धरती को बचाना होगा
एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी से कृषि पैदावार में दस फीसद की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसकी कृषि पैदावार में चालीस लाख टन की कमी आएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों सहित प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीने लायक पानी की कमी है। लिहाजा भूकम्प, सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं।
जनसत्ता
Published on: September 26, 2019 1:44 AM
दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है।
निरंकार सिंह
दुनिया के एक सौ तिरसठ देशों के चालीस लाख लोग जलवायु संकट को दूर करने के लिए सड़कों पर उतरे। इसी महीने संयुक्त राष्ट्र युवा जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले इन प्रदर्शनकारियों ने जलवायु संकट से निपटने के लिए कदम उठाने की मांग की है। धरती के बढ़ते तापमान से जलवायु जिस तेजी से बदल रही है, अब वह हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही है। भविष्य में वैश्विक तापमान और तेजी से बढ़ने का खतरा सिर पर है, क्योंकि आने वाले समय में कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन में और ज्यादा बढ़ोत्तरी हो सकती है। वैज्ञानिकों ने पांच करोड़ साल पहले के वार्मिंग माडल के अध्ययन के बाद यह भविष्यवाणी की है। अमेरिका के मिशिगन विश्वविद्यालय और एरिजोना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने बढ़ते वैश्विक तापमान के अध्ययन के लिए पहली बार सफलतापूर्वक एक जलवायु मॉडल का उपयोग किया जो धरती के प्रारंभिक अवधि के वैश्विक तापमान से मिलता-जुलता है और जिसे भविष्य की पृथ्वी की जलवायु के सदृश्य माना जाता है।
वैज्ञानिकों के सबसे बड़े समूह ने दुनिया को यह चेतावनी देते हुए कहा है कि अब धरती को बचाने के लिए बहुत कम वक्त रह गया है। अगर फौरन कुछ नहीं किया गया तो पृथ्वी को भारी नुकसान होगा। हाल में दुनिया के एक सौ चौरासी देशों के करीब पंद्रह हजार वैज्ञानिकों ने बायोसाइंस जनरल के लेख ‘वर्ल्ड साइंटिस्ट-वार्निंग टू ह्यूूमैनिटी-ए सेकेंड नोटिस’ पर दस्तखत किए। धरती को लेकर यह अब तक का सबसे बड़ा सम्मेलन था, जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने शिरकत की। पर्यावरण विज्ञानी विलियम रिपल ने बायोसाइंस के इस लेख में लिखा है कि धरती को बचाने का दूसरा नोटिस लोगों दे दिया गया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक पृथ्वी से जुड़ी कई चुनौतियों जैसे पेड़ों की कटाई, ओजोन परत में छेद, मौसमी बदलाव आदि के बारे में पच्चीस वर्ष पहले ही चेतावनी दे दी गई थी। आज जब इन चुनौतियों पर अध्ययन किया गया तो पता चला कि हालात बदतर हो चुके हैं। ताजे पानी में छब्बीस फीसद की गिरावट आई है और तीस करोड़ एकड़ जंगलों का सफाया किया जा चुका है। इन ढाई दशकों में स्तनधारी जीवों, पक्षियों आदि में उनतीस फीसद की गिरावट देखी गई है।
विकासशील देशों की इस अध्ययन रिपोर्ट में 2010 और 2030 में एक सौ चौरासी देशों पर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक असर का आकलन किया गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक जीडीपी में हर साल 1.6 फीसद यानी बारह सौ खरब डॉलर की कमी हो रही है। अगर जलवायु संकट के कारण धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो 2030 तक यह कमी 3.2 फीसद हो जाएगी और 2100 तक यह आंकड़ा दस फीसद को पार कर जाएगा। जबकि जलवायु संकट से लड़ते हुए कम कार्बन पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में वैश्विक जीडीपी का मात्र आधा फीसद खर्च होगा। जलवायु संकट का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर हो रहा है। 2030 तक विकासशील देशों की जीडीपी में ग्यारह फीसदी तक की कमी आ सकती है। एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी से कृषि पैदावार में दस फीसद की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसकी कृषि पैदावार में चालीस लाख टन की कमी आएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों सहित प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीने लायक पानी की कमी है। लिहाजा भूकम्प, सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं।
वस्तुत: पृथ्वी की एक बहुत सुसंबद्ध व्यवस्था है। पिछले साठ-सत्तर सालों में हमारी गतिविधियों के कारण वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड काफी तेजी से बढ़ी है। किसी एक देश में छोड़ी जाने वाली कार्बन डाइआक्साइड फौरन समूचे वातावरण में घुल जाती है और किसी एक स्थान पर समुद्र में छोड़ा गया कचरा धरती के एक सिरे से दूसरे छोर पर पहुंच जाता है। इसलिए उत्सर्जन और प्रदूषण का असर स्थानीय नहीं रहता और वह विश्वव्यापी प्रदूषण की समस्या बन जाता है। जैव विविधता को हो रहे नुकसान और भूरक्षण के कारण भविष्य में मौसम में और तेज बदलाव आ सकते हैं। इसी तरह ग्रीनलैंड में बर्फ पिघलने और समुद्र की सतह में छह मीटर की वृद्धि से भारी आर्थिक-सामाजिक नुकसान हो सकते हैं। यह साफ हो चला है कि हमारी पृथ्वी उस युग में प्रवेश कर चुकी है, जिसमें आदमी नाम की प्रजाति ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय शक्ति है। इसलिए जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार बदलावों को रोका जा सकता है।
धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह इस सदी के अंत तक प्रलय के नजारे दिखा सकता है। दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है। भारत सहित पूरी दुनिया का तापमान छह डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पेट्रोलियम पदार्थों का कोई वैकल्पिक र्इंधन ढूंढ़ने में विफल दुनिया भर की सरकारें इन हालात के लिए जिम्मेदार हैं। पीडब्ल्यूसी (प्राइस वाटरहाउस कूपर्स)के अर्थशास्त्रियों ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि अब वर्ष 2100 तक वैश्विक औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस के अंदर तक रखना असंभव हो गया है। इसलिए इसके घातक नतीजे सारी दुनिया को भोगने होंगे।
अब सवाल उठता है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए किया क्या जाए। क्या हम जलवायु बदलाव के विनाशकारी प्रभावों का समापन या प्रबंधन कर सकते हैं, जबकि लगातार बढ़ती वैश्विक आबादी अपनी निरंतर विस्तारवादी इच्छाओं, लालच और भूख को संतुष्ट करने के लिए विश्व के सीमित संसाधनों पर भारी दबाव डाल रही हो? इस पर लगाम कैसे लगाई जा सकती है, यह गंभीर सवाल है। विकास के प्रचलित मॉडल पर चलते हुए तो हम इसका समाधान नहीं खोज सकते हैं। इस संकट का अनुमान महात्मा गांधी ने पहले ही लगा लिया था। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि आधुनिक सभ्यता, प्रकृति का ध्यान नहीं रखती है और मनुष्य प्रकृति के साथ तालमेल बना कर रहते हुए अपनी इच्छाओं को घटाने के लिए तैयार नहीं होता है तो अनेक प्रकार की
सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल, पारिस्थितिकीय विनाश और मानव समाज के लिए अन्य दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियां जन्म लेंगी। असीमित उपभोक्तावादी प्रवृत्तियां और मूल्यों के प्रति आलस्यपूर्ण उदासीनता मानवता को शांति की ओर बढ़ने में मदद नहीं करेगी। आर्थिक चुनौतियों की ही तरह आधुनिक विश्व के सामने पर्यावरणीय चुनौतियां हैं जो विभिन्न प्रकार के विनाशों, खाद्य और ऊर्जा संकट, सामाजिक तनावों और संघर्षों की ओर ले जा रही हैं। महात्मा गांधी का स्वराज या स्वशासन और स्वदेशी के माध्यम से लोगों को अपने पर्यावरणीय, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वातावरण पर नियंत्रित करने का दृष्टिकोण आज के बाजार संचालित पूंजीवादी तरीके के विकास की तुलना में विश्व को ज्यादा संतुलित और पर्यावरण-मित्र विकास की ओर ले जाने में ज्यादा सक्षम है।
हमारे पास गांधी जी के बताए रास्ते की ओर लौटने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। आखिर टिकाऊ विकास क्या है? यह विनाश की अवधारणा के साथ प्रकृति और भावी पीढ़ियों के प्रति गांधीवादी नैतिक दायित्वों को मिलाने से ही तो बना है। इस नैतिक दायित्व के भाव का लोगों, समाजों और सरकारों द्वारा निर्वहन हुए बिना टिकाऊ विकास का विचार सफल नहीं हो सकता। इसके बिना आम लोगों के आम संसाधनों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयास भी केवल कानूनी उपायों के वित्तीय सहायताओं के बूते सफल नहीं हो सकते। वे केवल तभी सफल हो सकते हैं, जब नैतिक दायित्व की भावना सभी पक्षों की भागीदारी से मजबूत की जाए।
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