किसानों पर कहर का सबब
देविंदर शर्मा
विश्व व्यापार संगठन को खाद्य के मोर्चे पर भारत की चुनौती का पता है. खाद्य भंडारण के मुद्दे पर दिसम्बर के पहले सप्ताह में बाली में विश्व व्यापार संगठन की बैठक होने वाली है और इस संगठन को यह लग रहा है कि भारत चुनौती पेश करेगा, इसलिए संगठन के प्रमुख रॉबर्टो अज्वेडो ने भारत को सलाह दी है कि वह प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्य सब्सिडी को बचाने के लिए शांति शर्त (पीस क्लॉज) पर विचार करे.
विगत दिनों नई दिल्ली में उन्होंने कहा, "जिस पर हम जेनेवा में सहमत हुए थे, उस पर शांति शर्त के तहत काम करने जा रहे हैं, जो दूरगामी रूप से स्थायी समाधान के लिए वार्ताकारों को अनुमति देता है."
बाली मे सहमति बनाने की दिशा में जो वार्ताएं होंगी, उनमें अड़चन आ रही है, क्योंकि जी-33 के विकासशील देश खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर एक अंतरिम प्रस्ताव की अवधि पर सहमत नहीं हैं. जी-33 के देश शांति शर्त की अवधि 10 साल करने की मांग कर रहे हैं, जबकि अमरीका जैसे विकसित देश केवल 2-3 वर्ष की अवधि को स्वीकार करने को तैयार हैं.
यह शांति शर्त उन देशों को छूट प्रदान करती है, जो अपने कृषि क्षेत्र को स्वीकृत मात्रा से अधिक निर्यात सब्सिडी देते हैं. यदि बाली में विकसित देश सफल हुए, तो लाखों भूखे लोगों पर मार पड़ेगी. उन लाखों छोटे किसानों की जीविका पर भी चोट पड़ेगी, जो कृषि उत्पाद पर न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करते हैं.
विश्व व्यापार संगठन के पैमाने पर देखें, तो भारत के किसानों को अभी धान पर 24 प्रतिशत ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है - 1986-88 के आधार पर. विश्व व्यापार संगठन के पैमाने पर ज्यादातर विकासशील देशों मे अनुच्छेद 6.4(बी) के तहत कुल समर्थन या अनुदान कुल उत्पादन के सम्पूर्ण मूल्य के 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए.
मैं यहां जी-33 के देशों द्वारा आगे बढ़ाए गए विवादास्पद प्रस्ताव की चर्चा कर रहा हूं. इन देशों में चीन, भारत, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और अन्य देश शामिल हैं. ये देश अपने-अपने देशों में खाद्य सुरक्षा, जीविका और ग्रामीण विकास के लिए दोहा में एकजुट हो गए थे. वहां जो एजेंडा था, उसमें आज संशोधन की जरूरत है. यह तथ्य भारत में सबके सामने है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत गेहूं और चावल की खरीद कई गुना बढ़ जाएगी. भारत चाहता है कि जब किसानों से ज्यादा समर्थन मूल्य के साथ अनाज की खरीद होगी, तो इस लेन-देन को व्यापार बिगाड़ने वाला अनुदान समर्थन न माना जाए. इस सब्सिडी की जरूरत इसलिए है कि भूखे लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान की जानी है. पहले सब्सिडी को 15 प्रतिशत करने का प्रस्ताव था, लेकिन संशोधित प्रस्ताव में इस मात्रा को घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया.
भारतीय वार्ताकार बोल रहे हैं कि न्यूनतम सब्सिडी की मात्रा को 10 से 15 प्रतिशत करना समाधान हो सकता है, लेकिन भारत पर अमरीका और यूरोपीय देशों का बहुत दबाव है. यहां एक अध्ययन की जानकारी देना मौजूं होगा, फ्रांस के जेक्स बर्थेलोट ने बताया है कि भारत में वर्ष 2010 में 4750 लाख लोगों को खाद्य अनुदान दिया गया.
इन लोगों मे गरीबी रेखा से नीचे के 650 लाख लोग और गरीबी रेखा के ऊपर के एक करोड़ लोग शामिल थे. यह खाद्यान्न प्रति व्यक्ति 58 किलोग्राम रहा. दूसरी ओर, अमरीका अपने 650 लाख लोगों को प्रति व्यक्ति 385 किलोग्राम अनाज फूड कूपन, बाल पोषण कार्यक्रमों के जरिये अनुदानित कीमत पर उपलब्ध कराता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो अमरीका प्रति व्यक्ति भारत की तुलना मे 07 गुना ज्यादा अनुदानित खाद्यान्न उपलब्ध कराता है.
सबसे अच्छा समाधान यह होगा कि आधार वष्ाü बदला जाए. वर्ष 1986-88 की बजाय 2007 के बाद के वर्ष को आधार बनाया जाए, ये वही वर्ष हैं, जिनमें 37 देशों में भोजन के लिए दंगे हुए, खाद्यान्न संकट खड़ा हो गया. यह समझना चाहिए कि वर्ष 1986-88 और 2013 के बीच गेहूं और चावल की कीमत में 300 गुना की वृद्धि हुई है, उर्वरकों की कीमत में 480 गुना बढ़ोतरी हुई है. आज कीमत या मूल्य निर्घारण के लिए वर्ष 1986-88 का आधार पुराना पड़ चुका है. शांति शर्त को समाधान के रूप में देखने की बजाय यही वह बिन्दु है, जिसके लिए भारत को दबाव बनाना चाहिए. एक विवादास्पद मुद्दे को मान लेना समाधान नहीं है.
भारत को विकसित देशों के दबाव का अवश्य सामना करना चाहिए. आखिरकार, अपनी भूखी आबादी को भोजन देना, 60 करोड़ किसानों की आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करना भारत की ही जिम्मेदारी है. बाली में वार्ता भले विफल हो जाए, भारत की अपनी दो-तिहाई आबादी के भाग्य से समझौता नहीं करना चाहिए. विकास के लिए भूखों का सौदा नहीं होना चाहिए.
साथ ही, आज यह भी ध्यान रखने की बात है, विकसित देशों में कृषि सब्सिडी वर्ष 1996 के 350 अरब डॉलर से बढ़कर वर्ष 2011 में 406 अरब डॉलर हो गई. वास्तव में बाली में जो वार्ता होने वाली है, उसमें विकसित देशों में बंट रही सब्सिडी को वार्ता के विषय के रूप मे शामिल तक नहीं किया गया है. अत: भारत को विश्व व्यापार संगठन के भविष्य को लेकर जरूर चिंतित होना चाहिए. यहां तक कि दोषपूर्ण व्यापार के घोर समर्थक रहे अर्थशास्त्री जगदीश भगवती ने भी अंतत: यह मान लिया है कि बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था मर चुकी है. वे 27 सितम्बर को न्यू यॉर्क में बोल रहे थे, "दोहा में हुई हल्के सौदे की कोशिश बाली में भी हो रही है, यह एक हल्की कॉफी की तरह है और हम दोहा दौर को बचाना चाहते हैं, यह ठीक उसी तरह से है, जैसे जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कानकून दौर को बचाने के कदम उठाए गए थे."
तो भारत क्यों एक मरे हुए घोड़े को खड़ा करने की कोशिश कर रहा है और वह भी अपने लाखों भूखे लोगों, किसानों, मछुआरों की बलि चढ़ाकर? मैंने हमेशा कहा है, फिर कहता हूं, रांग ट्रेड ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) को दफन करने के लिए जमीन तलाशने की कोशिश भारत क्यों नहीं करता?
11.10.2013, 09.51 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
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