खतरे में जैव विविधता ऐप पर पढ़ें
प्रदूषण का जहर अब मधुमक्खियों और सिल्क वार्म जैसे जीवों के शरीर में भी पहुंच रहा है। रंग-बिरंगी तितलियों को भी इससे काफी नुकसान हो रहा है। यही नहीं, अत्यधिक प्रदूषित स्थानों पर तो पेड़-पौधों पर भी इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि हवा में सल्फर डाइआॅक्साइड, नाइट्रोजन और ओजोन की अधिक मात्रा के चलते पेड़-पौधों की पत्तियां भी जल्दी टूट जाती हैं।
जनसत्ता
Published on: March 12, 2020 12:20 AM
X
भारत में इस समय नौ सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां खतरे में हैं।भारत में इस समय नौ सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां खतरे में हैं।
योगेश कुमार गोयल
विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी और वनस्पति एक-दूसरे की जरूरतों को पूरा करते हैं। इनका जीवन एक-दूसरे पर ही निर्भर रहता है। सही मायनों में जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने और जीवनयापन के योग्य बनाती है। लेकिन विडंबना है कि निरंतर बढ़ते प्रदूषण से जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। अगर भारत में कुछ जीव-जंतुओं की प्रजातियों पर मंडराते खतरों की बात करें, तो जैव विविधता पर दिसंबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (सीबीडी) में पेश की गई छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट से पता चला था कि जैव विविधता को खतरे वाली अंतरराष्ट्रीय सूची में गंभीर रूप से लुप्तप्राय: और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारतीय जीव प्रजातियों की सूची पिछले कई सालों से बढ़ रही है। इस सूची में शामिल प्रजातियों की संख्या में वृद्धि जैव विविधता और वन्य आवासों पर गंभीर तनाव का संकेत है। एक दशक पहले पेश की गई चौथी राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार उस समय इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आॅफ नेचर (आइयूसीएन) की विभिन्न श्रेणियों में गंभीर रूप से लुप्तप्राय: और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारत की चार सौ तेरह जीव प्रजातियों के नाम थे। लेकिन 2014 में पेश पांचवीं राष्ट्रीय रिपोर्ट में यह आंकड़ा बढ़ कर छह सौ छियालीस छठी रिपोर्ट में छह सौ तिरासी तक जा पहुंचा।
भारत में इस समय नौ सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां खतरे में हैं। यही नहीं, विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की सूची में दुनियाभर में भारत का सातवां स्थान है। भारत का समुद्री पारिस्थितिकीय तंत्र बीस हजार से ज्यादा जैविक प्रजातियों के समुदाय की मेजबानी करता है। इनमें से करीब बारह सौ प्रजातियों को संकटग्रस्त और तत्काल संरक्षण के लिए सूचीबद्ध किया गया है। अगर देश में प्रमुख रूप से लुप्त होती कुछेक जीव-जंतुओं की प्रजातियों की बात करें, तो कश्मीर में पाए जाने वाले हांगलू की संख्या सिर्फ दो सौ के आसपास रह गई है, जिनमें से करीब एक सौ दस दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान में हैं। इसी प्रकार दलदली क्षेत्रों में पाए जाने वाली बारहसिंगा हिरण की प्रजाति अब मध्य भारत के कुछ वनों तक ही सीमित रह गई है। वर्ष 1987 के बाद से मालाबार गंधबिलाव नहीं देखा गया है। हालांकि माना जाता है कि इनकी संख्या पश्चिमी घाट में फिलहाल दो सौ के करीब बची है। दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाया जाने वाला दुनिया का सबसे छोटा स्तनपायी सफेद दांत वाला छछूंदर लुप्त होने के कगार पर है। एशियाई शेर भी गुजरात के गिर वनों तक ही सीमित हैं।
कुछ महीने पहले उत्तराखंड से भी चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई थी, जिसमें बताया गया कि प्रदेश की नदियों और अन्य जलस्रोतों में मिलने वाली महाशीर, रौला, स्नो ट्राउट, रेनबो ट्राउट, पत्थर चट्टा, असेला, गारा, गूंज, बरेलियस इत्यादि मछलियों की ढाई सौ प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में हैं और इसका प्रमुख कारण नदियों के आसपास अवैध खनन के चलते पारिस्थितिकीय तंत्र का बिगड़ना है। जिन नदियों में प्राय: पचास से सौ किलो तक वजनी महाशीर जैसी मछलियां बहुतायत में मिलती थी, वहीं अब पांच से दस किलो वजनी मछलियां ढूंढ़ना भी मुश्किल होता जा रहा है। दरअसल उत्तराखंड के ज्यादातर इलाकों में अवैध खनन, लगातार निर्माण कार्य, भू-स्खलन और गलत तरीकों से शिकार के कारण मछलियों के भोजन के स्रोत और उनके पलने-बढ़ने की परिस्थितियां प्रभावित हुई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसे क्षेत्रों में मछलियों के छिपने और प्रजनन की परिस्थितियां प्रतिकूल होती जा रही हैं। भू-स्खलन के कारण नदियों में गाद बहुत ज्यादा बढ़ गई है। इसके अलावा नदियों में जमा होते कचरे के कारण भी मछलियों का भोजन खत्म हो रहा है। देश में हर साल बड़ी संख्या में बाघ मर रहे हैं। हाथियों के ट्रेनों से कट कर मौत की खबरें अक्सर आाती रहती हैं। इसके अलावा वन्य तस्कर भी बेखौफ होकर शिकार कर रहे हैं। इन जीवों पर यह संकट वन क्षेत्रों के घटने और विकास परियोजनाओं के चलते वन्य जीवों के आश्रय स्थलों में बढ़ती मानवीय घुसपैठ से ज्यादा गहराया है।
भारत में वन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के लिए पहला कानून ‘वाइल्ड एलीकेंट प्रोटेक्शन एक्ट’ ब्रिटिश राज में 1872 में बनाया गया था। इसके बाद 1927 में ‘भारतीय वन अधिनियम’ बना कर वन्य जीवों का शिकार और वनों की अवैध कटाई को अपराध की श्रेणी में रखते हुए दंड का प्रावधान किया गया। 1956 में एक बार फिर ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित किया गया और वन्य जीवों के बिगड़ते हालात में सुधार के लिए 1983 में ‘राष्ट्रीय वन्य जीव योजना’ की शुरुआत की गई, जिसके तहत कई राष्ट्रीय उद्यान और वन्य प्राणी अभयारण्य बनाए गए। हालांकि राष्ट्रीय उद्यान बनाने का सिलसिला ब्रिटिश काल में ही शुरू हो गया था, जब सबसे पहला राष्ट्रीय उद्यान 1905 में असम में बनाया गया था और उसके बाद दूसरा राष्ट्रीय उद्यान- जिम कार्बेट 1936 में बंगाल टाइगर के संरक्षण के लिए बनाया गया था। लेकिन आज राष्ट्रीय उद्यानों की संख्या बढ़ कर एक सौ तीन हो गई है और देश में कुल पांच सौ तीस वन्य जीव अभयारण्य भी हैं, जिनमें तेरह राज्यों में अठारह बाघ अभयारण्य भी स्थापित किए गए हैं।
आजादी के बाद से देश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कई परियोजनाएं चलाई गर्इं। इनमें ‘कस्तूरी मृग परियोजना 1970’, ‘प्रोजेक्ट हुंगल 1970’, ‘गिर सिंह परियोजना 1972’, ‘बाघ परियोजना 1973’, ‘कछुआ संरक्षण परियोजना 1975’, ‘गैंडा परियोजना 1987’, ‘हाथी परियोजना 1992’, ‘गिद्ध संरक्षण परियोजना 2006’, ‘हिम तेंदुआ परियोजना 2009’ इत्यादि शामिल हैं। इस तरह की परियोजनाएं शुरू किए जाने के बावजूद शेर, बाघ, हाथी, गैंडे इत्यादि अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि पक्षी आसमान में ज्यादा समय तक रहते हैं और ज्यादा तेज सांस लेते हैं, इसलिए इंसानों की अपेक्षा प्रदूषण का दुष्प्रभाव पक्षियों की सेहत पर ज्यादा पड़ता है। आसमान में उड़ान भरते समय वायु में घुले प्रदूषण कणों के उनके शरीर में प्रवेश करने की संभावना बहुत ज्यादा रहती है। ठंड के मौसम में तो हजारों किलोमीटर दूर से विदेशी परिंदे हर साल दिल्ली सहित भारत के कई हिस्सों का रुख करते हैं, किंतु दिल्ली और आसपास के इलाकों में तो सर्दी के दौरान प्रदूषण अब इस कदर बढ़ जाता है कि परिंदों में अब इस मौसम में दिल्ली से पलायन करने की प्रवृत्ति देखी जा रही है। अगर विदेशी परिंदों के उत्तर भारत पहुंचने की ही बात करें तो इनकी संख्या साल दर साल किस कदर घट रही है। इसका अनुमान इन आंकड़ों से बखूबी लगाया जा सकता है। जहां 2016-17 में यहां पहुंचने वाले पक्षी ‘ग्रेट कारमोरेंट’ की संख्या चार सौ पचहत्तर थी, वहीं 2018-19 में साढ़े तीन सौ दर्ज की गई। इसी प्रकार 2016-17 में नार्दर्न शावलर की संख्या छियानवे, 2017-18 में अठारह और 2018-19 में मात्र एक दर्ज की गई।
पर्यावरण वैज्ञानिक बताते हैं कि प्रदूषण और स्मॉग भरे वातावरण में कीड़े-मकौड़े सुस्त पड़ जाते हैं। प्रदूषण का जहर अब मधुमक्खियों और सिल्क वार्म जैसे जीवों के शरीर में भी पहुंच रहा है। रंग-बिरंगी तितलियों को भी इससे काफी नुकसान हो रहा है। यही नहीं, अत्यधिक प्रदूषित स्थानों पर तो पेड़-पौधों पर भी इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि हवा में सल्फर डाइआॅक्साइड, नाइट्रोजन और ओजोन की अधिक मात्रा के चलते पेड़-पौधों की पत्तियां भी जल्दी टूट जाती हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अगर इस ओर जल्दी ही ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की ज्यादातर प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।
No comments:
Post a Comment