जीना भी एक कला है.
कितनी साधें हों पूरी, तुम रोज बढाते जाते ,
कौन तुम्हारी बात बने तुम बातें बहुत बनाते,
माना प्रथम तुम्हीं आये थे,पर इसके क्या मानी?
उतने तो घट सिर्फ तुम्हारे, जितने नद में पानी
और कई प्यासे, इनका भी सूखा हुआ गला है
जीना भी एक कला है
बहुत जोर से बोले हों,स्वर इसीलिए धीमा है
घबराओ मन,उन्नति की भी बंधी हुई सीमा है
शिशिर समझ हिम बहुत न पीना,इसकी उष्ण प्रकृति है
सुख-दुःख,आग बर्फ दोनों से बनी हुई संसृति है
तपन ताप से नहीं,तुहिन से कोमल कमल जला है
जीना भी एक कला है।
तुहिन= पाला, बर्फ, हिम
जानकी वल्लभ शास्त्री
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