Friday, March 6, 2020

केदारनाथ सिंह बलिया


1. कवि केदारनाथ सिंह बलिया,

'संतन को कहाँ सीकरी सों काम
सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति
और उसमें इतना ताप
कि लगभग पाँच सौ वर्षों से हिला रही है हिंदी को'

और

'यह कैसी अनबन है
कविता और सीकरी के बीच
कि सदियाँ गुजर गईं
और दोनों में आज तक पटी ही नहीं!'

#दिल्लीकी राजधानी न जाने कितने साधारण लोगों के सपनों को कुचलकर उन्हें बंदी बना लेती है, तभी तो कवि कहता है 'किस तरह रातभर बजती हैं जंजीरें'। इसलिए, अपने सद्यतम संग्रह में जैसे ही वह किसी बुढ़िया को राजधानी का रास्ता पार करने की अवस्था में देखता है तो प्रसन्नता से भर जाता है। उल्लास से भर जाता है। इसे 'सबसे बड़ी खबर' के रूप में देखता है -

'देखो कि किस तरह शहर दिल्ली की
उस व्यस्ततम सड़क पर
निर्भय-निश्चिंत चली जा रही है वह बुढ़िया
एक बच्चे की उँगली पकड़ कर"

4.बाजार तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामान से भरा पड़ा है। ब्रांड प्रॉडक्ट से चमक-दमक रहा है। ऐसे में मामूली देशी अमरूद के लिए बाजार में जगह कहाँ है? लेकिन, अमरूद भी हार कैसे मान ले? कवि ने लिखा है -

'अमरूद भी आ गए बाजार में
और यद्यपि वहाँ जगह नहीं थी
पर मैंने देखा छोटे-छोटे अमरूदों ने
सबको ठेल-ठालकर
फुटपाथ पर बना ही ली
अपने लिए थोड़ी जगह'
5.
इस पूँजीवादी-साम्राज्यवादी माहौल में साधारण के पास बिना किसी मध्यस्थ के सहारे पहुँचना चाहते हैं। प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करना चाहते हैं। कवि के शब्दों में -

'मैं बिना किसी मध्यस्थ के
छिलकों और बीजों के बीच से होते हुए
सीधे अमरूद के धड़कते हुए दिल तक
पहुँचना चाहता हूँ'

इसी तरह कवि चावल से भी मिलना चाहता है। बाजार को अस्वीकार करते हुए, उसकी मध्यस्थता को ठुकराते हुए कहता है कि तमाम जरूरी चीजों से प्रत्यक्ष अंतरंग संबंध की आवश्यकता है -

'कैसा रहे
बाजार न आए बीच में
और हम एक बार
चुपके से मिल आएँ चावल से
मिल आएँ नमक से
पुदीने से
कैसा रहे
एक बार... सिर्फ एक बार'

ध्यान देने की बात है कि बाजार के लिए अमरूद, चावल, नमक, पुदीना आदि का बस एक बाजार मूल्य है। लेकिन कवि के लिए इनका बाजार मूल्य से भी बढ़कर एक बड़ा मूल्य है। महत्व है। अनाज से दाना बनने के पीछे जिस श्रम, सौंदर्य और संगीत का माधुर्य है, कवि उसे उद्घाटित करना चाहता है।

बाजार की महत्ता को अस्वीकार करने के बाद कवि ने सारी रात मोमबत्ती की रोशनी में कविता लिखी। बाजार और कविता में अहि-नकुल संपर्क है। कविता में संवेदना का महत्व है। प्रतिरोध का स्वर भी है। लेकिन, बाजार न तो कोई तर्क पसंद करता है और न ही कोई सवाल। वह चाहता है कि लोग आँखें मूँदकर उसके वर्चस्व को मान लें। उपभोक्तावादी संस्कृति को फलने-फूलने दें। तभी तो कवि ने लिखा है -

'जाना था बाजार
मोमबत्ती की रोशनी में
मैं लिखता रहा कविता
क्योंकि सारे हिंदुस्तान में
बिजली गुल थी
अब यह कैसे बताऊँ
लेकिन छिपाऊँ भी तो क्यों
कविता और बाजार की एक हल्की सी भी टक्कर
रोमांचित करती है मुझे'

'इस हल्की सी टक्कर' से 'रोमांचित' होने में युगीन यथार्थ के साथ-साथ युगीन माँग की व्यंजना समाहित है। अपने प्रिय कवि गालिब के बाजार से कुछ चिंगारियाँ लेकर लौटने का उल्लेख करने वाले केदार जी को बाजार से लड़ने की प्रेरणा मिलती है। दाने स्पष्टतया ऐलान करते हैं -

"नहीं
हम मंडी नहीं जाएँगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दाने
जाएँगे तो फिर लौटकर नहीं आएँगे
जाते-जाते
कहते जाते हैं दाने'

'बाजार में आदिवासी' शीर्षक कविता में अंकित निम्न दृश्य देखिए -

"भरे बाजार में
वह तीर की तरह आया
और सारी चीजों पर
एक तेज हिकारत की नजर फेंकता हुआ
बिक्री और खरीद के बीच के
पहले सूराख से
गेंहुअन की तरह अदृश्य हो गया'

कहना न होगा कि केदार जी ने समय की धड़कनों को सही ढंग से पहचाना है। मानवता-विरोधी बाजारवादी अर्थव्यवस्था के दुष्परिणामों को भली-भाँति महसूस किया है। आज कस्बों, शहरों आदि के विकास के सूचक के रूप में मॉल को आधार माना जा रहा है। मॉल कल्चर के चलते जीवन-मूल्य ढहते जा रहे हैं। मनुष्य को त्रासद स्थिति से गुजरना पड़ रहा है। यह विकास के नाम पर विनाश है। यह संस्कृति उन्हीं लोगों के लिए है, जो खाए-पिए और अघाए वर्ग से आते हैं। ग्रामीण जन-जीवन के लिए मॉल कल्चर न तो उपयोगी है और न ही लाभकारी। 'काली सदरी' कविता में कवि ने धागों में छिपी छोटे कस्बे की धूल को महानगर में बचाए रखने का प्रयास किया। भले ही उस धूल को वह बचा न पाया परंतु जर्जर सदरी आज भी उसके पास है। संवेदनाओं और परंपराओं को क्षरित होने से बचा न पाने की पीड़ा कवि को होती है। गाँव के बूढ़े दर्जी को आज भी वह स्मरण कर रहा है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ कवि के भावों को व्यंजित करती हैं -

'बगल के मॉल में
मैंने घंटों तलाश की
पर इससे बेहतर उपहार
मुझे मिला ही नहीं
देश की राजधानी में'
6.
सूर्य

सूर्य को जानना - एक समकालीन का दूसरे समकालीन को जानना है। सूर्य को संभवतः इतनी आत्मीयता के साथ केदार जी ने पहली बार परिचित कराया है। कितनी सहजता के साथ बड़ी से बड़ी बात कह देने की कला केदार जी में है, इसे निम्नलिखित पंक्तियों से जाना जा सकता है -

'मैं उसे इसलिए भी जानता हूँ
कि वह ब्रह्मांड का
सबसे संपन्न सौदागर है
जो मेरी पृथ्वी के साथ
ताप और ऊर्जा की तिजारत करता है
ताकि उसका मोबाइल
होता रहे चार्ज'


'ईश्वर को एक भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव' से कवि की दृष्टि और उसकी चिंता का आभास मिलता है। इस पर सविस्तार चर्चा किए बिना कवि के शब्दों को ही बिंदुवार प्रस्तुत किया जा रहा है-

(क) 'अणुबम को पृथ्वी से उठाकर / रख लेना स्वर्ग में'

(ख) 'पैसे को / दुनिया से ले लेना वापस'

(ग) 'बदल देना ब्रह्मांड का / जर्जर पहिया'

(घ) 'पृथ्वी के बच्चे / कभी-कभी क्रिकेट खेल आएँ / चाँद पर'

(ङ) 'जाति नामक रद्दी को / फेंक देना अपनी टेबुल के नीचे की / टोकरी में'

(च) 'दिल्ली को / ...यमुना और कुतुब समेत रख देना कहीं और'

9. तभी तो उनकी अस्सी वर्ष की अवस्था में 'सृष्टि पर पहरा' कविता-संग्रह प्रकाशित होता है। उम्मीद है कि आगे भी वह कविता की दुनिया को समृद्ध करते रहेंगे। बहरहाल, कवि के शब्दों में -

'मैंने पहली बार जाना
मेरे समय की सबसे जानदार पंक्तियाँ
लिखी जा रही हैं पेड़ों
और पत्थरों की जबान में'

इसलिए, कविता की मृत्यु की उद्घोषणा के बावजूद कवि की सृजनशीलता जारी है। उसका विश्वास है कविता की शक्ति और सामर्थ्य पर -

'पता लगा लो - जो मारे जाते हैं जंगलों में
उन युवा होंठों पर
अक्सर होती है कोई न कोई कविता"
9.

'एक युवा निर्वासन
जो काम की तलाश में
नाच रहा था रोम में'

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