लद्दाख प्रान्त की गलवान घाटी में क्या हो रहा है ? - डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
पिछले कुछ दिनों से लद्दाख की गलवान घाटी में भारत और चीन की सेना आमने सामने है । 15 जून को दोनों सेनाओं की आपस में भिड़न्त भी हो गई थी जिसमें भारत के बीस सैनिक शहीद हो गए थे, जिनमें वहाँ के कमांडिंग आफिसर संतोष बाबू भी थे । ऐसा कहा जा रहा है कि चीनी सेना की इससे कहीं ज़्यादा क्षति हुई है । इस घटना को 1962 में हुए भारत चीन युद्ध की निरंतरता में ही समझना चाहिए । इस विवाद की पृष्ठभूमि को जानना बहुत जरुरी है । 1914 में भारत और तिब्बत के बीच शिमला में एक संधि हुई थी । इस संधि में दोनों देशों ने आपसी सहमति से अपनी सीमा रेखा निर्धारित की थी । उस समय भारत ब्रिटिश सरकार के अधीन था और तिब्बत स्वतंत्र देश था । भारत की ब्रिटिश सरकार की ओर से इस शिमला वार्ता में हेनरी मैकमहोन शामिल थे । इसलिए भारत-तिब्बत सीमा रेखा को ही मैकमहोन लाईन कहा जाने लगा । दरअसल शिमला में यह वार्ता त्रिपक्षीय थी । इसमें चीन भी शामिल था । क्योंकि मंशा यह थी कि तिब्बत और चीन की सीमा रेखा भी निर्धारित हो सके ताकि चीन और तिब्बत का तनाव भी समाप्त हो सके । चीन को मांचू शासकों की ग़ुलामी से आज़ाद हुए अभी दो साल ही हुए थे । यह अलग बात है कि नए हान शासकों ने मंचूरिया के मांचुओं से आज़ाद होने के बाद मंचूरिया पर भी क़ब्ज़ा कर लिया था । नए चीनी शासकों की ओर से शिमला वार्ता में ईवान चेन को भेजा गया । इवान चेन तो तिब्बत - चीन की सीमा रेखा पर सहमत हो गए थे लेकिन जब उन्होंने यह सहमति रेटिफिकेशन के लिए चीन सरकार को भेजी तो उसने इसे अस्वीकार कर दिया । चीन के निकल जाने से शिमला की त्रिपक्षीय वार्ता द्विपक्षीय रह गई और भारत- तिब्बत में सीमा रेखा को लेकर समझौता हो गया जिसे उस समय की तिब्बत सरकार ने स्वीकार कर लिया ।
1947 में अंग्रेज हिन्दुस्तान से रुखसत हो गए और उधर चीन के भीतर कम्युनिस्टों ने माओ के नेतृत्व में वहाँ की च्यांग काई शेक की सरकार के ख़िलाफ़ गृहयुद्ध छेड़ रखा था । 1949 में इस गृहयुद्ध में चीन के बहुत बड़े भूभाग पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया । च्यांग काई सरकार का शासन केवल ताईवान में सीमित हो गया । माओ ने अपने कब्जे वाले हिस्से का नाम पीपुल्ज रिपब्लिक आफ चायना रखा । लेकिन माओ के चीन ने 1950 में तिब्बत पर आक्रमण कर दिया । तिब्बत ने भारत सरकार से सहायता की प्रार्थना की लेकिन भारत ने सहायता नहीं की । नेहरु को लगता था कि चीन से दोस्ती करना भारत के हित में होगा । लेकिन सरदार पटेल ऐसा नहीं मानते थे । उनको लगता था चीन , तिब्बत पर क़ब्ज़ा करने के बाद भारत पर आँख गढ़ा देगा । परन्तु नेहरु अपने आपको अन्तर्राष्ट्रीय मामलों का विशेषज्ञ मानते थे । अन्तत: वही हुआ जिसका सरदार पटेल को ख़तरा था । तिब्बत पर क़ब्ज़े के बाद भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सेना बन गई थी । लेकिन अब पटेल मौजूद नहीं थे । चीन ने भारत-तिब्बत के बीच 3488 किलोमीटर की सीमा रेखा मैकमहोन लाईन को मानने से इन्कार कर दिया और अरुणाचल प्रदेश व लद्दाख के बहुत से हिस्से पर अपना दावा ठोकना शुरु कर दिया । अब नेहरु भला चीन की यह माँग कैसे स्वीकार कर सकते थे ? देश का दुर्भाग्य था कि नेहरु 1947 से लेकर 1962 तक देश व सेना को ीन के ख़िलाफ़ तैयार करने की बजाए , हिन्दी चीनी भाई भाई के भ्रम जाल में फँसाते रहे । चीन ने 1962 में उन क्षेत्रों क़ब्ज़ा करने के लिए , जिन्हें वह अपना बता रहा था , भारत पर हमला कर दिया । उस इतिहास को दोहराने की जरुरत नहीं है । चीन लद्दाख व अरुणाचल प्रदेश में काफ़ी भीतर तक घुस आया था । उसने स्वयं ही युद्ध विराम की घोषणा कर दी । इतना ही नहीं , वह जीते हुए क्षेत्र खाली कर पीछे भी हट गया । यह सब दुनिया की वाहवाही बटोरने के लिए था । यदि वह भारतीय क्षेत्रों सौ किलोमीटर अन्दर घुसा तो अस्सी किलोमीटर पीछे हट गया और बीस किलोमीटर पर क़ब्ज़ा जमाए रखा । इस प्रकार उसने पूरी भारत तिब्बत सीमा के स्थान पर एक नई सीमा रेखा बना दी जिसे आजकल लाईन आफ एक्चुअल कंट्रोल या वास्तविक नियंत्रण रेखा कहा जाता है । चीन का कहना है कि अब भारत चीन अपनी सीमा का निर्धारण आपसी बातचीत से करेंगे ।बात चीत कैसे होगी विवाद के मामले में उसे कैसे सुलझाया जाएगा , इसको लेकर दोनों पक्षों कई समझौते हो चुके हैं । उन्हीं में से एक समझौता है कि दोनों पक्षों में कोई भी गोली नहीं चलाएगा । लेकिन चीन ने 1962 के बाद अपना सारा ध्यान भारतीय सीमा के साथ तिब्बत में सैनिक दृष्टि से अपनी आधार भूत संरचना को मज़बूत करने में लगा दिया ।क्योंकि वह निश्चिंत था कि सीमा पर भारत की ओर से फ़िलहाल कोई ख़तरा नहीं है । सीमा पर इस प्रकार की शान्ति के बीच चीन ने अपनी सामरिक स्थिति काफ़ी मज़बूत कर ली । बीच बीच में वह एलएसी को भेदकर भारतीय सीमा में घुस आता था । बातचीत के बाद कभी पीछे हट जाता था और कभी वहाँ बैठ जाता था । लेकिन हम इसी से प्रसन्न थे कि सीमा पर एक भी गोली नहीं चली और मामला शान्ति से निपट जाता है । बाक़ी यहाँ तक चीन द्वारा भारतीय भूमि पर क़ब्ज़ा करते रहने की बात थी , उसके बारे में नेहरु बता ही गए थे कि वहाँ घास का तिनका तक नहीं उगता ।
लेकिन अब गालवान घाटी में भारत सरकार ने उस ज़मीन की रक्षा करने का निर्णय भी ले लिया है , जिस पर घास का तिनका तक नहीं उगता ।इसलिए 1967 की नाथुला घटना के बाद चीन के लिए भी यह नया अनुभव है और भारत में उन लोगों के लिए भी जो बार बार चिल्ला रहे हैं कि गलवान में क्या हो रहा है ? लेकिन भारत की सेना अच्छी तरह जानती है कि गलवान में क्या हो रहा है और भारत के लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि गलवान में क्या हो रहा है । अब तक तो चीन भी समझ गया है कि गलवान में क्या हो रहा है । अलबत्ता कांग्रेस की इतालवी लाबी और कम्युनिस्टों को यह सब समझने में समय जरुर लगेगा ।
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