Wednesday, September 22, 2021

प्राचीन भारत में रोज़गार

प्रायः यह धारणा बन गयी है कि भारत में रोजगार देने राज्य का कभी भी काम नहीं रहा है। परंतु यह पूरी तरह सत्य नहीं है। सरकार भी या राज्य भी इसके लिए जिम्मेवार होता था। प्रसिद्ध विद्वान डॉ भगवती प्रकाश जी ने पांचजन्य में छपे निम्न लेख में बताया है कि यह राज्य की जिम्मेवारी भी रही है। आइए इसे समझें:
संस्कृति संवाद -36 रोजगार केन्द्रित प्राचीन अर्थ चिन्तन 
प्रोफेसर भगवती प्रकाश
 
भारत सहित विश्व के सभी देषों में आज ‘रोजगार रहित आर्थिक वृद्धि, अर्थात ‘‘जाॅब लेस ग्रोथ’’ एक समस्या है। अधिकांष अर्थ व्यवस्थाओं में विगत दशकों में हुई आर्थिक वृद्धि के उपरान्त भी रोजगार में संकुचन भी हुआ है। प्राचीन भारतीय आर्थिक चिन्तन रोजगार केन्द्रित रहा है। वैदिक विमर्ष  से लेकर श्रीराम के उपाध्याय एवं अर्थशास्त्री पुष्पधन्वा और चाणक्य रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र तक सभी प्राचीन भारतीय विद्वानों का आर्थिक चिन्तन रोजगार संकेन्द्रित रहा है। कौटिल्य के अनुसार मनुष्यों की वृति अर्थ है, मनष्ुयों से युक्त भूमि अर्थ है एवं ऐसी मनुष्यों से आवासित पृथ्वी की प्राप्ति, विकास व उसका लाभपूर्ण पालन-पोषण का शास्त्र अर्थशास्त्र है।  
‘‘मनुष्याणां वृत्तिरर्थः। मनुष्यवती भूमिरित्यर्थः। तस्य पृथिव्या लाभपालनोपायः शास्त्रमर्थषास्त्रमिति 
(कौटिल्य अर्थषास्त्र 15-1-1) अर्थातः  
इस प्रकार मनुष्याणां वृत्तिरर्थः से आषय है, ‘‘सम्पूर्ण प्रजा या रोजगारक्षम व्यक्तियों को वृत्ति अर्थात आजीविका या रोजगार प्रदान करना अर्थषास्त्र है। मनुष्यवती भूमिरित्यर्थः से आषय है राज्य की भूमि पर बसे लोगों के योगक्षेम अर्थात उनकी आवष्यकताओं पूत्र्ति व उन्हें प्राप्त सुविधाओं के रक्षण की व्यवस्था अर्थशास्त्र है। तस्य पृथिव्या लाभपालनोपायः शास्त्रमर्थषास्त्रमिति से आषय सम्पूर्ण प्रजा से आवासित भूमि पर आय-परक या लाभप्रद गतिविधियाँ जिनमें उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, कृषि, वित्तीय प्रबन्ध आदि सम्मिलित है, उससे मानव मात्र के लिए लाभोत्पादक आजीविकाओं की व्यवस्था करना अर्थषास्त्र है।  
रोजगार में वृद्धि के बिना, उत्पादन या जी.डी.पी अर्थात सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर से आर्थिक प्रगति का आकलन भ्रामक हैं। प्राचीन आर्थिक चिन्तन में सम्पूर्ण प्रजा अर्थात प्रत्येक रोजगारक्षम नागरिक या मानव मात्र को आजीविका युक्त करना, उस आजीविका के रक्षण संवर्द्धन व सम्पोषण के साथ उन्हें सतत लाभदायी आय से युक्त बनाए रखना अर्थशास्त्र कहा है।  
वेदों में आजीविकायुत कर्म सामथ्र्य व समृद्धि पर बलः  
वेदों में राज्य शासन व राजा द्वारा सम्पूर्ण प्रजा को सम्यक भरण-पोषण योग्य आजीविकाओं का सृजन एवं संधारण राजा का प्रमुख कत्र्तव्य माना है। यजुर्वेद (9/22-25) में प्रजा की कर्मसामथ्र्य वृद्धि, समृद्धि एवं कृषि, उद्योग, व्यापार व वाणिज्य से उत्पादन की प्रचुरता का निर्देष है।  
अस्मे वोऽअस्त्विन्द्रियमस्मे नृम्णमुत क्रतुरस्मे वर्चासि सन्तु वः। नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्याऽइयं ते राड्यन्तासि यमनो ध्रवोऽसि धरुणः। कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा यजुर्वेद 9/22 
भावार्थः मातृभूमि के प्रति सादर व श्रृद्धापूर्वक (मात्रेपृथिव्यै नमः; मात्रे पृथिव्या नमः) तुम अपने पराक्रम, वर्चस्व व तेजस्विता पूर्वक (वः वर्चांसि अस्मे सन्तु) इस राज्य को आधार बना कर सभी दिषाओं में अपनी कर्मसामथ्र्य, धन व धनाजर्न हेत ु व्यवसाय में वृद्धि करो (नृम्णम् उत क्रतुः अस्मे)। मेरे शासन (इयं राड्) में तुम्हारी कृषि सहित योगक्षेम व आर्थिक समृद्धि एवं सभी प्रकार की जीवनोपयोगी आवष्यकताओं के लिए आवष्यक धनोपार्जन-पूर्वक तुम्हारा सम्पोषण करे (त्वा कष्ृये, त्वाक्षेमाय, त्वा रय्ये, त्वा पोषाम)। तम्ु हारे ये उपार्जन सुस्थिर होवें, इनमें वृद्धि होवे इस हेतु राज्य संकल्पबद्ध  है। (यमनः धव्र: धरूणः असि) यजुवेर्द 9/22 
यजुर्वेद के ही अध्याय 9 के निम्न मन्त्रांष भी यहाँ पठनीय हैः  
‘‘           मधुमतीर्भवन्तु वय राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा।।’’ यजुर्वेद 9/23 अर्थः इन माधुर्यपूर्ण व जीवनोपयोगी इन परिलब्धियों की सुरक्षार्थ परु अथार्त नगर के हम हित-चिन्तक  इस राष्ट्र को सतत जागतृ बनाये रखें।  
‘‘           दापयति प्रजानन्त्स नो रयि सर्ववीरं नियच्छतु स्वाहा।।’’ यजुर्वेद 9/24 इस राज्य में तुम्हारे पराक्रमी उत्तराधिकारियों में यह ‘शुद्ध धन’ (रयि) उत्तरोत्तर बढ़े।  
‘‘        सनेमि राजा परियाति विद्वान् प्रजां पुष्टिं वर्धयमानोऽअस्मे स्वाहा।।’’ यजुर्वेद 9/25 सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान से युत ये सभी प्रजाजन यहाँ सख्ु ापूवर्क विहार करते हुए अपने 
धन, बल, पशुधन सहित वृद्धि को प्राप्त होवे।  
यजुर्वेद (18/12-13) में ही कृषि, भूगर्भ-विद्या या विज्ञान व उद्योगों से मूल्यवान पदार्थों के उत्पादन एवं विविध उद्योगों, व्यापार व वाणिज्य से सभी प्रकार क े धन के अर्जन व संचय की कामना के सन्दर्भ हैं। इन मन्त्रों मे ं सभी प्रकार की फसलो ं व धातुओं सहित भगू र्भ  की सम्पदा आदि की प्रचुरता की कामना है।  
व्रीहयश्चमे यवाश्चमे माषाश्चमे तिलाश्चमे मुद्गाश्चमे खल्वाश्चमे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्चमे श्यामाकाश्चमे नीवाराश्चमे गोधूमाश्चमे मसूराश्चमे यज्ञेन कल्पन्ताम्।। यजुर्वेद 18/12 अश्माचमे मृत्तिकाचमे गिरयश्चमे पर्वताश्चमे सिकताश्चमे वनस्पतयश्चमे हिरण्यंच मेऽयश्चमे 
श्यामंचमे लोहंचमे सीसंचमे त्रपुचमे यज्ञेन कल्पन्ताम्।। यजुर्वेद 18/13 
मन्त्रार्थः - मेरे चाँवल, साठी के धान, जौ, अरहर, उड़द, मटर, तिल, नारियल, मूँग, चणे, कंगुनी, सूक्ष्म चावल, सामा चाँवल, मडुआ, पटेरा, चीणा आदि छोटे अन्न, पसाई के चावल जो कि बिना बोए उत्पन्न होते हैं। गेहूँ, मसूर और सभी प्रकार के अन्य अन्न व कृषि पदार्थ प्रचुरता में उपजे व बढ़ें ।। 12।। मन्त्रार्थः - मेरे मूल्यवान खनिज व खनिज युक्त पाषाण, हीरा आदि रत्न, रत्नमयी अच्छी मिट्टी और साधारण मृदा, पर्वत व मेघ और बड़े-छोटे पवर्त और पर्वतों में होनेवाले पदार्थ, बड़ी और छोटी-छोटी बालू, मूल्यवान वनस्पतियाँ बड़ और आम आदि वृक्ष लताएँ आदि, मेरा सब प्रकार का धन, स्वर्ण तथा चाँदी, लोह भण्डार और शस्त्र, नीलमणि, लहसुनिया आदि और चन्द्रकान्त जैसी मणियाँ, सुवर्ण तथा कान्तिसार, सीसा, लाख, टिन व जस्ता और पीतल आदि ये सब अनन्त गनु े होवें ।।13।। इस प्रकार वेद सहित प्राचीन वाङम् य में सम्पूर्ण प्रजा के योगक्षेम, समृद्धि एवं वृति अर्थात रोजगार युक्त कृषि, पषुधन, खनिज उद्योगादि की प्रगति की कामना की गई है। इन सभी की संवृद्धि के लिए उचित परिस्थितियों के संस्थापक को चक्रवर्ती राजा बनाने की आवष्यकता बतलाई है।  
सत्पात्र व कमजोर वर्गों की सहायता:  
राजा को विद्यार्थियों, विद्वानों, बा्रह्मणों एवं याज्ञिकों का राजकोष से पालन करना चाहिए। गौतम (10/19-12, 18/39), कौटिल्य (2/1), महाभारत अनुशासन पर्व (61/28-30), महाभारत शान्तिपर्व (165/6-7), विष्णुधर्मसूत्र (3/79-80), मनुस्मृति (7/82 एवं 134), याज्ञवल्क्य स्मृति (1/315 एवं 323 तथा 3/44), मत्स्यपुराण (215/58), अत्रिस्मृति (24) आदि। राजा को असहायों, वृद्धों, दृष्टिहीनों, अपंगों, मन्बुद्धि व विमन्दित जनों, पागलों, विधवाओं, अनाथों, रोगियांे, गर्भवती स्त्रियों की भोजन, दवा, वस्त्र, निवास आदि की सहायता करनी चाहिए। वसिष्ठ 99/35-36), विष्णुधर्माेत्तर, (3/65), मत्स्यपुराण  (215/62), अग्निपुराण (225/25), महाभारत आदिपर्व (49/99), महाभारत सभापर्व (18/24), महाभारत विराटपर्व (18/24, महाभारत शान्तिपर्व 77/18) आदि। विष्णुधर्माेत्तर सूत्र को उद्धृत करते हुए राजनीतिप्रकाश (पृ० 130-131) के अनुसार राजा पतिव्रता स्त्रियों का सम्मान एवं रक्षा करे। राजनीतिप्रकाष ने शंख-लिखित के सन्दर्भ से लिखा है कि जो वर्ग व समुदाय शास्त्रविहित वृत्तियांे अथार्त आजीविकाआंे  से जीवन निवार्ह नहीं कर सकें, उन्हे ं राजा से भरण-पोषण की माँग करनी चाहिए और राजा अपनी सामथ्र्य के अनुसार उनकी सहायता करे। विपत्ति एवं अकाल के समय में राजा यथा शक्ति भोजन आदि की व्यवस्था करके प्रजापालन करना चाहिए 
(मनुस्मृति 5/94 की व्याख्या में मेघातिथि)। बुड्ढों, दृष्टिहीनों, विधवाओं, अनाथों एवं असहायों की व्यवस्था तथा उद्योग या व्यवसाय रहित क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों को समयानुकूल सहायता देना प्राचीन परम्परा है। धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों दयालु राजाओं की इसी परम्परा के अनुरूप ही अशोक ने मनुष्यों एवं पशुओं के लिए अस्पताल खुलवाये थे (द्वितीय प्रस्तर अभिलेख)। धर्मशालाओं, अनाथालयों, पौसरों, छायादार वृक्षों, सिंचाई आदि की भी व्यवस्था की थी। राजा खारवेल व रुद्रदामा ने भी प्रजा हित को सर्वोच्च महत्व दिया था। महाभारत अनुशासनपर्व व मत्स्य पुराण (215/68) के अनुसार राजाओं को प्रचुरता में सभा-भवनों, प्रपाओं, जलाशयों, मन्दिरों, विश्रामालयांे आदि निर्माण कराने चाहिए। 
श्लोकः शालाप्रपातडागानि देवतायतनानि च। ब्राह्मणावसथाश्चैव कत्र्तव्यं नृपसत्तमैः।। 
(महाभारत अनुशासनपर्व पराशरमाधवीय, भाग 1, पृ० 466) इस प्रकार प्राचीन राजधर्म रोजगार केन्द्रित व लोक कल्याण प्रेरित अर्थ चिन्तन पर आधारित 
था।  

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