एक फैशन बन गया था तथा उसी हवा में बह कर पंडित जी ने बिना देश में कोई बहस कराये तथा बिना इस बात का विचार किये की समाजवाद का यह विदेशी माडल भारत की आत्मा और विचार के अनुरूप है या नही , इसको लागू कर दिया | सोविअत रूस की तर्ज पर महालनोबिस ने पांच वर्षीय योजनायो के माध्यम से भारत के विकास का खाका खींचा | सावर्जनिक क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा बड़े बड़े उद्योग स्थापित किये गये तथा देश के उद्योगीकरण की शुरुआत हुई , छोटे और लघु उद्योगों को संरक्षण के नाम पर बड़े निजी घरानों को उन क्षेत्रो में आने से रोक दिया गया | परमिट और लाईसेंस राज इस मिश्रित अर्थव्यवस्था का आधार बन गये जिस का नतीजा यह हुआ की सावर्जनिक उद्योग अकुशलता का शिकार होते गये और देश भ्रष्टाचार के चंगुल में फसता गया | देश के क्षमतावान युवा जो अपना उद्योग चला कर देशी में पूँजी और रोजगार का निर्माण कर सकते थे और देश कि दशा बदल सकते थे , वह नौकरी में जाने लगे | उद्यमशीलता का लगतार आभाव होता चला गया | समाज को सरकार केन्द्रित बना दिया गया तथा लोगो की मानसिकता बना दी गयी की हर काम को सरकार करेगी | जिस कारण भारत अपनी क्ष्मतायो का पूरा दोहन नहीं कर सका और १९५० से लेकर १९९० तक भारत की विकास की दर दुनिया के अन्य देशो के मुकाबले कही कम रही | कोरिया और जापान जैसे देश जिन्हों ने अपना सफ़र भारत के साथ ही शुरू किया था , मात्र ५० वर्षो में विकसित राष्ट्र बन गए जबकि १९९० आते आते भारत की अर्थव्यवस्था इतनी कमजोर हो गयी थी की हमें तेल खरीदने के लिए अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ा था , भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार लगभग समाप्त हो रहा था , भुगतान का असंतुलन तथा विदेशी कर्जा लगातार बढता जा रहा था | जब भारत में अर्थव्यवस्था का संकट लगातार बढता जा रहा था उसी समय दुनिया में भी बहुत महत्त्व की घटना घटी थी , सोविअत रूस का विघटन हो गया था तथा दुनिया के बहुत देशो में साम्यवाद और समाजवाद पर आधारित अर्थव्यवस्थाए बुरी तरह से ढेर हो गयी थी | समाजवाद और पूँजीवाद की लडाई में पूँजीवाद विजयी प्रतीत हो रहा था तथा पूरी दुनिया में उदारीकरण , वैश्वीकरण , तथा निजीकरण की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तूती बोलने लगी थी |
वैश्वीकरण , उदारीकरण , निजीकरण का दौर : भारत में भी १९९१ में डा; मनमोहन सिंह जी ने भारत की अर्थव्यवस्था के समाजवादी माडल का त्याग कर देश के लिए एक नए पूंजीवादी आर्थिक माडल को स्वीकार कर लिया | इस बार भी पहले ही की तरह न तो देश में कोई बहस हुई न ही कोई चिंतन हुआ | मुक्त बाजार , खुली अर्थव्यवस्था , पूँजी का निर्बाध प्रवाह , तथा हर प्रकार के नियंत्रण से मुक्त हुई अर्थव्यवस्था ने एक बार तो निश्चित रूप से देश को तेजी से विकास के पथ पर चलाना शुरू कर दिया | बढिया क्वालिटी के दुनिया भर के उत्पाद सस्ते दाम पर ग्राहकों को मिलेंगे , देश में रोजगार बढेगा , नयी तकनीकी देश में आएगी , उत्पादन बढेगा , खुशहाली बढेगी , गरीबी समाप्त हो जाएगी तथा देश जल्दी ही विकसित राष्ट्र बन जायेगा , ऐसा स्वपन दिखा कर देश के बाजार को बहुराष्टीय कम्पनियों के लिए खोल दिया गया | देश के राजनितिक दल ,मीडिया , उद्योग जगत , बुद्धिजीवी , तथा आम आदमी भी इस मनमोहक नारे का शिकार हो कर इन नीतियों के गुणगान में लग गया | देश में इन नीतियों को किस हद तक तक लागू करना है ? कहाँ लागू करना है ? किस प्रकार की सावधानिया रखनी है ? इन सब बातो का विचार किये बिना ही देश में इन नीतियों को लागू कर दिया गया | समाजवाद के माडल से त्रस्त यह सब लोग इस नये आर्थिक माडल को मुक्ति का मार्ग समझने लगे इसीलिए देश में वैश्वीकरण की इन नीतियों के खिलाफ जो भी आवाज उठी उसे पुरातनपंथी और प्रतिगामी कह के ख़ारिज कर दिया गया | आज जबकि इस माडल को अपनाए लगभग २० साल हो गये हैं , ऐसे में बहुत आवश्यक है की इन नीतियों के देश पर पड़े प्रभावों का गंभीरता से अध्ययन किया जाये | इस बात की भी समीक्षा की जाये कि जिन उदेश्यों को लेकर देश में यह माडल लाया गया था , क्या वह उन उदेश्यों को पूरा करने में सफल हुआ है ?
वैश्वीकरण के पैरोकार लगातार यह कहते आ रहे है की मुक्त बाजार की इस अर्थव्यवस्था के कारण से ही भारत की विकास दर बढ़ी है , देश की प्रति व्यक्ति आय में भी बढोतरी हुई है तथा भारत आज विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है | परन्तु इस तस्वीर का एक दूसरा पहलु भी है जिस पर विचार करना बहुत जरुरी है , विकास दर की यह वृद्वि देश में बेरोजगारी कम नहीं कर पाई , गरीबी कम करने के सारे दावे खोखले सिद्व हुए हैं तथा असमानता बढती जा रही है | ऐसे में यह प्रशन बहुत महत्वपूरण है की विकास दर की इस वृद्वि का लाभ किसे मिल रहा है ? क्या आम आदमी को इस विकास का लाभ मिल रहा है या इसका लाभ कुछ प्रतिशत लोग ही उठा रहे हैं ? यह प्रशन भारत ही नही तो पूरे विश्व के लिए भी बहुत प्रासंगिक है | आज अगर हम दुनिया की अर्थव्यवस्था पर नजर मारे तो ध्यान में आता है की दुनिया की लगभग आधी आबादी ( ३ बिलियन ) $ २,५ से भी कम में गुजारा करने पर विवश है | दुनिया के निचले ४० % लोगो की विश्व की आय में हिस्सेदारी मात्र ५ % ही है जबकि ऊपर के २० % लोग विश्व की आय के तीन चौथाई हिस्से पर कब्ज़ा किये हुए हैं | दुनिया के सब से गरीब ४१ देशो ( ५६७ मिलियन लोग ) का कुल सकल घरेलू उत्पाद विश्व के ७ सबसे अमीर लोगो की सम्पदा से भी कम है | दुनिया के 640 मिलियन लोग आज भी बेघर है , 400 मिलियन लोगो को आज भी पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नही है ,दुनिया में हर दूसरा बच्चा गरीबी में पैदा हो रहा है | UNICEF की 2009 में जारी रिपोर्ट में कहा गया है की हर रोज लगभग 29000 बच्चे भूख के कारण मर जाते हैं | विश्व में अमीर और गरीब देशो का अंतर 1820 के 3 : 1 के अनुपात से बढ कर 1992 में 72 : 1 तक पहुँच गया जो अब और भी ज्यादा हो चुका है |
यह आंकड़े इस बात को बताने के लिए प्रयाप्त हैं की कैसे वैश्वीकरण की यह नीतियाँ दुनिया में असमानता को बड़ा रही है , अमीर और अमीर होते जा रहे है तथा गरीब और गरीब होते जा रह हैं | आखिर इस का कारण क्या है , इस बात पर विचार करें तो ध्यान में आता है की इन नीतियों के कारण से दुनिया के सारे संसाधनों और व्यापार पर कुछ कम्पनियों का कब्ज़ा होता हा रहा है जिस का नतीजा यह है की सारी धन संपदा कुछ हाथो में ही सिमटती जा रही है | दुनिया से गरीबी मिटाने , असमानता ख़त्म करने , तथा बेरोजगारी समाप्त करने के नाम पर कुछ देशो की बड़ी कम्पनिया दुनिया के बाजार पर कब्ज़ा जमा रही है तथा इस पूरे वैश्वीकरण का लाभ कुछ हाथो तक ही सिमट के रह गया है | अगर हम भारत में पिछले २० सालो में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विस्तार का अध्ययन करे तो ध्यान में आता है की आज भारत की शीतल पेय के ९७ % बाजार पर सिर्फ पेप्सी और कोका कला का कब्ज़ा हो गया है , भारत में कपास के बीज के ७० % अकेली मोंसैंटो कम्पनी बेचती है , इतना ही नही तो भारत के बीज बाजार पर बहुराष्टीय कम्पनियों का ही कब्ज़ा हो गया है , यही हाल खाद और कीटनाशको के बाजार का है |

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